इंक़लाब की अलख: शहीद-ए-आज़म की विरासत और आज का भारत

जेल में हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े भगत सिंह पुस्तक और डायरी के साथ ।

 

आज भगत सिंह की  जयंती है। देश की आजादी और नागरिक समानता के लिए भगत सिंह शहीद हो गए। वह केवल देश को अंग्रेजों से मुक्त नहीं कराना चाहते थे बल्कि शोषण और असमानता की बेड़ी को भी काटकर सभी भारतीयों को ऐसा देश देना चाहते थे जिसमें सभी को अपने अधिकार मिलें और कोई किसी के भरोसे न रहे। इसी लिए वे साम्यवादी विचारों की तरफ झुके थे और रूस की क्रांति को पथ प्रदर्शक के तौर पर देखते थे। शहीदे आजम की जयंती के मौके पर प्रतिबिम्ब मीडिया उन पर केंद्रित कई आलेख प्रकाशित कर रहा है। इन लेखों के साथ उस महान शख्सियत को प्रतिबिम्ब मीडिया परिवार और उसके चाहने वालों की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि।   

 

इंक़लाब की अलख: शहीद-ए-आज़म की विरासत और आज का भारत

एस.पी. भाटिया

 

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह—यह नाम केवल इतिहास की धरोहर नहीं है, यह एक जीवित चेतना है। यह नाम जब भी उच्चारित होता है, मन में एक अजीब-सी हलचल, एक जोश, एक बेचैनी पैदा करता है। यह नाम उस युवा की याद दिलाता है जिसने अपनी उम्र की 23 वसंत ऋतुएँ भी पूरी नहीं कीं और हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। यह नाम हमें याद दिलाता है कि क्रान्ति कोई पुस्तक का शब्द नहीं, बल्कि एक ज्वालामुखी है—जो अन्याय, शोषण और दमन के खिलाफ फूट पड़ता है।

आज, जब हम उनकी 117वीं जयंती मना रहे हैं। यह केवल उनके चित्र पर फूल चढ़ाने का अवसर नहीं है। यह समय है अपने भीतर झाँकने का, अपनी आत्मा को टटोलने का और यह पूछने का कि क्या हम उनके सपनों के भारत में रह रहे हैं? क्या हमने उस क्रान्ति को समझा है जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया?

यौवन की मशाल: भगत सिंह का जीवन और संघर्ष

27 सितम्बर 1907 को पंजाब के बंगा गाँव में जन्मे भगत सिंह बचपन से ही असाधारण थे। उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में सक्रिय थे। किशोरावस्था में ही जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने उनके मन पर अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने खेतों में खेले, पर वही खेत जब अंग्रेज़ों के अत्याचार से सिसकने लगे, तो वह खेल का मैदान रणभूमि में बदल गया।

किशोर भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते हुए ही क्रान्तिकारी दलों से जुड़ गए। उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) के माध्यम से सशस्त्र क्रान्ति का बीड़ा उठाया। पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि वे अंध हिंसा के पक्षधर नहीं थे। उनका उद्देश्य था—जनमानस को जगाना, औपनिवेशिक शासन की जड़ें हिलाना और युवाओं को यह दिखाना कि अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े होना ही असली धर्म है।

उन्होंने कहा था— “बम और पिस्तौल क्रान्ति नहीं लाते, क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।”

दार्शनिक क्रान्तिकारी: विचारों की शक्ति

बहुत लोग मानते हैं कि भगत सिंह केवल क्रान्तिकारी थे, पर उनका व्यक्तित्व इससे कहीं बड़ा था। वह गहरे दार्शनिक विचारक थे। जेल में रहते हुए उन्होंने “Why I am an Atheist” लिखा, जो उनकी बौद्धिकता का परिचायक है। इस निबंध में उन्होंने धर्म, ईश्वर, कर्म और भाग्य के सवालों को तार्किक विवेक से परखा। उन्होंने लिखा—”मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता क्योंकि मैंने देखा है कि मनुष्य अपने साहस और संघर्ष से ही अपनी नियति बदल सकता है।”

उनकी दृष्टि केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद को हटाने तक सीमित नहीं थी। वे चाहते थे कि एक नया भारत बने—जहाँ शोषण का अंत हो, किसान को न्याय मिले, मजदूर को सम्मान मिले, और सबको समान अवसर प्राप्त हों।

उन्होंने स्पष्ट कहा था— “स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है। इसका अर्थ है – शोषण का पूर्ण अंत, चाहे वह विदेशी पूँजीपतियों द्वारा हो या स्वदेशी पूँजीपतियों द्वारा।”

आज यह विचार हमें फिर से याद करना चाहिए, क्योंकि भारत आज भी आर्थिक विषमता, बेरोजगारी और सामाजिक अन्याय की चुनौतियों से जूझ रहा है।

फाँसी की सच्चाई: मौत को मात देने वाला वीर

23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दी गई। किंवदंती है कि फाँसी के दिन भी वे हँसते हुए गा रहे थे— “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…”

जब उन्हें फाँसीघर की ओर ले जाया गया, तो उनके चेहरे पर मृत्यु का भय नहीं, बल्कि संतोष और गर्व की आभा थी। यह केवल व्यक्तिगत साहस नहीं था—यह उस विचारधारा की विजय थी, जो कहती है कि अन्याय के सामने झुकना मृत्यु से भी बदतर है।

फाँसी से कुछ समय पहले उन्होंने जेलर से कहा था— “हमें फाँसी नहीं दी जानी चाहिए, हमें तोप के मुँह से उड़ाया जाए ताकि दुनिया देख सके कि कैसे भारत के सपूत अपने प्राणों की आहुति देते हैं।”

भगत सिंह के विचार बनाम आज का भारत

आज का भारत तकनीकी प्रगति कर रहा है, अंतरिक्ष में पहुँच रहा है, लेकिन क्या हम उतने ही साहसी हैं जितने भगत सिंह थे? क्या हम अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाते हैं? क्या हम डर और चुप्पी की राजनीति को स्वीकार कर चुके हैं?

आज भी बेरोजगारी लाखों युवाओं को खा रही है। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। सामाजिक विषमता बढ़ रही है। ऐसे में भगत सिंह की पुकार गूंजती है— “इंक़लाब ज़िंदाबाद!”

यह केवल नारा नहीं है। यह हमें झकझोरने के लिए है। यह हमें कहता है—खड़े हो जाओ, अपने हक़ के लिए लड़ो, अन्याय को सहन मत करो।

नई पीढ़ी के लिए संदेश

आज का युवा भगत सिंह को केवल सोशल मीडिया पोस्ट में याद न करे। उन्हें अपने जीवन में उतारे। उनकी तरह सवाल पूछे, उनकी तरह विचार करे, उनकी तरह साहसी बने।

नया शेर जो इस अवसर पर उन्हें समर्पित है—

“जो हँस के फाँसी चढ़ गए, वो आज भी पुकारते हैं, इंक़लाब की मशाल उठाओ, हम तुममें दोहराते हैं।”

सच्ची श्रद्धांजलि

भगत सिंह की जयंती केवल छुट्टी का दिन या औपचारिक कार्यक्रम नहीं है। यह एक आह्वान है—कि हम अपने समाज को न्यायपूर्ण, समान और निर्भीक बनाएँ। जब तक देश में डर, असमानता और अन्याय मौजूद हैं, तब तक भगत सिंह की क्रान्ति अधूरी है।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि फूल चढ़ाने से श्रद्धांजलि पूरी नहीं होती। श्रद्धांजलि तब पूरी होती है जब हम उनके विचारों को जीते हैं। जब हम अन्याय को चुनौती देते हैं। जब हम सच बोलने का साहस करते हैं।

“ख़ून से लिखी गाथा है ये, पढ़ने का साहस करो, जो फाँसी पर हँसे थे, उनके विचारों को जीवन में अपनाओ।”

यह आलेख एक अलख है—एक पुकार है। एक स्मरण है कि इंक़लाब अभी अधूरा है। हमें अपनी आत्मा को झकझोरना होगा, तभी हम भगत सिंह के सपनों का भारत बना पाएँगे। यही इस दिन की सच्ची अर्थपूर्ण श्रद्धांजलि होगी।

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती पर यह आलेख राष्ट्र की चेतना को पुनः जागृत करने का प्रयास है।

लेखक- एस.पी.भाटिया

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