चंडीगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ पंजाब का आयोजन, राष्ट्रीय सेमिनार में उठे तमाम मुद्दे
आज के दौर में जब ख्यालों का दायरा तंग हो रहा हो, चिंतन का धरातल सिकुड़ रहा हो, संवाद फतवों में तब्दील हो रहा हो, लेखक राष्ट्रीय सरोकारों से टूट कर आत्म-अभिव्यक्ति के खोल तक सिमट गया हो, सत्ता द्वारा प्रायोजित अमानवीय एंव साम्प्रदायिक ताकतें सत्ता के नशे में चूर भारत को धर्मों, भाषाओं, रंगो, नस्लों एंव क्षेत्रों के आधार पर बांट रही हों और अवाम को उनके असल मुद्दों से भटकाकर नफरती मुद्दों का चुग्गा फेंककर बहका रही हैं।
ऐसे समय में पिछले दिनों प्रगतिशील लेखक संघ की पंजाब इकाई द्वारा करवाया गया राष्ट्रीय सेमिनार जन-साधारण की एकता, एकरसता एंव विभिन्नताओं और संवादी विरासत का विलक्षण उदाहरण था। फैज़़ अहमद फैज़ यादगार भवन के रूप में पंजाब कला परिषद के सहयोग से सम्पन्न हुआ यह कार्यक्रम, ‘मानस की जात सभै एक पहचानबो’ का संदेश देने वाली पंजाब की धरती पर बुल्ले शाह की इस आवाज, ‘सच बोल बंदे क्यूं डरना एं’ से शुरू हुआ और पूरे दिन 19 राज्यों के साढे तीन सौ अदीब विचारों का आदान-प्रदान करते रहे।
उद्घाटन सत्र ‘भारतीय जनतन्त्र, सामाजिक न्याय एंव साहित्य’ विषय पर बोलते हुए दलित चिंतन पर अपनी विशेष पकड़ रखने वाले आंध्र प्रदेश के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रो0 कांचा इलैया ने भारतीय चिंतन की मुख्यधारा से दलितों के हाशियाकृत हो जाने की साजिश पर उंगली रखते हुए कहा कि मनुवाद भारत में इस्लाम या ईसाई धर्म के विकास को रोकने के लिए नहीं बल्कि शूद्रों/दलितों एंव आदिवासियों के विकास को रोकने के लिए रचा गया था।
असल में इसका सारा वृतान्त शूद्रों के विरुद्ध है। आर्यण ब्राह्मणवाद की पहली पुस्तक ऋगवेद में भी हल, गैंती, ईंट, चमड़े का जिक्र नहीं किया गया, क्योंकि इनकी तरफ से इन सबको आध्यात्मिक रूप से प्रदूषित माना जाता था।
उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता राष्ट्रीय प्रगतिशील परम्परा के पुरोधा ख्वाजा अहमद अब्बास की भतीजी सईदा हमीद ने की। उन्होनें अपनी अध्यक्षीय टिपण्णी में अपनी निजी पीड़ा के हवाले से कहा, ‘‘मैंने अपनी जिंदगी में अनेक पहचानों के साथ समानान्तर कार्य किये हैं लेकिन 2014 से मेरी पहचान मुस्लिम औरत के रूप में मेरे माथे पर गुदवा दी गई। हालांकि इससे पहले मैंने 17 वर्षों तक राष्ट्रीय महिला आयोग और योजना आयोग जैसी उच्च संस्थाओं समेत अलग-अलग राष्ट्रीय संस्थानों में कार्य किया है। मेरा कार्य जाति, वर्ग या नस्ल की परवाह किए बिना सभी भारतीयों के लिए था।’’
पत्रकारिता के क्षेत्र की बुलन्द आवाज एंव राज्यसभा टी0वी0 के संस्थापक कार्यकारी संपादक उर्मिलेश ने कहा कि देश की राजनीति में कभी आम्बेडकर को अछूत माना जाता था। लेकिन पिछले समय से आम्बेडकर के विचारों को संजीदगी से पढ़ा जाने लगा है। साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द अकेले लेखक और पत्रकार थे जिन्होंनें ‘हंस’ पत्रिका के प्रथम पृष्ठ पर आम्बेडकर की तस्वीर छापी थी। उन्होंने कहा कि डा0 आम्बेडकर अपने नेतृत्व में बनी संविधान सभा के संविधान से संतुष्ट नहीं थे। इसलिए उन्होंनें एक वैकल्पिक संविधान की पाण्डुलिपि तैयार की। इससे पूर्व संस्था के अध्यक्ष एंव चिंतक पी0 लक्ष्मीनारायणा ने कहा कि आज के साजिशी हालातों में एक ऐसा माहौल बनाए जाने की जरूरत है जहां असल लोकतन्त्र समाज में अपनी जड़े जमा सके। नेतृत्वकारी लेखकों और कलाकारों की तरह हमें इस दिशा में प्रमुख भूमिका निभानी होगी क्योंकि किसी भी चीज से ज्यादा रचनात्मक कला सीधे तौर पर लोगों के दिलों को छूती है।
प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डा0 सुखदेव सिंह सिरसा ने दिवंगत प्रो0 चौथी राम यादव, डा0 सुरजीत पात्तर और डा0 मोहनजीत को याद करते हुए कहा कि बेशक हुक्मरान असहमति रखने वाली हर आवाज को दबाना चाहते हैं लेकिन जगी हुई जमीर वाले लोग बुल्ले शाह की विरासत को आगे बढ़ाते हुए हर फतवे के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं।
‘भारतीय लोकतन्त्र के समक्ष चुनौतियां’ पर आयोजित सत्र में प्रलेसं के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण राय ने कहा पिछले कुछ वर्षों से देश के धर्म निरपेक्ष ढ़ांचे को ध्वस्त करने की कोशिशें की जा रही हैं। आजादी के 75 वर्षों पश्चात पृथकतावाद की ताकतें बेशक कमजोर हुईं हैं लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुईं। वे किसी भी समय राष्ट्रीय राज्य बनने की यात्रा को पटरी से उतार सकती हैं।
वरिष्ठ प्रगतिशील चिंतक वीरेन्द्र यादव के अनुसार देश में राजनीतिक लोकतन्त्र को बचाने का संघर्ष चल रहा है। उन्होने कहा कि हिन्दू राज का संकल्प समानता विरोधी है। अपने समय के दौरान प्रेमचन्द, अम्बेडकर एंव भगत सिंह जैसे चिंतक इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ रहे थे। आर0एस0एस0 जैसे संगठनो को मार्क्सवाद अपना दुश्मन लगता है। इसलिए वह इस विचारधारा को टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल कह कर नफरती लहजे में आलोचना कर रहे हैं। राजस्थान से आए वरिष्ठ लेखक हेतु भारद्वाज ने कहा कि हमें अतीत के अनचाहे गुणगान से मुक्त होकर नौजवानों संग संवाद रचाना चाहिए। मध्य प्रदेश से पधारी नारी चिंतक प्रो0 आरती ने अपने संबोधन में कहा कि बेशक मसला जाति, लिंग, नस्ल अथवा धार्मिक असमानता का हो, ये सारी लड़ाइयां पीड़ितों द्वारा लड़ी जा रही हैं, जो इसके शिकार रहे हैं। इसी वजह से ये लड़ाइयां बिखरी हुई हैं।
‘सामाजिक परिवर्तन की दिशाएं एंव साहित्य’ के सत्र में झारखंड के प्रसिद्ध विद्वान रणेन्द्र ने विश्व उपन्यास के हवाले से कारपोरेट आर्थिकता के क्रूर चेहरे की परतें उतारते हुए यह कहा कि कारपोरेट आर्थिकता के घेरे में आम आदमी का स्पेस सिकुड़ रहा है। उत्तरप्रदेश से डा0 असीम त्रिपाठी का कहना था वैश्वीकरण और उदारीकरण के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है। रहनुमाई करने वाले रहबर राहजनी पर तुले हुए हैं। ग्लोबलाइजेशन के दैत्य का अब सबसे बड़ा हमला परिवारों को तोड़ने पर है। मध्यप्रदेश की लेखिका एंव सामाजिक कार्यकर्ता सारिका श्रीवास्तव ने कहा कि एक तरफ नौजवानों की आबादी के एक बड़े हिस्से के पास रोजगार के आवश्यक मौके नहीं है और खेत-मजदूरों के लिए रोजी-रोटी का कोई वैकल्पिक साधन नहीं है और दूसरी तरफ सबसे बड़ी चुनौती संवैधानिक संस्थाओं को बचाने की हैं। इस सत्र को समेटते हुए प्रगतिशील लेखन के राष्ट्रीय स्तम्भ विनीत तिवारी ने कहा कि लोकराज को सिर्फ वोट तन्त्र से नहीं बचाया जा सकता। उनका कहना था कि विभिन्न संघर्षरत संगठनों ने अपनी संवेदनाओं को एक दायरे तक सीमित कर लिया हैं। वाम संगठनों की यह समझ है कि अपनी संप्रभुता बचाने का काम अकेले नहीं किया जा सकता।
‘पहचान की राजनीति और साहित्य’ के आखिरी सेशन में खालिद हुसैन ने कहा कि कश्मीर का भारत से रिश्ता सास-बहू की तरह है। कश्मीर दमन और आतंक का शिकार बना हुआ है। कवयित्री वंदना चौबे ने कहा कि वर्ण और जाति का आपसी संबंध है। वर्ग संघर्ष न होने के चलते पहचान की राजनीति का स्वरूप बदल गया है।
आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्षरत डाक्टर कुसुम माधुरी टोपो (छत्तीसगढ़) ने कहा देश का जनजातीय समाज बेबसी का जीवन जी रहा है। अपने पर हो रहे अन्याय का प्रतिरोध करने वालों को नक्सली बताकर मारा जा रहा है। वर्तमान में धर्म के नाम पर आदिवासियों को आपस में ही लड़ाया जा रहा है। दलित चिंतक राकेश वानखेड़े के अनुसार देश एक तरफ हिंदुत्व पर गर्व करने वालों तथा दूसरी ओर हिंदू धर्म में न मरने की आकांक्षा रखने वाली आम्बेडकर की विचारधारा में बंटा हुआ है। वरिष्ठ लेखक स्वर्ण सिंह विर्क ने समापन भाषण देते हुए वर्तमान के एतिहासिक सन्दर्भों के जरिए आधुनिक दौर के विकृत तथ्यों का कच्चा चिट्ठा श्रोताओं के सामने रखा। औपनिवेशिक आजादी के मूल्यों को भुलाने और नष्ट करने के षडयन्त्र के प्रति सचेत रहने के आहवान के साथ सभा का समापन हुआ।
आयोजन में अनेक पुस्तकों-पुस्तिकाओं का लोकार्पण किया गया। इन तमाम सत्रों में समूचे संवाद को आगे बढ़ाने में डा0 स्वराजबीर, डा0 सरबजीत सिंह, डा0 कुलदीप सिंह दीप एंव डा0 हरविन्दर सिरसा ने महती भूमिका निभाई।
प्रस्तुतिः गुरबख्श सिंह मोंगा