लघुकथा ‘सरदार’ : भाषा की अस्मिता पर प्रहार और विचार का उद्घाटन

समीक्षा

लघुकथा ‘सरदार’ : भाषा की अस्मिता पर प्रहार और विचार का उद्घाटन

 एस.पी. सिंह

डॉ. अशोक भाटिया की लघुकथा ‘सरदार’ (संग्रह सूत्रधार, पृष्ठ 44) न केवल भाषा की राजनीति पर व्यंग्य है, बल्कि यह मनुष्य के विचार-संकट का भी तीखा उद्घाटन है। अल्प शब्दों में लेखक ने वह सब कह दिया है, जिसे कहने में कई विचारक ग्रंथ भर देते हैं। यह कथा हमें यह सोचने पर विवश करती है कि भाषा का असली अर्थ उसके भाव, उपयोग और संवेदना में निहित है, न कि उसकी जड़ या जातीय उत्पत्ति में।

कथा की पृष्ठभूमि अत्यंत सरल है — एक हॉल में हिंदी के हितैषियों का सम्मेलन हो रहा है। वक्ता अंग्रेज़ी को गुलामी की निशानी बताकर उसके शब्दों के बहिष्कार का आह्वान करते हैं। लेकिन पीछे बैठा एक साधारण युवक जब व्यावहारिक प्रश्न करता है — “बटन, पैंट, पुलिस, डॉक्टर जैसे शब्दों को हिंदी में क्या लिखें?” — तो सभ्य समाज की समस्त वाक्-क्रांति सहसा मौन हो जाती है। इस एक प्रश्न ने सैद्धांतिक भाषणबाज़ी की चूलें हिला दीं।

डॉ. भाटिया की कथा का शिल्प गहरा और सूक्ष्म है। शब्दों के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा दृश्य रचा है जिसमें संवाद से अधिक मौन बोलता है। वह मौन जो हर सभ्यता की ढोंगधारी दीवारों में गूंजता है। युवा की हिम्मत और उसकी बौद्धिक जिज्ञासा उस समाज के सामने एक दर्पण रख देती है, जो खुद अपने विचारों की असंगति में उलझा हुआ है।

जब दूसरा वक्ता उर्दू और फ़ारसी के शब्दों को गुलामी की निशानी बताता है, तो वही युवक फिर खड़ा होता है और व्यंग्यपूर्ण प्रश्न करता है — “सरदार शब्द भी फ़ारसी का है, क्या इसे भी छोड़ दें?” यह प्रश्न केवल भाषा पर नहीं, बल्कि हमारी मानसिक गुलामी पर चोट करता है। यही वह क्षण है जब कथा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचती है। युवक का हाल से बाहर निकल जाना, और उसके बाद छाया सन्नाटा — यह प्रतीकात्मक चित्रण उस सत्य का द्योतक है कि विचारों का वास्तविक मूल्य संवाद में नहीं, साहस में निहित है।

लेखक ने अपनी इस रचना में गहरे दार्शनिक आशय को बहुत सादे रूप में प्रस्तुत किया है। व्यंग्य, तंज़ और बुद्धि — तीनों का अनुपात अद्भुत संतुलन में है। ‘सरदार’ का व्यंग्य किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि उस विचार की जड़ता पर है जो भाषा को केवल जातीय दृष्टि से देखता है। डॉ. भाटिया हमें याद दिलाते हैं कि भाषा किसी की गुलाम नहीं होती; वह तो मनुष्य की संवेदना और विचार की अभिव्यक्ति है। शब्द चाहे फ़ारसी के हों, अंग्रेज़ी के या संस्कृत के — जब वे लोक के उपयोग में उतरते हैं, तो उनकी राष्ट्रीयता मिट जाती है, और वे संस्कृति के अंग बन जाते हैं।

यह लघुकथा केवल भाषाई विमर्श नहीं है; यह हमारी सोच की अस्मिता पर प्रश्न उठाती है। आज के युग में जब भाषा को राजनीति, धर्म या जातीयता से जोड़कर देखा जा रहा है, तब डॉ. भाटिया की यह रचना और भी अधिक प्रासंगिक हो उठती है।

साहित्यिक दृष्टि से यह कथा अपने शिल्प, संवाद और प्रतीकात्मकता में अत्यंत प्रभावी है। इसमें व्यंग्य की धार भी है और चिंतन की गहराई भी। लेखक ने बौद्धिक प्रश्न को अत्यंत सहज मानवीय परिस्थिति में रखकर उसे सार्वभौमिक बना दिया है। यही लघुकथा की सबसे बड़ी सफलता है — संक्षिप्त आकार में गहन प्रभाव।

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि ‘सरदार’ जैसी रचनाएँ केवल पुस्तकालयों में सीमित नहीं रहनी चाहिएं, बल्कि विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों तक पहुँचनी चाहिएं। ऐसे साहित्य से भाषा के प्रति सम्मान, तर्कशीलता और आत्मचिंतन की संस्कृति विकसित होती है।

डॉ. अशोक भाटिया की यह रचना अपने आप में एक दर्पण है — जिसमें समाज अपनी भाषाई पाखंडता और विचारगत विसंगति को स्पष्ट देख सकता है।

संक्षेप में कहा जाए — ‘सरदार’ केवल एक लघुकथा नहीं, बल्कि एक चेतना है — विचार, व्यंग्य और विवेक का संगम।

पुस्तक: सूत्रधार (लघुकथाओं का तीसरा संग्रह)

 

सूत्रधार
लघुकथाओं का तीसरा संग्रह
सूत्रधार- लघुकथाओं का तीसरा संग्रह
डॉ अशोक भाटिया
जन्म: अम्बाला छावनी (पूर्व पंजाब) मातृभाषा पंव
कार्य-क्षेत्र: पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, अब स्वतंत्र लेखन
(प्रकाशन: अब तक सात विधाओं की 44 पुस्तकें प्रकाशित
कविता-संग्रह (दो) लघुकथा-संग्रह (तीन) आलोचना और
यात्रा- संस्मरण, व्यंग्य, बाल-साहित्य,
विमर्श (पांच),
ज्ञान- साहित्य के अलावा सम्पादन की अनेक पुस्तकें प्रकाशित।
लघुकथा: रचना और आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर। लघुकथा संग्रह ‘अंधेरे में आँख’
(तीन संस्करण – मराठी, तमिल और अंग्रेजी में भी प्रकाशित), संपादन में ‘निर्वाचित
लघुकथाएँ’ (चार संस्करण). आलोचना में ‘समकालीन हिंदी लघुकथा’ (हरियाणा
ग्रन्थ अकादमी, पंचकूला से प्रकाशित) और ज्ञान-साहित्य में ‘अंधविश्वास : रोग और
इलाज (सात संस्करण) विशेष चर्चित
अन्यः आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक केन्द्रों से साहित्यिक कार्यक्रम प्रसारित।
साहित्यिक कार्यशालाओं में विषय-विशेषज्ञ भाषा, साहित्य और समाज के आयामों पर
देश भर में सक्रिय भागीदारी।
पुरस्कार/सम्मान – हरियाणा साहित्य अकादमी के ‘बाबू बालमुकुन्द गुप्त सम्मान’
सहित रायपुर, कोलकाता, पटना, शिलांग, भोपाल, इंदौर, हैदराबाद, दिल्ली, अमृतसर,
जालंधर, गुरदासपुर आदि की संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संपर्क: बसेरा, 1882 सेक्टर 13, करनाल 132001 
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ईमेल : kitabwale@gmail.com