हरियाणाः जूझते जुझारू लोग-15
लड़ाकू सेना के निडर कमांडर – पूनमचन्द रती
सत्यपाल सिवाच
नगरपालिकाओं में काम करने वाले बहुत से कर्मचारियों को भी नहीं पता कि उनके संगठन का जन्म किस रूप में आन्दोलन के बीच से हुआ था। वह कौन शख्स था जिसके नेतृत्व में पालिका दर पालिका स्थानीय गैर कर्मचारी दबंगों द्वारा नियंत्रित यूनियन ने राज्य स्तर के जुझारू संगठन का रूप ले लिया? वे शख्स कोई दूसरी दुनिया के आदमी नहीं है, बल्कि हमारे बीच ही जन्मे, पले, ठोकरें खाकर उभरे पूनम चन्द रती हैं।
पूनमचंद रती फतेहाबाद शहर के ठाकुर बस्ती मोहल्ले में एक मजदूर परिवार श्रीमती श्योबाई और नन्दलाल के घर पैदा हुए। उनके पैदा होने पर उनके माता-पिता को अपार खुशी हुई कि उनके यहाँ होनहार पुत्र का आगमन हुआ। वे तीन भाई हैं। पूनमचंद ने दसवीं पास करने के बाद मजदूरी व रंगरोगन का काम शुरू कर दिया था। बाद में उन्होंने बी.ए. तक पढ़ाई की। 1976 में 12 अगस्त को वे फायरमैन के पद पर नौकरी में आ गए और 31मई 2013 को फायर ऑफिसर पद से सेवानिवृत्त हुए।
दसवीं पास की, शादी हुई और सिर पर घर चलाने की जिम्मेदारी आ गई। मजदूरी करते हुए कुछ दिन रिक्शा चलाया। उसके बाद रंगरोगन-पेंटर का काम किया तो शिल्पकार लेबर यूनियन बनाई। उसके सचिव बने। सर्वकर्मचारी संघ के गठन के दौरान नगरपालिका कर्मचारी संघ बनाया। मुद्दे आकर्षक थे। बेगार, बदहाल जीवन और कच्ची नौकरी से छुटकारा पाने के लिए राज्य स्तर का तानाबाना खड़ा किया और धीरे-धीरे यूनियन का नेतृत्व बाहर के लोगों से लेकर कर्मचारियों ने संभाला। वे नगरपालिका कर्मचारी संघ के गठन के बाद उसके अध्यक्ष बने और सेवानिवृत्ति तक रहे। तीन बार सर्वकर्मचारी संघ हरियाणा के अध्यक्ष रहे। बीच में तीन बार संगठन सचिव व एक बार वरिष्ठ उपाध्यक्ष रहे।
पूनम चंद रती बताते हैं – दिहाड़ी, मजदूरी आदि करते हुए स्वयं गरीबी के दौर के मुश्किल जीवन से परिचय हो गया था। वे कहते हैं कि हालांकि वह शुरुआती दौर में ब्रह्माकुमारी के विचारों के प्रभाव में थे। बाद में मास्टर मुखत्यार सिंह के जरिये वामपंथी विचारों और आन्दोलन से संपर्क बना। साहित्य पढ़ा। समानता और छुआछूत के बारे में उनके विचार व व्यवहार ने अमिट छाप छोड़ी थी। टेक्सटाइल मजदूरों के संघर्ष के चलते भी संगठन से जुड़ाव गहरा हुआ।
कर्मचारियों की सभा को संबोधित करते पूनम चंद रती
पूनमचंद रत्ती का जीवन बाकी कर्मचारियों से थोड़ा अलग था, क्योंकि आर्थिक तंगी के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर छुआछूत से भी लड़ना था। नगरपालिका में नौकरी लगने के बाद ही प्रशासन से टक्कर होने लगी थी। यूनियन थी लेकिन उसके नेता कर्मचारी नहीं, मौहल्ले के कोई कांग्रेस से जुड़े आदमी बन जाते थे। कुछ पालिकाओं बी एम एस के आवरण में भाजपा के लोग भी नेता थे। हमने वहाँ बाइलॉज के अनुसार काम के घंटे तय करवाने के लिए आन्दोलन चलाया। मुझे निलंबित कर दिया गया, लेकिन बाद में बहाल करना पड़ा। सन् 1983 में फतेहाबाद में सर्वकर्मचारी मजदूर संगठन बनाया। झूठे मामले बनाए। दो वेतनवृद्धि रोकी।
पुलिस लाठीचार्ज आदि कई बार सहा। सन् 1996-97 की पालिका हड़ताल में उन्हें गिरफ्तार कर अम्बाला व फिर महेन्द्रगढ़ जेल भेज दिया गया। 21.01.1997 से 04.03.1997 तक वे और मास्टर शेरसिंह भूखहड़ताल पर रहे। इस अवधि में भी जेल में रहे। सन् 1993 की हड़ताल में उनको बर्खास्त कर दिया गया था। सन् 1998 में नर्सिंग आन्दोलन में पुलिस हमले में एक आँख की रोशनी चली गई। बुड़ैल जेल में भी रहे। यह मुकदमा पूरे बारह साल चला। सन् 1998 में संघ की कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को बैठक से पकड़ लिया गया। उससे चार दिन में छूटे। कुल 79 दिन की जेल हुई। उत्पीड़न की सभी कार्रवाइयां आन्दोलन के समझौते के साथ समाप्त हो गयीं।
अब उनके परिवार में खुशहाली है। दो बेटियां हैं जो विवाहित हैं और अपने परिवार के साथ सुखी हैं। दोनों बेटे पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी में हैं। एक सरकारी वकील है और उसकी पत्नी शिक्षा विभाग में पीजीटी है। दूसरा बेटा पुलिस अधिकारी है। वे सपत्नी तीसरी पीढ़ी के पालन में व्यस्त रहते हैं। बीच बीच में सामाजिक कार्यों में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं।
वे वर्तमान समय पर भी नजर टिकाए हैं। बकौल पूनमचंद – दौर कठिन है। पहले की तरह तत्काल सीधे टकराव की बजाए कार्यकर्ताओं की नब्ज को पकड़ें और उसके अनुसार एक्शन देंगे तो सफलता मिलेगी।
जाति या धार्मिक भेदभाव न करें। कार्यकर्ताओं के परिवार के दु:ख सुख में सम्मिलित हों। दुनिया भर के मेहनतकश को एकजुट कैसे करें, यह बड़ी चुनौती है।
वे सन् 1997 में 43 दिन भूखहड़ताल पर रहे। उनका मानना है – मृत्यु का भय तो तनिक भी नहीं रहा। मेडिकल में आने के बाद से विद्या भी साथ ही रही। वे भी मजबूत रहीं। जीवन समाज के लिए चला भी गया तो समाज हमें भी संभाल लेगा,यह विश्वास भी था। ऐसे संघर्षशील साथी को सलाम! सौजन्य ओम सिंह अशफ़ाक
लेखकः सत्यपाल सिवाच