सवाल तो पूछना होगा
‘ दिक्काल’ के इस विस्तार में
निरंतर फैलता हुआ ब्रह्मांड,
जिसे रचने में प्रकृति ने
क़रीब 14 बिलियन साल लगाए हैं।
ये भरा है करोड़ों करोड़ मंदाकिनियों से,
जिनमें से एक है,
हमारी आकाशगंगा – मिल्की वे।
अनंत की इस ‘लघु-अनंत’- सी आकाशगंगा में हैं कई सौ बिलियन तारे।
अगर इस आकाशगंगा के एक सिरे से प्रकाश चले तो
दूसरे सिरे तक पहुँचने में उसे एक लाख से अधिक प्रकाश-वर्ष लगेंगे, पर इस ब्रह्मांड के विस्तार में अपनी धुरी पर घूमती हुई
ये आकाशगंगा,
ख़ुद एक कण से ज़्यादा नहीं,
लेकिन ज़रा ठहरो,
इसके किनारे पर है एक नन्हा-सा तारा,
बहुत खूबसूरत, चमकता हुआ,
और इस तारे का पड़ोसी तारा,
सबसे क़रीब होते हुए भी लगभग चार प्रकाश-वर्ष से ज़्यादा दूर,
इस नन्हे से तारे के चारों तरफ़ चक्कर लगाती नौ गेंदें,
कुछ ठोस और कुछ गैस की बनीं,
इनके अलग-अलग अद्भुत रंग,
इनमें से एक गेंद,
अद्भुत, निराली और सबसे अलग, वायुमंडल की पतली सी चादर में लिपटी, दूर से देखें तो नीली-हरी आभा से दीप्त
अगर समुद्र के तट से रेत का एक कण लेकर,
उसे उतने ही भागों में बाँटें, जितने कुल कण तट पर मौजूद हैं,
तो इस फैले ब्रह्मांड की तुलना में
रेत के उस एक कण से भी छोटी है यह नन्ही-सी गेंद,
जिसे हम धरती कहते हैं।
ब्रह्मांड के अथाह विस्तार में इस नन्ही-सी गेंद की बस
इतनी ही हैसियत है।
इस गेंद की उम्र है 4.5 बिलियन साल उतनी ही जितनी इसके परिवार के और सदस्यों की है
ब्रह्मांड के मुक़ाबले आधी से थोड़ी कम।
ये खूबसूरत गेंद बनी है खारे पानी से भरे समंदर से,
सख़्त धरती की परत से,
और अंदर उबलते, पिघले लावे से,
इसमें जमी हुई बर्फ़ है, मीठे पानी की झीलें हैं,
ताल-तलैया हैं यहाँ,
बहती नदियाँ हैं,
पहाड़ों पर खिलखिलाते हुए झरने हैं।
समंदरों में, सूखी ज़मीन पर,
और बर्फ़ पर भी,
प्रकृति ने ज़िंदगी की जो हज़ारों शक्लें रची हैं,
उनमें से हज़ारों-हज़ार शक्लें,
हर पल पैदा हो रही हैं,
लुप्त भी हो रही हैं,
जीवन के प्रवाह का उत्सव है यह निरंतर, अविराम।
ब्रह्मांड के अनंत विस्तार के बरक्स इस खूबसूरत नन्ही-सी गेंद पर सख़्त धरती के सात बड़े टुकड़े हैं,
इन नन्हे-नन्हे टुकड़ों पर नन्हे-नन्हे देश हैं,
इन नन्हे देशों में नन्हे-नन्हे शहर हैं,
इन नन्हे शहरों में नन्हे-नन्हे मोहल्ले हैं,
इन नन्हे मोहल्लों में, नन्ही इमारतें हैं,
और इन नन्ही इमारतों में से किसी एक इमारत के
नन्हे से कमरे में बैठ कर, शायद आप यह किताब पढ़ रहे हैं।
सृष्टि ने इस लम्हे, इस क्षण को, जिसमें आप यह किताब पढ़ रहे हैं,
पैदा करने में 13.799 बिलियन साल से ज़्यादा वक़्त लगाया है,
इस कहानी के अंत में
यह सवाल पूछना ज़रूरी हो जाता है कि प्रकृति ने 13.799 बिलियन साल लगा कर हमें, यानी इंसान को, क्यों पैदा किया, इंसान का दिमाग़ जो शायद सृष्टि की
सबसे खूबसूरत शै है,
आख़िर इसकी क्या ज़रूरत थी?
ज़रूरी सही, पर महज़ विज्ञान का सवाल नहीं है।
यह सवाल तो हमें,
अलग-अलग भी और मिलकर भी पूछना
होगा,
क्या प्रकृति ने हमें इसलिए पैदा किया कि हम इस नन्ही-सी गेंद पर,
अपना क़ब्ज़ा जमाने के लिए,
खुद को देशों, जातियों, धर्मों, नस्लों, प्रांतों, भाषाओं में बाँट लें,
और अपनी नन्ही सी जिंदगियों में नफ़रत बोएँ और नफ़रत काटें,
क्या हम इस नन्ही-सी गेंद पर इसलिए पैदा हुए हैं कि
इस गेंद के लिए ही ख़तरा बन जाएँ, इस गेंद के हर प्राणी के लिए ख़तरा बन जाएँ,
ऐसे ख़तरनाक हथियार पैदा करें, और ऐसे हथियारों के अंबार लगाएँ,
जो इस धरती को ही नष्ट कर दें,
सृष्टि के ख़ज़ाने को इस तरह लूटें कि
अगली नस्लों के लिए कुछ न बचे,
ऐसा सामाजिक ढाँचा बनाएँ
जिसमें एक प्रतिशत इंसानों के पास
धरती की 90 प्रतिशत दौलत हो
और 90 प्रतिशत मानवता रोटी को तरसती रहे,
हमें पूछना होगा कि क्या सृष्टि के इस सफ़र को जारी रखना है या नहीं,
हमें अमन और शांति के हक़ में अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करना है या,
जंग हमारा लक्ष्य होगी।
ज़िंदगी के छोटे-छोटे स्वार्थ पूरे करने की चाह में
हम भूल जाते हैं कि
सृष्टि ने मानवता के लिए एक और महान लक्ष्य भी चुना है
‘प्रकृति के रहस्यों को जानने-समझने का लक्ष्य’,
विज्ञान इसी लक्ष्य की चाह में लगातार बढ़ते रहने का नाम है।