थिएटर ऑफ़ रेलेवंस – रंगकर्म से सकारात्मक परिवर्तन !

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस – रंगकर्म से सकारात्मक परिवर्तन !

-मंजुल भारद्वाज

 

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग दर्शन के अनुसार रंगमंच जीवन को दिशा देने का मंच है। जिंदगी के यथार्थ में पिसते मनुष्यों को अपनी ज़िंदगी से सीखने और दृष्टि जगाने का यह कलात्मक कर्म जीवन को खूबसूरत बनाता है। रंगमंच सिर्फ़ आत्मसंतुष्टि पाना भर नहीं है, आत्म और समाज की मुक्ति का दर्शन है । महज माध्यम नहीं है, मानव मुक्ति का दर्शन छुपा है इसके भीतर। रंगमंच संवेदनाओं को उद्वेलित करना भर नहीं होता, यह संवेदनाओं को सार्थक दिशा देता है।  नुमाइश से पेट भरता है और नुमाइश मनोरंजक होती है, लेकिन रंगमंच नुमाइशबाजी नहीं है। रंगमंच चैतन्य कर्म है। इसके हर सहभागी को चेतना से सम्पन्न बनाता है। चाहे वो लेखक हो, निर्देशक, अभिनेता या कोई और तकनीशियन हो या कि दर्शक। सबको झिंझोड़ता है, सोते से जगाता है और कहता है नाटक सिर्फ़ नाटक नहीं है,बल्कि यही जीवन का सत्य है, जीवन का आईना है, यही सच्चा आलोचक और गाइड है। यह विवेक को आलोकित करता है। मनुष्य के भीतर बैठी चेतना को शिखर तक ले जाता है और मनुष्य होने का अर्थ खोजने का सामर्थ्य देता है।

यह सही है कि पूंजीवादी और वामपंथी संस्थाओं ने एक प्रोपोगंडा टूल की तरह रंगमंच का इस्तेमाल किया है। और आजकल दक्षिणपंथी भी संस्कार,संस्कृति के नाम पर रूढ़िवादी परम्पराओं या विकारों को नाटक से जपने का जतन कर रहे हैं। रंगमंच का टूल की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। रंगकर्म को समग्रता से जीने की ज़रूरत है। उससे केवल सत्ता परिवर्तन ही नहीं होगा अपितु व्यवस्था परिवर्तन भी, जिससे मानवीय विष समाज में कम होगा और मनुष्य बेहतर इंसान बनेगा.

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस सिद्धांत के समग्र क्रियान्वयन के लिए अलग अलग मॉड्यूल में पहल की और समाज के सारे वर्गों को रंगकर्म से जोड़ा। इन कार्यशालाओं से केवल नाट्य प्रस्तुति तक सीमित रंग अनुभव को प्रत्यक्ष रंग अनुभव में बदला। वर्कशॉप में दर्शक स्वयं कलाकार बने, खुद नाटक लिखे,  और निर्देशित कर प्रस्तुत किये। इस प्रक्रिया ने उन्हें नाटक देखते हुए ताली बजाने भर की भूमिका से आगे बढ़ाया। नाटक सिर्फ़ तमाशा नहीं है, एक चैतन्य कर्म है; इस  के विचार से जोड़ा। रंगकर्म से आमूल बदलाव होता है की धारणा को व्यापक जमीन दी।

यूरोप वालों ने कहा थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ’ शांति के लिए प्रतिबद्ध रंगकर्म है। शोषितों को उनके शोषण से मुक्त करने का कर्म है। थिएटर ऑफ़ रेलेवंस विश्व में शांति और अमन कायम कर न्याय सम्मत समाज बना रहा है! भाषा और सरहदों के पार है थिएटर ऑफ़ रेलेवंस !तकनीक से लैस जीवन जीते हुए मशीनी यूरोप ने हमारी मानवीय ऊष्मा, संवेदना से सृजित रंग सिद्धांत को पलकों पर बिठाया।

मानवीय संवेदनाओं और विचारों से लैस हमारे नाटक के सौन्दर्य शास्त्र ने चमत्कारिक रूप से यूरोप को प्रभावित किया। उसके बाद उन्होंने थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के सिद्धांतों को खंगोला। कैसे शोषित और शोषक दोनों इस रंग प्रक्रिया से अपने आप को बदलते हैं? कैसे शोषित अपने हक को हासिल करते हुए शोषक को बदलता है? बदला हुआ शोषक कैसे समता और न्याय सम्मत विश्ब का पैरोकार बनता है?

एक वाकया याद आता है जब मजदूरी की चक्की में पिस रहे बच्चों ने अपने मालिक के सामने नाटक प्रस्तुत किया, तो नाटक देखकर मालिक ने तालियाँ बजाई। बच्चों की तारीफ़ की, उन्हें शाबाशी दी। बच्चे मालिक के इस बर्ताव से भौंचके थे। जो आदमी इनको दिन रात न समय देखता है न जगह, मारता पीटता है, मां-बहन की गालियाँ देता है, वो आज इनके लिए ताली बजा रहा है। मालिक के इस बदलाव ने बच्चों में यह दृष्टि जगाई कि उनमें कोई बात है, कोई कला है। और नाटक में कुछ तो ऐसा है, जो मेरे भीतर कि अच्छाई को दिखाता है। मालिक के मन पर कोई अच्छी छाप छोड़ता है, कुछ बदलता है। इन हताश–निराश बच्चों में आत्मबल जागा कि मनुष्य होने की काबिलियत है उनमें भी है, वो केवल सेवा करने, दूसरों की गुलामी करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं, ये दुनिया उनकी भी है। हाशिये से मुख्यधारा में शामिल होने का उनका ये अनुभव अद्भुत था। नाटक ने शोषक की दृष्टि बदल दी थी उसके बाद उन्होंने  कभी बच्चों से मजदूरी नहीं कराई। बच्चों की पढाई के लिए वो प्रमुख आवाज़ बने। और बच्चों ने पढ़ना शुरू किया। आज वो सारे बच्चे जीवन के किसी न किसी स्वाभिमान भरे मुकाम पर हैं।

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन विश्व को शोषक और शोषित वर्ग में नहीं विभाजित करता, अपितु मनुष्यता की दृष्टि से इसे देखता है। उस चक्र को भेदता है जहाँ शोषक ही शोषित होता है। व्यक्ति के भीतर विकार और विचार को चिन्हित करता है, जो एक समय पर व्यक्ति को शोषित भी बनाता है और शोषक भी। विकार और विचार की दृष्टि स्पष्ट होते हुए जब यूरोप वालों ने स्वयं अनुभव किया तो उन्होंने थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत को अपनाया।

एक संस्मरण और याद आ रहा है, जब जर्मनी के एक शहर ओस्नाबर्क की यूनिवर्सिटी ने थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत के अनुसार दो वर्कशॉप आयोजित किये । विशेष रंगकर्म करने वाले अलग अलग देशों के सात और विशेषज्ञ भी अपनी कार्यशाला कर रहे थे। हम सबको दो समूह दिए गए- पहला बच्चों का और दूसरा प्रोफेशनल थिएटर प्रैक्टिसनर का। उनका मकसद यह जानना था कि थिएटर ऑफ़ रेलेवंस दुनिया में प्रस्थापित रंग पद्धतियों से किस तरह अलग है। बाकी के रंग विशेषज्ञ जहाँ पहले से बनी बनाई एक्सरसाइज़ या गेम्स के द्वारा बच्चों को सिखा रहे थे, वहां थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत ने बच्चों को अवसर दिया की वो क्या करना चाहते हैं? यह सवाल/ तरीका बच्चों के लिए नया था। बच्चों का मिश्रित रेस्पोंस था। फ़िर सहभागियों से पूछा यह कार्यशाला किसकी है? यहाँ निर्णय कौन लेगा? शुरू में धीमी शुरुआत रही हमारी, जबकि बाकी विशेषज्ञ अपने समूह में तेजी से आगे बढ़ रहे थे। बच्चे नौवीं कक्षा के छात्र थे। थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत बने बनाए रास्ते पर चलता, बल्कि सृजन की नयी राह गढ़ता है/ सृजित करता है। थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत उत्प्रेरक ने सहभागियों को साफ़ किया कि कार्यशाला में आपको रेडीमेड उत्तर या अभ्यास नहीं मिलेगा । सब मिलकर वर्कशॉप का ध्येय और फिर उसकी प्रक्रिया तय करेंगे। बच्चों ने शुरू में कहा, बहुत बौद्धिक हो रहा है। बहुत सारे सवाल हैं।  इतना हमने कभी नहीं सोचा। पर तीसरे दिन समूह में आवेग था, स्पष्टता थी क्यों, कब, और क्या करना है। सबकी सहभागिता और रूचि ने कार्यशाला को नई कलात्मक ऊंचाई दी। बच्चों ने ‘लाइफ इज नोट सुपरमार्केट’ नाटक तैयार किया।  विषय, लेखन, निर्देशन और प्रस्तुतिकरण सब छात्रों ने किया। प्रस्तुति के बाद सारे रंग विशेषज्ञ स्तब्ध थे कि कैसे पांच दिन में 40 मिनट का नाटक बच्चों ने स्वयं रचकर प्रस्तुत कर दिया! बाकी समूहों ने थिएटर के गेम्स भर प्रस्तुत किये।

दूसरी कार्यशाला में एक और अद्भुत घटना घटी- प्रोफेशनल थिएटर प्रैक्टिसनर  मनुष्य की चिर चुनौती ‘भूख’ को मंचित करने का अभ्यास कर रहे थे, पर बार बार कोशिश के बाद भी ऑथिन्टिसिटी के चरम को नहीं छू पा रहे थे। एक अभिनेत्री बहुत उद्द्वेलित हो रही थी, तो दूसरा अभिनेता मसखरापन कर रहा था थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत उत्प्रेरक ने बहुत जोर से उनको डांटा तो उनका श्रेष्ठतावाद बाहर निकल आया। उन्होंने उत्प्रेरक से कहा,’सॉरी यू कैन नोट शाउट, वी आर जर्मन’ ! उत्प्रेरक ने और गुस्से में उत्तर दिया,’ वो जर्मन व्यक्तियों पर गुस्सा नहीं कर रहा है , वो उन कलाकारों की विवशता पर गुस्सा कर रहा हूँ, जो ‘भूख’ को सच्चे और वास्तविक भाव के साथ अभिनीत तो करना चाहते हैं, पर कर नहीं पा रहे हैं’!  उत्प्रेरक का यह जवाब सुनकर पूरा सभागृह वाह वाह की आवाज़ के साथ तालियों से गूंज उठा। इसके बाद समूह ने अद्भुत प्रस्तुति की ‘भूख’ की। वो अभिनेत्री दीवानी हो गई थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत की और उसने थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत की कई कार्यशाला यूरोप में आयोजित की।

एक और संस्मरण याद आता है- पूर्वी जर्मनी के साले नदी के हाले शहर की घटना है। वहां भी बच्चों और बड़ों की कार्यशाला थी। बच्चों ने विषय चुना था ‘मदरलैंड ऑफ़ आवर ड्रीम्स’। इस विषय ने राष्टवाद वाली सोच को धराशायी कर दिया। बड़ों की वर्कशॉप में ‘नए क्षितिजों की खोज’ के लिए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत उत्प्रेरक ने एक अभ्यास डिजाइन किया था- स्कूल के एक कमरे को एक बार मदद लेकर बॉडी रोल कर या अन्य विधि से दूसरे छोर पर आना था। सबने अपने अपने तरीके से यह अभ्यास किया, पर एक महिला सहभागी अभ्यास करने के बाद दिन भर रोती रही। दिन भर नहीं बोली। अगले दिन कहा कि बॉडी रोल करते हुए उसने नाज़ी कैंप के जन संहार को याद किया। थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने मुझे मेरे कल्चरल बैगेज से मुक्त किया। उसके बाद यूरोप में थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत की सैकड़ों कार्यशाला आयोजित हुईं!

विकसित देशों में थिएटर साधन सम्पन्नता के नीचे दबकर मर जाता है। वहां थिएटर में मनुष्य नहीं, तकनीक का वर्चस्व है। तकनीक और मशीनीकरण की गंध आती है। भारत में अंधी नकल करने वाले उसी के शिकार हैं। पर भारत में आज भी संवेदना और मनुष्य के जीवित होने का रंगकर्म जीवित है। गाँव या शौकिया समूहों में या कहूँ संसाधन हीनता ही हमारे यहाँ रंगकर्म को तकनीक की बर्बरता से बचाए हुए है, वरना, रंगकर्म लाइट एंड साउंड शो में तब्दील हो चुका होता।

लेखक के अपने निजी विचार हैं। इससे सहमति जरूरी नहीं है।

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