थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने तोड़ी भ्रांतियां
कला : रूढ़िवाद, पाखंड और भगवान का वरदान
मंजुल भारद्वाज
मनुष्य प्राणियों के साथ जंगल में पैदा हुआ। जंगल में सभी प्राणियों के साथ रहना सीखा । पेट भरने के सवाल ने उसकी चेतना को उत्प्रेरित किया । जंगल में रहते हुए मनुष्य की चेतना प्रकृति से जुड़ी। शरीर सौष्ठव के लिए प्राणियों की भांति शरीर अभ्यास किया । कालांतर में मनुष्य ने उसे योग कहा। शरीर अभ्यास योग तब कहलाया जब मनुष्य ने जंगल में अपनी समाधि अवस्था का ज्ञान हुआ । मनुष्य चेतना इस स्तर पर पहुंची कि उसने प्राणियों से सीखकर मस्तिष्क को विकसित किया । ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं को समझना शुरू किया ।प्रकृति के स्वर को सुना । ताल को समझा। पानी के बहाव,स्पर्श,निर्मलता को आत्मसात कर अपने अंदर संगीत का सृजन किया । हवा के वेग से फुर्ती, शीतलता, खुशबू और बदबू का भान, मिट्टी से ऊर्जा, पैदावार, स्वभाव को जाना, समुद्र से चंचलता, मंथन और विशालता को ग्रहण कर पर्वतों से तटस्थ रहना सीखा । योग साधना से श्वास को नियंत्रित कर मनुष्य ने दृष्टि आलोक को साधा। यही दृष्टि आलोक कला है।
भारत के एक दो प्रदेशों की सरकार भी ऐसे रंगकर्मियों का वित्त पोषण करती हैं। ऐसे रंगकर्मियों का मकसद होता है सिर्फ़ नाटक करना । नाम बड़े बड़े होते हैं, व्यावसायिक नाटक, प्रायोगिक नाटक, शौक़िया नाटक, राज्य नाट्य स्पर्धा के नाटक । दर्शक भी चाव से देखते हैं इन नाटकों को । पर ना रंगकर्म का उद्देश्य पूरा होता है ना दर्शक की चेतना जागती है।
इस कलात्मक चैतन्य ने मनुष्य की पंच इंद्रियों को विकसित किया। मनुष्य ने संगीत, नृत्य, अभिनय से अपने जीवन की दुश्वारियों, बदसूरती को सुंदर और खूबसूरत बनाया। चेतना का घोड़ा जिस रफ्तार से दौड़ता गया वैसे ही वो बेलगाम भी होता गया । मनुष्य ने जंगल में अपने आप को प्राणियों से अलग करना शुरू किया । बड़े बाड़ों, गुफाओं को अपने नियंत्रण में ले लिया। प्राणियों और अपने बीच दीवार खड़ी कर ली । आज जो हम कंक्रीट के जंगल में कैद पा रहे हैं वो उसी दीवार का परिणाम है।
जैसे मनुष्य प्राणियों से अलग हुआ लालच ने उसे मनुष्यों का शोषक बना दिया। कला को जीवन की मुख्य धारा से अलग कर नाचने गाने तक सीमित कर उसे मंदिरों या धार्मिक अनुष्ठान बना दिया । शोषण को न्याय संगत ठहराने के लिए सत्ताधीशों ने सब भगवान की इच्छा बता दिया। न्याय चेतना जगाने वाली कला को भगवान के अनुष्ठान में लगा रूढ़िवादी नुमाइश बना दिया । थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन उसी रूढ़िवाद को तोड़ रहा है। कला चेतना प्राकृतिक गुण है उसमें भगवान का कोई लेना देना नहीं है क्योंकि भगवान को मनुष्य के डर ने पैदा किया है। और कला मनुष्य को डर या भय से मुक्त करती है । पाखंड युक्त करती है। सत्ताधीशों ने कला को पाखंडों से भर उसकी नुमाइश की। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन कला के पाखंडों को तोड़ उसे चैतन्य और सौंदर्य के मूल तत्वों के रूप में प्रस्थापित कर रहा है।
कला प्राकृतिक है। वो हर उस मनुष्य में पैठती है जो उसे साधने के लिए समर्पित हो । भगवान का उससे कोई लेना देना नहीं है क्योंकि होता तो कलाकार चैतन्य शील होते हुए भी भूखा नहीं मरता, किसी सत्ताधीश का मोहताज नहीं होता । भगवान नहीं है इसलिए सत्ताधीश का शोषण निरंतर चल रहा है। कला इसी शोषण के खिलाफ़ विद्रोह है। जितनी कला की प्रस्तुति में कृत्रिमता आएगी उसका सत्व उतना ही छूटता जाएगा । थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन कला को उसके प्राकृतिक स्वरूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को सीधा उसमें सहभागी बना रहा है। नाट्य प्रस्तुति के पहले ना पर्दा , ना कोई पाखंड विधि … सीधा दर्शक संवाद और प्रस्तुति !
सत्ता का जयकारा बनाम जनसरोकार :
सत्ता पोषित नाट्य समूह बिलकुल गोदी मीडिया की तरह निर्लज्ज होकर सत्ता का जयकारा लगाते हैं। इनके विषय होते हैं मिथक गौरव गान,देव स्तुति,आस्था, गॉशिप , सास बहु आदि आदि । सरकार प्रतिरोध के लिए चंद राजनैतिक पार्टियों के लिए नाटक एक प्रोपोगंडा टूल है। नाटक विकसित हो ,रंगकर्मी नया सृजन करें यह उनका मकसद नहीं होता अपितु प्रोपोगंडा कैसे हो यह ध्येय होता है। इनके लिए नाटक यूज़ & थ्रो वाला सामान हैं। कहने को इनके राष्ट्रीय स्तर पर नाट्य संगठन होते हैं पर नाटक के लिए नहीं । अक्सर यह कला की बजाय युवाओं के जोश और सत्ता के खिलाफ़ असंतोष का उपयोग करते हैं। कला की बात जब आती है तब इन महान क्रांतिकारियों की चेतना शून्य हो जाती है। मूलतः राजनीतिक कौम कला चेतना शून्य है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन कला चेतना सम्पन्न पीढ़ी तैयार कर रही है। सत्ता का जयकारा लगाते लगाते रंगभूमि मृत हो गई है। सांप सीढ़ी का खेल देखते देखते सचेत जनता ने नाटक से किनारा कर लिया। ऐसे में जुमला चलाया जाता है, वैचारिक नाटक नहीं चलते । दर्शकों को नुमाइश चाहिए होती है चैतन्य नहीं ।
थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने इन भ्रांतियों को तोड़ा है। दर्शकों से पूछा, प्राणियों और मनुष्य में क्या फ़र्क है? संवेदना तो सब में होती है पर मनुष्य के पास विचार करने की प्राकृतिक क्षमता है। जो आपकी विचार शक्ति को कुंद करे, मिटा दे क्या वो कला है? थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन मनुष्य को मनुष्य बनाते हुए उसकी चेतना को इंसानियत की ओर उत्प्रेरित करता है। वैचारिक नाटकों का मंचन कर विवेक जगा रहा है। इस रंग प्रतिबद्धता से नए कलाकारों की पीढ़ी तैयार कर रंगभूमि को जीवित करने के कर्म में समर्पित है।
थियेटर ऑफ़ रेलवंस का उन्माद और अंधभक्ति के बरक्स कलात्मक संवाद !
घर में घुसकर मारेंगे के बरक्स कलात्मक संवाद ! घर में घुसकर मारेंगे यह घोषणा हिंसा को प्रोत्साहित करता है या देश की सुरक्षा को ? ऊपरी तौर पर यह सनसनी फैलाता है। उन्माद पैदा करता है। आधी सूचना देता है। जवाबदारी और जवाबदेही से पलायन है।सत्ताधीश की गलती, कमज़ोरी और निकम्मेपन को सेना के माथे मढ़ देता है। जनता सनसनी का शिकार हो जाती है। देशभक्ति की बजाय अंधभक्ति को पूजती है। शांति, सद्भाव की बजाय हिंसा का मार्ग अपनाती है। और इस खेल को सत्ताधीश षड्यंत्र वश रचते हैं । अदंर घुस कर मारेंगे के उन्माद में अपनी गलती को छुपा रही है सत्ता । सेना की जवाबदारी है देश की सरहदों की सुरक्षा । स्वतंत्र भारत की सरहदों की सुरक्षा के लिए हमारी सेना ने हर कुर्बानी दी है और सरहदों को महफूज़ रखा है। पर सत्ताधीश का कार्य है कि देश के अंदर कोई हिंसा ना हो, कोई देश में हिंसा करने के लिए घुस नहीं पाए । निर्दोष नगारिकों की हत्या ना कर सके । सेना सरहद संभालती है तो देश की आंतरिक सुरक्षा किसकी ज़िम्मेदारी है? सेना का मिशन होता है। शांति स्थापना । सेना शांति के लिए होती है उन्माद,अंधभक्ति या भ्रम फैलाने के लिए नहीं! थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंग दर्शन देश की सुरक्षा, सार्वभौमिकता, अखंडता और शांति के लिए प्रतिबद्ध है। अहिंसा,कला और संवाद हमारी ऊर्जा है,संबल है और कलात्मक प्रण है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस विगत 33 वर्षों से धर्मांधता,सांप्रदायिक हिंसा,वर्चस्ववाद, विषमता,जाति द्वेष, नफ़रत के विरुद्ध न्याय,समता, शांति, सौहार्द,प्रेम, भाईचारे, लोकतांत्रिक और संविधान सम्मत भारत के निर्माण के लिए कलात्मक अलख जगा रहा है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस का सूत्र है संवाद । संवाद का अर्थ है सद् विवेक बुद्धि संप्रेषण! हम दर्शकों से उनके घर में जाकर संवाद करते हैं। घर, बस्ती, गांव से लेकर महानगरों तक यह सिलसिला चल रहा है। संवाद से सद् विवेक जगाने की यह कलात्मक यात्रा सतत् जारी है। दर्शक संवाद से अपने नाटकों से दर्शकों को जोड़ा है। दर्शकों के साथ, सहभाग और सहयोग ने इस रंग आंदोलन को प्राण दिए। दर्शकों के साथ से थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने भारतीय रंगभूमि का व्याकरण बदल दिया, धारणा बदल दी । रंगभूमि मात्र मनोरंजन के लिए नहीं बदलाव की उत्प्रेरक है। हिंसा नहीं, अहिंसा की पैरोकार है उन्माद,द्वेष, नफ़रत नहीं विवेक,प्रेम, सौहार्द को पोषित करती है।
दीमक लगी लकड़ी का सेट बनाम खाली रंगमंच !
नेपथ्य: नाटक सूक्ष्म को स्थूल करने की प्रस्तुति है। इसमें सूक्ष्म है चेतना,विचार,विवेक जो नाट्य पाठ के रूप में सृजित होते हैं। नाट्य पाठ के इस सृजन को आत्मसात कर मंच पर प्रस्तुत करते हैं कलाकार। कलाकार अपनी विभिन्न अभिनय प्रक्रियाओं से नाट्य पाठ की चेतना और विवेक को दर्शकों से जोड़ते हैं। इस प्रक्रिया में कल्पनाशक्ति की अहम भूमिका है। जो दर्शक चेतना को नाट्य पाठ के स्पंदन से जोड़ती है। इस स्पंदन संप्रेषण में दर्शक की कल्पना शक्ति बाधित होती है तो नाट्यपाठ का विचार,दृष्टि और विवेक दर्शक तक नहीं पहुंच पाते और नाट्य मंचन एक शारीरिक और भावनिक प्रलाप भर रह जाता है। नाटक भोग वस्तु बन जाता है। दर्शक कल्पना को बाधित करने का सत्ता षड्यंत्र है सेट । सरकारी ड्रामा स्कूल प्रशिक्षण ने सेट उपयोग को बढ़ावा दिया है। उसे इस तरह रंगकर्मियों के मन में बिठा दिया है कि बिना सेट नाटक ही नहीं हो सकता । सेट ने मंच को मूढ़ बना दिया । मंच जब रिक्त रहता है तब शब्द कल्पना की उड़ान भरते हैं। पर सेट शब्दों की कल्पना के पंख कुतर कर उसे जड़ यानी वस्तु बना देता है। अभिनय करने वाले किसी कारखाने के मज़दूर और नाटक किसी फैक्ट्री का प्रॉडक्ट बन जाता है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने नाटक को प्रोडक्ट और कलाकारों को मज़दूर होने से मुक्त किया है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन अपने कलाकारों को अभिनय के बहुआयामों में प्रकृति के सानिध्य में तराशता है। प्रकृति के साथ स्पंदित होने की प्रक्रिया से जोड़ता है। संगीत,नृत्य,अभिनय में प्रवीण होते हैं थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के कलाकार । कलाकार प्रकृति के पत्तों,लकड़ियों,पत्थरों और लोक साजों से संगीत सृजन करते हैं। लोक साज जो प्रकृति के स्पंदन को स्पंदित करते हैं। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के कलाकार पंछियों के स्वर,कलकल और ध्वनियों को आत्मसात कर पूरी प्रकृति को मंच पर उतार लाने में सिद्धहस्त हैं। इस अभिनय साधना में थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के कलाकार कला चैतन्य और सौंदर्य बोध को साधते हैं और न्यूनतम वेशभूषा और प्रकाश योजना के साथ मंच की रिक्तता को अपने अभिनय स्पंदन से आलोकित कर नाट्य पाठ की चेतना को दर्शकों में स्पंदित करते हैं! चैतन्यशील दर्शक रंगकर्म को जीवन मूल्य के रूप में आत्मसात करते हैं। इसलिए थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन दर्शक को प्रथम और सशक्त रंगकर्मी मानता है। क्योंकि दर्शक रंगभूमि का प्राण है।
रंगभूमि नुमाइश नहीं चैतन्य बोध की प्रस्तुति का कलात्मक मंच है।
Theatre of Relevance philosophy enhanced the horizon of Theatre/ ART by defining ART – A Romance with Truth. This changed the whole perception & perspective of ART / theatre from merely an exhibition to illumination of human conscience embracing truth which leads towards a better & humane world! थियेटर ऑफ़ रेलेवंस ने यही व्याख्या की है कला की । ART – A Romance with Truth! कला सत्य का पथ है। सत्य का शोध है कला । नाटक झूठ है पर उसका ध्येय सत्य उजागर करना है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस ने अपने नाटकों से कला के इन तत्वों का निर्वहन किया है।
थियेटर ऑफ़ रेलवंस नाट्य दर्शन रूढ़ियों को नहीं जपता अपितु बदलता है:
रंगकर्म में अमूमन रूढ़ियों को जपने का रिवाज़ है। महिलाओं की स्थिति,शोषण,आस्था को अक्सर संस्कार और संस्कृति का गौरव बताया जाता है।
क्या अंधविश्वास, छुआछूत,जातिवाद, वर्णवाद को बढ़ावा देना उनको न्यायसंगत बताना हमारी संस्कृति है? नहीं ,बिल्कुल नहीं ! शोषण, अन्याय,असमानता किसी समाज की संस्कृति नहीं हो सकती ! यह अपसंस्कृति है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन ऐसी रूढ़ियों को तोड़ता है। गोधड़ी नाटक भारतीय संस्कृति का शोध है। क्या हिंसा हमारी संस्कृति है? क्या वर्णवाद हमारी संस्कृति है? ऐसे सभी प्रश्नों को गोधड़ी नाटक ने खंगोलकर संस्कृति को पुन : परिभाषित किया है। ऐसे ही किसी महान विचारक को महानता की चौखट में बांध उसकी पूजा करना, उनके विचारों को आत्मसात नहीं करने का पलायन है। ऐसे महान विचारकों को अभिनीत करते हुए थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन उन्हें लिंग दायरे की रूढ़ि से बाहर निकाल एक विचार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके महान विचारों का महिमा मंडन करने की बजाए , उनके विचार हमारे जीवन में कहां हैं के प्रश्न उपस्थित करता है।
नाटक के लिए नाटक करना :
थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन नाटक के लिए प्रतिबद्ध है, पर थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन नाटक करने के लिए नाटक नहीं करता अपितु रंगकर्म से दर्शकों में चैतन्य और सौंदर्य बोध जगाने के लिए नाटक करता है,यूं कहें कि नाट्य सृजन करता है। शिल्प की नकल नहीं सृजन : अमूमन नाट्यकर्मी एक दूसरे की नकल करते हैं। एक दूसरे की ट्रिक्स चुराते हैं। इसे यह प्रेरणा कहते हैं । पर किस से प्रेरणा ली है उसको श्रेय नहीं देते क्योंकि इसमें उतनी उदारता नहीं है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन अपना शिल्प सृजित करता है। यह शिल्प हर नाटक के कथ्य और ध्येय से सृजित होता है। सत्ता पोषित : दुनिया में अधिकतर रंगकर्म सत्ता पोषित है। भारत में सरकार अपने स्कूल में प्रशिक्षण प्राप्त नाचने गाने वाले हुनरमंद जिस्मों को अपना जयकारा लगवाने के लिए चंद सिक्के फेंकती है।
भारत के एक दो प्रदेशों की सरकार भी ऐसे रंगकर्मियों का वित्त पोषण करती है। ऐसे रंगकर्मियों का मकसद होता है सिर्फ़ नाटक करना । नाम बड़े बड़े होते हैं, व्यावसायिक नाटक, प्रायोगिक नाटक, शौक़िया नाटक, राज्य नाट्य स्पर्धा के नाटक । दर्शक भी चाव से देखते हैं इन नाटकों को पर ना रंगकर्म का उद्देश्य पूरा होता है ना दर्शक की चेतना जागती है। पूरा रंग परिदृश्य ढर्रे पर घूमता रहता है और एक क्रियाकलाप बना जाता है सांप और नेवले के खेल की तरह । अख़बारों में सांप और नेवले को नाचने वाले मदारी के हुनर की खूब तारीफ़ होती है। पर अंत में ना सांप को नेवला खाता है और ना ही सांप नेवले को । बस होती है एक नुमाइश । नाटक के नाम पर इस नुमाइश को पोषित है सत्ता । कहने को नाट्य परिषद जैसे संगठन होते हैं पर वो रंगकर्म के लिए नहीं राजनेताओं के लिए नुमाइशी मंच बन जाते हैं जहां रंगकर्मी सिर्फ़ एक कठपुतली होता है।
थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के लिए नाटक एक नुमाइश नहीं जनसरोकारों की कलात्मक प्रतिबद्धता का मंच है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन किसी सत्ता के वित्त से पोषित नहीं अपितु जन सहभाग और सहकार्य से संचालित है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन के नाटक नुमाइश नहीं चैतन्य बोध है। जिसमें सरकार का जयकारा नहीं जनसरोकारों का लावा होता है !
वैचारिक नाटक नहीं चलते:
रंग परिदृश्य में सत्ता समय समय पर षड्यंत्र रचती है ताकि रंगभूमि को अपने मूल उद्देश्य से रंगकर्मियों और दर्शकों को भटका सके । पथ भ्रष्ट कर सके । बहुतेरे रंगकर्मी ऐसे हैं जिन्हें रंगकर्म के मूल उद्देश्य की तो छोड़िए सत्ता के भटकाव का ही पता नहीं होता । ऐसे रंगकर्मी सत्ता के भटकाव और भ्रम को ही रंगकर्म मानते हैं। सत्ता चाहती है कि रंगकर्म नुमाइश भर रहे। इसके लिए वो चंद सिक्कों की बौछार करती है। ग्रांट देती है। आजकल उसका साथ कॉर्पोरेट दे रहे हैं। वो हर साल नाटकों और नाटक कर्मियों को उत्तम ,सर्वोत्तम का दर्जा दे प्रमाणित करती है। नाट्यकर्मी उसके यहां अर्जी देकर धन्य महसूस करते हैं और इनाम मिल जाए तो मोक्ष प्राप्ति की खुमारी में जीते हैं। सत्ता द्वारा प्रायोजित नाटक नुमाइश भर होते हैं। जिसमें दिमाग लगाने,खपाने,सोचने का काम नहीं होता सिर्फ़ अलग अलग तरीक़े से भावनाओं का दोहन होता है जिसको सत्ता मनोरंजन कहती है। मनोरंजन को ही रंगकर्म का ध्येय मानती है यही धारणा दर्शकों में प्रस्थापित करती है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंगदर्शन इसी धारणा/ भ्रांति को तोड़ता है।
थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंगदर्शन रंगकर्म के मूल उद्देश्य को दर्शकों में प्रस्थापित करता है। कला का मूल उद्देश्य दर्शकों की चेतना जगाना है। कला का अर्थ है सत्य की खोज , सत्य पथ यानी ART – A Romance with Truth! संवेदना तो प्राणियों में भी होती है। तो फ़िर मनुष्य और प्राणियों में क्या फ़र्क? वो फ़र्क है चेतना का ,विचार करने की क्षमता का । बुद्धि और ज्ञान का । विवेक का । सोचिए वो कौन है जो दर्शक को सिर्फ़ प्राणी मात्र समझते हैं मनुष्य नहीं ? या यूं कहें मनुष्य की चेतना बुद्धि को खत्म करना चाहते हैं ताकि दर्शक सवाल ना कर सकें। क्या आप उनको कलाकार या रंगकर्मी कहेंगे। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंगदर्शन दर्शक को प्राणी मात्र नहीं अपितु समग्र चिंतन करने वाला क्षमतावान नागरिक समझता है। सत्ता के षड्यंत्र को तोड़ते हुए थियेटर ऑफ़ रेलेवंस रंगदर्शन वैचारिक नाटकों का मंचन कर दर्शकों के चैतन्य को आलोकित करता है। गर्भ,अनहद नाद – Unheard Sounds of Universe, राजगति, लोक – शास्त्र सावित्री, सम्राट अशोक, गोधड़ी , द… अदर वर्ल्ड आदि नाटकों से वैचारिक नाटक नहीं चलते की भ्रांति को तोड़ दर्शकों की सहभागिता से हाउसफुल का बोर्ड बॉक्स ऑफ़िस पर लगा अपनी चैतन्य और सौंदर्य बोध प्रस्तुतियों से दर्शकों के चैतन्य को आलोकित कर रंगभूमि के मूल को प्रस्थापित किया है।
लेखकः मंजुल भारद्वाज