कहानी
तीस हज़ार की पोशाक
– हरभगवान चावला
शादी का निमंत्रण-पत्र तो आया ही था, शादी से दो दिन पहले रमेश का फोन भी आ गया। उसने कहा था- चाचा, आपके पोते यानी मेरे बेटे तुषार की शादी है, पूरे परिवार को आना है। रिश्तेदारी के नाम पर आप ही तो हैं। दयालु राम और उसका परिवार, अगर अनिवार्य न हो तो ऐसे किसी भी समारोह में नहीं जाता जहाँ पैसा ख़र्च होता है। अक्सर यह परिवार गाँव में किसी शादी-ब्याह में शामिल नहीं होता, किसी नवजात के नामकरण संस्कार में शामिल नहीं होता। हाँ, मंदिर या गौशाला में लंगर-भंडारा हो तो पूरा परिवार पहुँचता है। कोई मेडिकल कैम्प लग जाये तो मुफ़्त की दवाइयों के लिए इस परिवार के लोग सबसे पहले पहुँचते हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ भी सबसे पहले यही परिवार उठाता है। दयालु राम और उसके बेटे का कोई मित्र गाँव में नहीं है। ऐसा नहीं है कि उनके मित्र हैं ही नहीं। हैं, आसपास के गाँवों में इनके घनिष्ठ मित्र भी हैं और धर्म-भाई भी। इन मित्रों और धर्म-भाइयों में कोई राज-मिस्त्री है, कोई लकड़ी का मिस्त्री, कोई बिजली का काम करने वाला तो कोई प्लंबर। इनकी मित्र-सूची में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो किसी काम न आ सके। दयालु राम का विचार इस शादी में जाने का भी नहीं था। न जाने का एक मज़बूत तर्क भी उसके पास था। कब से दोनों परिवारों के बीच कोई संवाद नहीं है। आख़िरी बार कोई आठ-नौ साल पहले रमेश उसकी बेटी की शादी में आया था, उसके बाद से न आना, न जाना, न चिट्ठी, न पत्री, न फोन। अब क्या टूटे रिश्ते को जोड़ना? सिर्फ़ कार्ड आया होता तो वह पक्का टाल जाता, लेकिन कार्ड के अलावा रमेश का फोन भी आ गया। फोन पर बार-बार आने का आग्रह किया था उसने! और फिर अब वह बड़ा आदमी हो गया है, बड़े-बड़े अफ़सरों, नेताओं से उसकी पहचान होगी। पता नहीं, कब काम आ जाए। यह काम आने वाली बात रिश्ते से अधिक महत्वपूर्ण थी। रमेश दयालु राम के दिवंगत बड़े भाई का बेटा है। उसकी आर्थिक स्थिति दयालु राम जैसी ही थी यानी न बहुत ग़रीब, न अमीर। कोई पंद्रह साल पहले वह शहर जा बसा था और शहर जाते ही उसकी क़िस्मत खुल गई थी। उसने वहाँ जाकर स्पेयर पार्ट्स का काम शुरू किया था और अब उसके स्पेयर पार्ट्स के दो कारख़ाने हैं। करोड़ों में खेलता है। वह कभी उसके शहर वाले घर में नहीं गया। बिना बुलाए कौन किसी के घर जाता है? आज उसने ख़ुद बुलाया है, जाना तो पड़ेगा। परिवार को ले जाना तो संभव नहीं है। एक आदमी के आने जाने का किराया ही चार सौ रुपये है। ख़ैर, उसके जाने की तैयारी शुरू हो गई। कपड़े के एक बैग में धोती-कुर्ते का जोड़ा रखा गया, एक कच्छा, एक बनियान, दंत मंजन की शीशी, दो बीड़ियों के बंडल और एक माचिस। जूती दयालु राम ने कुछ दिन पहले ही ख़रीदी थी। अब शगुन की राशि पर विचार-विमर्श आरंभ हुआ। अब से पहले किसी भी शादी पर उनकी तरफ़ से ढाई सौ से ज़्यादा का शगुन नहीं दिया गया था। गाँव में अगर किसी शादी में जाना पड़ ही गया तो सौ-पचास से काम चल जाता था, पर यहाँ मामला दूसरा था। बेटी की शादी पर रमेश ग्यारह सौ दे गया था। “उननै उस जमाने मैं ग्यारह सौ दिए थे, ईब ग्यारह सौ तै कम क्यूकर दिया जागा?” बेटे ने कहा।
“वो तो छोरी का ब्याह था मेरे यार, बेटे कै ब्याह मैं पाँच सौ घणे सैं।” दयालु राम को ग्यारह सौ बहुत ज़्यादा लग रहे थे। दयालु राम इतना कंजूस था कि बाल कटवाने भी नाई के पास नहीं जाता था, ख़ुद ही ब्लेड से बाल खुरच लेता था। उसके लिए कटिंग का मतलब बस इतना ही था। हुक़्क़े की चिलम पूरी तरह टूट चुकी थी और वह आटे का लेप लगाकर काम चला रहा था। ग्यारह सौ की बात सोचकर ही उसकी जान निकली जा रही थी।
“उन बाताँ नै नौ साल हो लिए जब भाई ग्यारह सौ दे गया था और फेर ईब तो वो भोत बड्डा आदमी हो ग्या। पाँच सौ तो भोत कम सैं।” बेटे के इस उत्तर से बहू और पोतियाँ भी सहमत हुईं। आख़िर ग्यारह सौ रुपये शगुन की राशि तय हो गई। तभी एक पोती ने कहा, “दो रुपये दो, मैं दुकान से शगुन का लिफ़ाफ़ा ले आऊँ।”
“क्याँका लिफ़ाफ़ा बावळी, ओड़ै लिखन आले बैठे होंगे, लिखवा द्यूँगा। दो हजार का तो कुंडा होणा ही है, दो रपिये लिफ़ाफ़े के ओर लवावैगी। दयालु राम बोला।
“क्या दादा, आजकल कोई रिवाज़ है ऐसे शगुन देने का? सब लिफ़ाफ़े में देते हैं।”
“अच्छा भई ले आ फेर। जड़ै इतणे पीसे लागैंगे, दो रपिये और सही।”
पोती लिफ़ाफ़ा ले आई। उसमें ग्यारह सौ रुपये रखे गए और पोती ने उस लिफ़ाफ़े पर अंग्रेज़ी में लिख दिया – फ्रॉम दयालु राम, सीसर। वह लिफ़ाफ़ा तथा निमंत्रण-पत्र भी बैग में रख दिए गए ताकि विवाह-स्थल ढूँढ़ने में कठिनाई न हो। पोती ने कहा, “लिफ़ाफ़ा चाचा के हाथ में ही देना।”
“हाँ उसके हाथ मैं ही द्यूँगा, ओर के न्यूँ ए कितै गेर द्यूँगा?।”
अगले दिन सुबह चल कर देर शाम को दयालु राम गुरुग्राम पहुँच गया। एक ई-रिक्शा वाले को उसने शादी का कार्ड दिखाकर विवाह-स्थल पर चलने के लिए कहा। रिक्शा वाले ने पढ़ा – होटल रेडिसन। उसने उस बूढ़े को ग़ौर से देखा और कहा, “बैठो।”
“कै पीसे लेगा?” दयालु राम ने पूछा।
“चालीस रुपये।” जवाब आया।
“चाळीस रपिये? के हवाई जहाज सै यो? इतणे पीसे होया करैं मेरे यार, लूट मचा राखी है।”
“इससे कम में नहीं होगा।”
दयालु राम उस पर नहीं बैठा। एक और रिक्शा वाले से पूछा। उसने भी चालीस रुपये माँगे। उसके बाद उसने कई रिक्शा वालों से पूछा, कोई भी इससे कम में राज़ी नहीं हुआ। आख़िर वह चालीस रुपये देकर विवाह-स्थल पर पहुँच गया। उस आलीशान इमारत को देखकर उसकी आँखें फटी रह गईं। ‘साची मैं ई बड्डा आदमी हो गया भई रमेश’- उसने सोचा और होटल के भीतर प्रवेश किया। इतने सुंदर कटे-छँटे पेड़, पेड़ों के पत्तों के बीच जगमगाते लट्टू, कतर कर एकसार की गई घास के बड़े-बड़े मैदान, उन्हीं मैदानों पर बिछी हुई गोल मेज़ें, मेज़ों के आसपास बिछी कुर्सियाँ, मेज़ों पर रखी तरह-तरह के खाने-पीने की चीज़ों की प्लेटें, शानदार कपड़े पहने दारू पीते और कुछ खाते कुर्सियों पर बैठे लोग, प्लेटों और दारू के ग्लासों से भरी ट्रे थामे इधर-उधर घूमते वर्दी वाले वेटर – वहाँ उसका कोई भी परिचित चेहरा नहीं था। अपने बैग को उसने कंधे से उतारकर काँख में दबा लिया। चकित और घबराए से खड़े दयालु राम की आँखें रमेश को ढूँढ़ रही थीं। वह थोड़ा आगे बढ़ा कि अचानक उसे गेट के नज़दीक लोगों से घिरा रमेश दिखाई पड़ा, रमेश की पत्नी भी उसके साथ खड़ी थी। लोगों की एक क़तार लगी थी। लोग बारी-बारी से रमेश और उसकी पत्नी के पास जाते, उनके साथ फोटो खिंचवाते और फिर मैदान में लगी मेज़ों की ओर बढ़ जाते। वह भी लोगों की क़तार में जा खड़ा हुआ। संयोग से जल्दी ही रमेश की नज़र उस पर पड़ गई। वह अपनी जगह से तेज़-तेज़ चलकर दयालु राम की तरफ़ लपका। “अरे चाचा जी, हम आपकी ही बाट देखाँ थे।” यह कहते हुए उसने दयालु राम के चरण स्पर्श किए और फिर अपनी बाँहों में समेटे-समेटे ही उधर चल दिया, जिधर से आया था। रास्ते में पूछा, “के बात ऐकले ही आए हो, मनै तो सारे परिवार की कही थी।”
“तेरी चाची कै बुखार चढ़ री थी। सतीश की बहू नै ई वा सँभालणी थी। सतीश का घर मैं रहणा तो जरूरी था, कोय मर्द तो घर मैं चहिए।” दयालु राम ने बहाना बनाया।
“किसै पोती नै तो ले आते।”
“उनके पेपर सर पै आ रे हैं, फेर कदे सही बेटा।” अब तक वे गेट के पास पहुँच गए थे। रमेश की पत्नी ने भी उनके पाँव छुए और वही उलाहना दिया, “अकेले आए हो चाचा जी?”
“वो बस बेटी मजबूरी थी।” उसने कहा। इतने में ही रमेश ने फोटोग्राफ़र को पुकारा, “सी, वन फोटोग्राफ़?” सभी कैमरों के मुँह उधर मुड़े। दयालु राम बीच में था। दोनों तरफ़ रमेश और उसकी पत्नी उसके पैरों पर झुके हुए थे। उसने अपना बैग नीचे रखा और दोनों के सिरों पर आशीर्वाद की मुद्रा में दोनों हाथ रख दिए। अनायास उसकी आँखें भर आईं। फोटो हो जाने के बाद रमेश ने वहाँ खड़े लोगों से कहा, “एक्सक्यूज़ मी, ये मेरे चाचा जी हैं, मेरे पिता की जगह हैं। मैं बस दो मिनट में आपके बीच हाज़िर होता हूँ।” तभी दयालु राम को याद आया कि उसने शगुन का लिफ़ाफ़ा तो अभी दिया ही नहीं है। उसने तुरंत थैले में से लिफ़ाफ़ा निकालकर रमेश की तरफ़ बढ़ा दिया, “यो शगुन सै बेटा।”
“नहीं-नहीं चाचा जी, इसकी कोई जरूरत ना है।” रमेश बोला।
“मनै बेरा है, तूँ बड्डा आदमी है, पर म्हारा भी तो किम्मै फर्ज बणै है।”
“आप आगे, इतणा भोत। रही शगुन की बात, मनै किसै तै भी कोन्या लिया। ना विश्वास तै पूछ ल्यो। छोरे का ब्याह सै, छोरी का थोड़ी है। छोरे के ब्याह मैं क्याँका शगुन? आप राखो यो लिफ़ाफ़ा।” उसने वह लिफ़ाफ़ा दयालु राम से लेकर बैग में वापस डाल दिया। ये पैसे तो बचे- उसने सोचा। बैग ख़ुद उठाकर रमेश ने कहा, “आओ चाचा जी, आपनै आपका कमरा दिखा द्यूँ।” पल-भर में वे दोनों रिसेप्शन पर थे। वहाँ मौजूद एक युवक से रमेश ने पूछा, “देखिए ज़रा, दयालु राम जी के लिए कौन सा कमरा बुक है? इनको वहाँ पहुँचाइए और खाने-पीने का सब सामान कमरे में पहुँचा दीजिए। इनको जिस भी चीज़ की ज़रूरत हो, तुरंत प्रोवाइड कीजिए।”
“जी सर!” जवाब आया। रमेश दयालु राम से संबोधित हुआ, “अच्छा चाचा जी, मैं मेहमानाँ नै मिल ल्यूँ। आप नाश्ता-पाणी करो, आराम करो। घंटेक मैं दूल्हा-दुल्हन भी आ लेंगे अर खाणा भी शुरू हो जागा। फेर मैं आप नै ले जाऊँगा। ईब मैं जाऊँ?”
“हाँ बेटा तू कर अपणा काम।”
रमेश चला गया और रिसेप्शन पर खड़े युवक ने एक वेटर को दयालु राम को उसके कमरे तक छोड़ आने के लिए कहा। वेटर उसका बैग उठाकर आगे-आगे चला और दयालु राम उसके पीछे-पीछे। वेटर ने एक लिफ़्ट का बटन दबाया। थोड़ी देर में लिफ़्ट नीचे आई, दरवाज़ा खुला। वेटर ने कहा, “चलिए सर!” दयालु राम ने वेटर के साथ अंदर प्रवेश किया। दयालु राम ने कई जगहों पर लिफ़्ट देखी ज़रूर थी, लेकिन लिफ़्ट में कभी चढ़ा नहीं था। वेटर ने चार नंबर का बटन दबाया। थोड़ी देर में वे चौथी मंज़िल पर थे। वेटर ने एक कार्ड छुआया और एक कमरे का दरवाज़ा खुल गया। दयालु राम के लिए यह अजूबा था कि बिना चाबी दरवाज़ा खुल गया था। वह घबरा गया, अगर उसे ऐसा करना पड़ गया तो? उसके लिए कार्ड का प्रयोग असंभव था। उसने कहा, “भाई सुण। मनै यो सिस्टम नहीं समझ मैं आया अर ना मनै लिफ़्ट पै चढ़ना-उतरणा आवै। जे कोई आफ़त आगी तो?” वेटर ज़रा सा मुस्कुराया, “कोई बात नहीं सर, हम हैं न! ये देखिए, यहाँ फोन रखा है। कोई चीज़ मँगवानी हो तो 12 दबा दीजियेगा, कोई और समस्या हो तो 13 दबा दीजियेगा। आपकी सहायता के लिए हमारा आदमी पहुँच जायेगा। नीचे जाना हो तो भी हम आपको लिफ़्ट में ले जायेंगे।”
“फेर ठीक सै।”
“आप आराम कीजिए, मैं आपके लिए खाने-पीने का सामान ले आता हूँ।” वेटर चला गया तो उसने ध्यान से वह कमरा देखा। बड़ा सा पलंग, सोफ़ा, मेज़, कुर्सी, टीवी, अलमारी, बड़ा सा बाथरूम। कमाल है भई! उसके मुँह से निकला, “वाह भई रमेश, तनै तो स्वर्ग सा दिखा दिया बेटा! यो सब तो सपनै मैं भी ना देख्या था।”
थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खटखटाया गया। “कौण सै भई, आजा।” उसने कहा। वेटर अंदर आया और ट्रे का सामान मेज़ पर रखना शुरू किया। शराब की एक खूबसूरत बोतल, काँच का ग्लास, सोडा, पानी, बर्फ़ सलाद और कितनी तरह की नमकीन। “और कुछ चाहिए तो बारह नंबर पर कॉल कर देना सर!” वेटर ने कहा।
“ठीक सै।” दयालु राम ने कहा। वेटर ने बोतल खोली, तभी दयालु राम ने पूछा, “या बोतल कितणे रपियाँ की होगी?”
“पाँच हज़ार की तो होगी ही सर!”
दयालु राम के मुँह से निकला, “ओ तेरी, इतणी महँगी!” उसने कई बार शराब पी थी, पर वह शराबी बिल्कुल नहीं था। कंजूस आदमी शराबी हो ही नहीं सकता। उसने कभी अपने पैसे से ख़रीदकर शराब नहीं पी थी। शराब उसे या तो पंचायत चुनाव में पीने का मौक़ा मिलता था या किसी शादी-ब्याह में। सस्ती अंग्रेज़ी शराब तो उसने शायद एकाध बार ही पी होगी। वेटर ने बोतल से ग्लास में थोड़ी शराब डाली और पूछा, “सर, सोडा लेंगे या पानी?” उसने आज तक कभी शराब में सोडा नहीं मिलाया था। सोचा, आज सोडे का स्वाद भी चखकर देख ले। “सोडा।” उसने कहा। वेटर ने ग्लास में सोडा डाला और चिमटी से आइसबाॅक्स से दो टुकड़े बर्फ़ के ग्लास में डाल दिए। अब ग्लास में बुलबुले उठ रहे थे।
“मैं जाऊँ सर?”
“हाँ जा भाई, जरूरत पड़ी तै तेरहा नंबर…।”
“जी सर!” वेटर चला गया। दयालु राम ने ग्लास उठाकर एक घूँट भरा। “वाह, या हो सै दारू, हम तो ईब ताईं मूत ई पींदे रहे।” उसने अपने-आप से कहा। शराब के साथ जो स्नैक्स परोसे गए थे, वे भी बहुत स्वादिष्ट थे। उसने दो पैग और लिए और बची शराब की बोतल अपने बैग में रख दी।
लगभग एक घंटे बाद रमेश उसे लेने आ गया। जब वे नीचे पहुँचे, दूल्हा-दुल्हन आ चुके थे और स्टेज पर विराजमान थे। रमेश उसे स्टेज पर ले गया। रमेश ने तुषार को बताया कि ये मेरे चाचा और तुम्हारे दादा हैं तो तुषार ने उठकर उनके चरण स्पर्श किए। “जीता रह बेटा, जोड़ी हमेशा खुश और सलामत रहै।” दयालु राम की दिल की गहराइयों से यह दुआ निकली।
“अब आप खाणा खाओ चाचा जी। जब सोणा हो तो ओड़ै रिसेप्शन पै जा कै कमरे मैं जाण की कह दियो, वै छोड़ आवैंगे। तड़के नहा धो कै अर नाश्ता करकै तैयार रहियो। नाश्ते मैं जो खाणा हो अर जितने बजे खाणा हो, इनै बता दियो। मैं तड़कै साढ़े दस-ग्यारह बजे लेण आऊँगा।”
“तड़कै तो मैं जल्दी चला जाँगा बेटा, तू अपणे काम निपटा।”
“न्यूँ क्यूकर चले जाओगे। तड़कै तो घर मैं रहणा पड़ेगा। परसों बहू कै हाथ का हलवा खाकै चले जाइयो। इब जाण की मत कह दियो।”
दयालु राम खाने वाले हाॅल में था। सैकड़ों तरह के व्यंजन वहाँ परोसे गए थे, पर उसकी आँखें घी-शक्कर ढूँढ़ रही थीं। वह किसी भी शादी में यही ढूँढ़ता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि शरीर को ताक़त घी से ही मिलती है। कंजूस था, इसलिए शादी के अवसरों पर भरपूर मात्रा में ताक़त के इस स्रोत का उपयोग करता था। एक जगह उसे घी-शक्कर दिखाई दे गए। उसने एक कटोरी ऊपर तक घी से भरी, थोड़ी शक्कर मिलाई और और चम्मच से खाने लगा। खाने से तृप्त हो गया तो कमरे में जाकर सो गया। पलंग का नर्म और मोटा गद्दा उसे मज़ेदार लगा। वह कई बार गद्दे पर उछल-उछलकर आनंदित होता रहा।
अगला दिन! दयालु राम को रमेश अपने घर ले आया। घर क्या, महल था। यहाँ भी उसकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। रमेश तो खेतीबाड़ी का हालचाल पूछकर और उससे इजाज़त लेकर फैक्ट्री में चला गया था। शादी के प्रबंध में लगे रहने के चलते कई दिनों से लगातार वह फैक्ट्री नहीं जा पाया था। फैक्ट्री से वापस आया तो सो गया, थका हुआ जो था। दयालु राम एक कमरे में बैठा टीवी देखता रहा। शाम लगभग छः बजे रमेश उसे एक और कमरे में ले आया। उसकी पत्नी भी उसी कमरे में विराजमान थी। सारा कमरा मिठाई के डब्बों से भरा था। शायद फैक्ट्री के मज़दूरों को भिजवाई जानी होगी – दयालु राम ने सोचा। उसका बैग पहले वाले कमरे में रखा था। उसके मन में खटका था कि कहीं कोई बैग में रखी पाँच हज़ार रुपये वाली बोतल न देख ले। रमेश की पत्नी चाय लेकर आई तो रमेश ने कहा, “लाओ भई, चाचा जी की मिठाई वगैरह सँभलवा दो। सुबह तो ये जल्दी जाने की कह रहे हैं।”
“हाँ भाई, जल्दी निकलूँगा तो बखत तै घराँ पहुँचूँगा।” दयालु राम ने कहा। रमेश की पत्नी ने दो-दो किलो वाले दो डब्बे रमेश को पकड़ाए और रमेश ने अपने चाचा को – यह कहकर कि यह बच्चों के लिए मिठाई है। उसके बाद रमेश की पत्नी ने एक बहुत ख़ूबसूरत सा कैरी बैग रमेश की तरफ़ बढ़ाया। रमेश ने बैग खोला और धोती-कुर्ता निकालकर चाचा के सामने रख दिया, “या पोशाक देखो”
“किसकी सै?”
“आपकी, ओर किसकी?”
“या क्याँ खातर?”
“कमाल करो हो, ब्याह मैं आए हो ज्याँ खातर। पसंद सै अक नहीं?”
दयालु राम ने पोशाक को हाथ लगाकर देखा। इतना मुलायम कपड़ा! बहुत बढ़िया लग रहा है-उसने सोचा। “बढिया है भाई, महँगी होगी।” उसने कहा।
“घणी महंगी कोन्या, तीस हजार की सै।”
“हैं… तीस हज्जार! या एक पोशाक तीस हजार की! तीस हजार मैं तो सारे परिवार के कई साल के कपड़े आ जावैं। इसमें हीरे-मोती जड़ राखे सैं के?” रमेश हँस दिया, “या डिज़ाइनर पोशाक सै, मतलब अपणी किसम की एक। इसी पोशाक दुनिया में एकै है। म्हारे के कई चाचा सैं, म्हारा भी तो एकै है।” रमेश ने अब दो लिफ़ाफ़े चाचा की ओर बढ़ाए।
“यो के सै?” दयालु राम ने पूछा।
“एक लिफ़ाफ़े में सुनीता दीदी के परिवार के कपड़ों के लिए दस हज़ार रुपये हैं, दूसरे में आपके परिवार के कपड़ों के लिए पच्चीस हज़ार हैं। सब अपनी पसंद से पाँच-पाँच हज़ार के कपड़े ले लेंगे।” जवाब रमेश की पत्नी ने दिया। दयालु राम ने हिसाब लगाया – उसकी पत्नी, बेटा, बहू, दो पोतियाँ – कुल पच्चीस हज़ार। ‘यहाँ तो पैसों की गंगा बह रही है, पर पोता तो इस गंगा में डुबकी लगाने से रह ही गया’-उसने सोचा। दरअसल पोता अभी चार साल पहले ही पैदा हुआ है और अपनी छोटी वाली बहन से चौदह साल छोटा है। इन लोगों को उसके पैदा होने की जानकारी नहीं है। कोई संवाद कभी होता ही नहीं था, सो उसकी पैदाइश की सूचना ही नहीं दी गई। उसके मन में हिलोरें उठ रही थीं और वह पोते के बारे में इन्हें बताने का कोई उपाय सोच रहा था, पर प्रत्यक्षतः उसने कहा, “यो तो भोत घणा कर दिया तनै रमेश!” उसने कहा।
“किम्मै घणा ना है। परमात्मा की मेहर हो री है। आपका परिवार भी तो अपणा ही है। ओर, पोती ठीक सैं? ईब तो जुआन हो री होंगी।”
“हाँ, जुआन हो री सैं, ईब तो पोता भी चार साल का हो लिया।”
“हैं… पोता भी हो लिया, बताया तो कोनी।”
“बताणा था ई कोनी चार साल ताईं। घणी मन्नत माँगी थी पोते खातर। पंडत ने कही थी अक चार साल का होण तैं पहले अपणे मुँह तैं ना कहियो के छोरा होया सै। दस दिन पहलाँ तो चार साल का होया ई सै, बताते कद।” उसे एकदम बात सूझ गई।
“लाओ भाई, हमारे भतीजे का भी नेग दो।” रमेश ने पत्नी की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो उसने पाँच हज़ार का एक और लिफ़ाफ़ा उसकी ओर बढ़ा दिया। वह लिफ़ाफ़ा भी रमेश ने अपने चाचा को पकड़ा दिया।
अगले दिन ड्राइवर दयालु राम को एक शानदार गाड़ी में बस अड्डे छोड़ गया। बस में सवार दयालु राम ने बैग को एक पल के लिए भी अपने से दूर नहीं किया। उसका वह कपड़े का साधारण सा बैग क़ीमती तोहफ़ों से भरा हुआ था। शाम को घर पहुँचते ही परिवार ने उसे घेर लिया। सब शादी के बारे में जानने को उत्सुक थे। उसने शुरू से आख़िर तक सारी कथा कह सुनाई। सबसे ज़्यादा ख़ुश पोतियाँ थीं कि उन्हें कपड़ों के लिए पाँच-पाँच हज़ार रुपये मिले हैं। बड़ी पोती ने कहा, “लाओ दादा हमारे पैसे, हम अपनी मनपसंद ड्रेस ख़रीदेंगे।”
“पागल हो री हो के? ड्रेस-फ्रेस बड्डे लोगाँ के चोंचले सैं। कपड़े हिसाब तैं ही पहरणे चइयें। मनै तो मेरी पोशाक भी चुभण लाग री सै। चार-पाँच सौ मैं बढिया धोती-कुर्ता बण जा सै, मेरे बटे नै तीस हजार की पोशाक चेप दी। ये तीस हजार नकद दे देंदा तै कितणे काम आँदे।” परिवारजनों की यह पंचायत इस निर्णय पर पहुँची कि पैसे को कपड़ों-वपड़ों के लिए उड़ाना गुनाह है। पैसे से पैसा कमाने में ही समझदारी है। सो, दोनों पोतियों के नाम पंद्रह-पंद्रह हज़ार की एफडी करवा दी गई।
कई दिनों तक शादी और रमेश की दरियादिली के क़िस्से घर और गाँव में गूँजते रहे। उसके अंतरंग परिचितों ने तीस हज़ार वाली बेशक़ीमती पोशाक को देखा, पर दयालु राम ने किसी को न उसे हाथ लगाने दिया, न कैरी बैग से निकालने दिया। कई महीने बीत गए, लेकिन किसी ने दयालु राम को वह पोशाक पहने नहीं देखा। लोग पूछते, “वा पोशाक क्यूँ कोनी पहरदा?” उसका जवाब होता, “इसी बेशकीमती पोशाक के लावणी करदे हाणी पहरण की होया करै?”
“ताऊ कदे बस अड्डे पै ताश खेलदी हाणी पहर ले, सारा गाम देख तो लेगा वा तीस हजार की पोशाक।” एक दिन उसके मुँहलगे एक युवक ने कहा।
“आच्छा, पहर ले ताश खेलदी हाणी…! अर तेरे बरगा कोय मलंग उसके ऊपर बीड़ी का गुल्ला गेर कै सत्यानास करदे उसका।” तपाक से उसने जवाब दिया।
“तो ताऊ कदे पहरैगा भी, के स्वर्ग में गेल ले कै जागा?”
“पहरूँगा, दाऊँ पहरूँगा, किसे शादी ब्याह मैं।”
पोशाक को आए सात साल हो चुके हैं। दयालु राम की उम्र तिरासी की हो गई है। दोनों पोतियों की शादी हो चुकी है, लेकिन तीस हज़ार वाली बेशक़ीमती पोशाक अब भी वैसी की वैसी उसी कैरी बैग में रखी हुई है और कैरी बैग एक लोहे के संदूक में बंद हैं। और हाँ, पाँच हज़ार वाली शराब की बोतल भी ट्रंक में महफ़ूज़ रखी है।
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हरभगवान चावला की कहानी ‘तीस हज़ार की पोशाक’ मुख्य पात्र दयाल राम की कंजूस मनोवृति के साथ ही हरियाणा के ग्रामीण जीवन के एक पक्ष का बेबाक एवं विश्वसनीय चित्रण भी करती है। यहां के लोग अपनी बातचीत में कितने हाजिर जवाब और खड़तल होते हैं, यह दयालु राम और उसके भतीजे रमेश के संवाद में बहुत रोचक ढंग से पाठक के सामने आता है।
हरियाणा की ग्रामीण पृष्ठभूमि को समझने के लिए और यहां की बोली की ठसक का आनंद लेने के इच्छुक पाठकों को इस कहानी को जरूर पढ़ना चाहिए। आप हरियाणा के बारे में काफी कुछ जान जाएंगे और काम चलाऊ हरियाणवी बोली भी सीख जाएंगे!
एक शानदार कहानी