भारत की राजनीति में ‘डनिंग–क्रूगर इफ़ेक्ट’
धर्मेन्द्र आज़ाद
आज के भारत के समाज की मनःस्थिति और राजनैतिक दिशा को समझने के लिये केवल चुनावी नतीजों, नेताओं के भाषणों या टीवी डिबेट की शोरगुल तक सीमित रहना काफ़ी नहीं है। भारतीय समाज के मनोविज्ञान को भी समझना जरूरी है कि लोग कैसे सोच रहे हैं और उससे भी ज़्यादा अहम—वे वैसा सोच क्यों रहे हैं।
मनोविज्ञान में एक प्रसिद्ध अवधारणा है—डनिंग–क्रूगर प्रभाव (Dunning–Kruger Effect)। इसका सार यह है कि जिन लोगों का किसी विषय पर ज्ञान सीमित होता है, वे अक्सर उसी अधकचरे ज्ञान पर असाधारण आत्मविश्वास के साथ भरोसा कर आत्ममुग्ध होने लगते हैं। वे खुद को विशेषज्ञ समझने लगते हैं, जबकि जिन्हें सच में पढ़ने, समझने और अनुभव से गुज़रने का अवसर मिला होता है, वे अधिक सतर्क रहते हैं, संदेह करते हैं, तर्क और तथ्यों पर ज़ोर देते हैं, और सवाल पूछने को कमजोरी नहीं बल्कि ज़रूरत मानते हैं। संक्षेप में—कम जानकारी अक्सर अहंकार बन जाती है, और अधिक जानकारी और अधिक ज्ञान और अनुभव हासिल करने की जिज्ञासा पैदा करती है।
आज यही प्रवृत्ति हमारे समाज और राजनीति में बड़े पैमाने पर दिखाई देती है। इतिहास, अर्थव्यवस्था, संविधान, सामाजिक संरचना या अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बुनियादी समझ के बिना भी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ‘ज्ञान’ के आधार पर बड़ी संख्या में लोग पूरे आत्मविश्वास के साथ यह घोषित कर देते हैं कि देश बिल्कुल सही दिशा में है, सरकार हर मोर्चे पर सफल है और जो कोई असहमति जताए, वह या तो सिरफिरा है या देशद्रोही। यहाँ डनिंग–क्रूगर प्रभाव केवल व्यक्तिगत सोच तक सीमित नहीं रहता, बल्कि एक सामूहिक मानसिकता का रूप ले लेता है।
इसका एक स्पष्ट उदाहरण भाजपा-आरएसएस की राजनीति की ओर भीड़ का झुकाव है। यह झुकाव केवल नीतियों या कार्यक्रमों के समर्थन तक सीमित नहीं दिखता, बल्कि पहचान, गर्व और भावनात्मक जुड़ाव में बदल गया है। बहुत से लोग यह मानने लगे हैं कि “अगर इतने करोड़ लोग किसी बात का समर्थन कर रहे हैं, तो वह ग़लत कैसे हो सकती है?”
जबकि इतिहास बार-बार बताता है कि भीड़ का बहुमत अक्सर सत्ता के साथ होता है, सच के साथ नहीं। सच की शुरुआत हमेशा कुछ सवाल करने वालों से होती है, न कि तालियाँ बजाने वालों से।
इस पूरी प्रक्रिया में भावनाओं की भूमिका बेहद अहम है। जब डर, असुरक्षा, धार्मिक पहचान और आक्रामक राष्ट्रवाद को लगातार उभारा जाता है, तो तर्क और तथ्य हाशिए पर चले जाते हैं। जब सत्ता में बैठे लोग जटिल आर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर गहराई से बात करने के बजाय प्रतीकों, जुमलों, नारों और धार्मिक-अंधराष्ट्रवादी भावनाओं का सहारा लेते हैं, तो राजनीति विचार से फिसलकर आस्था में बदल जाती है। और आस्था की प्रकृति यही होती है—वह सवालों को खतरा मानती है।
डनिंग–क्रूगर प्रभाव का एक अहम पहलू यह भी है कि जैसे-जैसे किसी व्यक्ति की वास्तविक समझ बढ़ती है, वैसे-वैसे उसे यह एहसास होने लगता है कि दुनिया उतनी सरल नहीं है जितनी टीवी स्टूडियो या नेताओं के भाषणों में दिखाई जाती है।
अर्थशास्त्र को समझने वाला जानता है कि बेरोज़गारी केवल जनसंख्या का परिणाम नहीं, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था की एक संरचनात्मक ज़रूरत है—एक स्थायी बेरोज़गार आबादी, ताकि मज़दूरी हमेशा दबाव में रहे।
इतिहास पढ़ने वाला समझता है कि समाज कभी एक रंग, एक धर्म या एक विचार से नहीं बना, और शासक वर्ग ने हर दौर में धर्म और पहचान का इस्तेमाल अपनी सत्ता बचाने के औज़ार के रूप में किया है।
लोकतंत्र को समझने वाला जानता है कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ चुनाव जीतना नहीं, बल्कि असहमति को सुरक्षित और सम्मानित रखना भी है।
इसीलिए समझ बढ़ने के साथ यह एहसास बढ़ने लगता है कि सवाल पूछने वाले लोग देशद्रोही नहीं होते—वे समाज की प्रगति का इंजन होते हैं। लेकिन डनिंग–क्रूगर प्रभाव से ग्रस्त समाज में सवाल पूछना ही सबसे बड़ा अपराध बना दिया जाता है।
इसका नतीजा यह होता है कि सोचने-समझने की जगह अंधभक्ति की संस्कृति विकसित हो जाती है। सोशल मीडिया, टीवी डिबेट और व्हाट्सएप संदेश झूठे या अर्ध-सत्य पोस्टों को पूरे सच की तरह परोसते हैं, और लोग उन्हें बिना जाँचे, बिना सोचे, पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ा देते हैं। धीरे-धीरे यह भ्रम पैदा हो जाता है कि “हमें सब कुछ पता है”, जबकि हक़ीक़त यह होती है कि ऐसे लोग कुछ ताक़तवर समूहों के एजेंडे को ही जाने-अनजाने में आगे बढ़ा रहे होते हैं—और उनकी कठपुतली बन चुके होते हैं।
समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा यह नहीं है कि लोग किसी एक पार्टी या नेता का समर्थन कर रहे हैं। असली ख़तरा यह है कि लोग सोचना छोड़ दें, सवाल करना छोड़ दें और अपना विवेक गिरवी रख दें।
डनिंग–क्रूगर प्रभाव हमें यही चेतावनी देता है कि जब अज्ञान आत्ममुग्धता बन जाए, झूठा गर्व पैदा करे, और सवाल देशद्रोह समझे जाने लगें—तब समाज तेज़ी से ग़लत दिशा में बढ़ने लगता है।
आज भारतीय समाज को सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस ईमानदार स्वीकारोक्ति की है कि हम भेड़चाल में फँस चुके हैं, झूठे “आत्म-गौरव” में डूबे हुए हैं, और सवाल पूछना हमें असहज करने लगा है।
जिस दिन समाज यह समझ लेगा कि आत्ममुग्धता से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण सवाल करना, विवेक का इस्तेमाल करना है, उसी दिन से एक अधिक जागरूक, अधिक समझदार और सचमुच लोकतांत्रिक मूल्यों वाले समाज के निर्माण की ओर बढ़ने की वास्तविक शुरुआत होगी।
