गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज़ और मर्सिडीज बार्चा की प्रेम कहानी
पति की किताब के लिए सबकुछ बेच दिया, उसी पुस्तक को मिला नोबेल पुरस्कार
जब गैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज़ 13 साल के थे, उन्होंने कोलम्बिया के एक स्कूल डांस में मर्सिडीज बार्चा को देखा।
वह सुंदर थी, आत्मविश्वासी थी, पहुँच से बाहर थी।
उन्होंने अपने दोस्तों से कहा — “मैं इसी लड़की से शादी करूँगा।”
लेकिन वह लड़की जानती भी नहीं थी कि वह कौन है।
वह गरीब परिवार का स्कॉलरशिप पर पढ़ने वाला लड़का था।
वह एक दवाइयों की दुकान वाले की बेटी — अच्छे घर की, सलीकेदार, बिल्कुल उसकी पहुँच से बाहर।
इसलिए जब हकीकत उसके सपने के रास्ते में आई, वह दुनिया देखने और खुद को बनाने निकल गया।
18 साल बीत गए।
वह शहर–शहर घूमकर पत्रकारिता के काम करता रहा, कहानियाँ लिखता रहा, हमेशा पैसों की कमी, हमेशा संघर्ष… लेकिन उस लड़की के बारे में सोचता रहा जिससे उसने शादी की बात कही थी।
1958 में वह एक अच्छे पत्रकार के रूप में लौटा।
इस बार लड़की ने हाँ कह दी।
दोनों ने शादी की, दो बेटे हुए, और पैसे तो कम थे पर प्यार और मेहनत भरी जिंदगी शुरू हो गई।
मार्क्वेज़ लिखते रहे। किताबें छपती रहीं। तारीफ मिली, पर पैसे नहीं।
मर्सिडीज हर पैसा संभालकर खर्च करती, घर चलाती, और तब भी अपने पति के हुनर पर भरोसा रखती जब उनकी जेब बिल्कुल खाली होती।
1965 में, एक दिन अकापुल्को जाते हुए, अचानक एक पूरी की पूरी कहानी उनके दिमाग में उतर आई — जैसे किसी ने ऊपर से भेज दी हो।
सात पीढ़ियों का बुन्दिया परिवार, मकॉन्डो नाम का शहर, जादू और हकीकत का मेल, प्यार, युद्ध और अकेलापन — सबकुछ एक साथ।
उन्होंने तुरंत गाड़ी मोड़ी और घर आ गए।
उन्होंने मर्सिडीज से कहा, “मुझे ये किताब लिखनी है। बहुत समय लगेगा, और हमारे पास पैसे खत्म हो जाएंगे।”
मर्सिडीज ने बस कहा — “लिख डालो।”
अगले 18 महीनों तक मार्क्वेज़ खुद को कमरे में बंद करके सिर्फ लिखते रहे।
उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी। कोई कमाई नहीं रही।
सारे पैसे खत्म हो गए।
मर्सिडीज घर बचाने वाली बन गई।
घरमालिकों से बात की, बिल भरने वालों को मनाया, चीज़ें बेचीं — यहाँ तक कि कार भी बेच दी।
उन्होंने अपने पति को हर चिंता से बचाया ताकि वो सिर्फ कहानी में डूबे रहें।
बच्चों को कहा — “पापा काम कर रहे हैं, शोर मत करना।”
दोस्तों को लगा यह पागलपन है।
परिवार वालों ने कहा कि नौकरी करो, बच्चे जूते माँग रहे हैं।
लेकिन मर्सिडीज कभी नहीं डरी। एक बार भी नहीं।
1966 में किताब तैयार हुई — लगभग 500 पन्ने।
वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड।
उन्होंने पन्नों को एक साथ रखा और डाक से अर्जेंटीना भेजने तैयार हुए।
पर डाक का खर्चा बहुत ज्यादा था।
उन्होंने घर में जितने पैसे थे गिन लिए — पर्याप्त नहीं।
मर्सिडीज ने तुरंत बचे हुए सामान इकट्ठा किए —
गहने, रेडियो, किचन की चीज़ें…
और अपना हेयर ड्रायर — उनकी आखिरी प्यारी चीज़ों में से एक।
उन्होंने सब बेच दिया।
पैसे लेकर दोनों डाकघर पहुँचे।
किताब पैक की, भारी पैकेट पर डाक का पैसा दिया, और अपनी पूरी भविष्य की उम्मीद एक डाककर्मी के हाथ में दे दी।
डाकघर से बाहर निकलते हुए, बिल्कुल कंगाल, एक भी पैसा नहीं बचा था।
मर्सिडीज ने हँसते हुए कहा —
“अब बस यही बचा है कि किताब खराब निकले।”
यह मज़ाक था, पर सच्चाई भी।
उन्होंने सबकुछ दाँव पर लगा दिया था।
1967 में किताब छपी।
और कुछ ही हफ्तों में तहलका मचा दिया।
पहला एडिशन तुरंत खत्म।
फिर दूसरा। तीसरा।
कई भाषाओं में अनुवाद।
सब इसे शाहकार कहने लगे।
आज यह 50 मिलियन से ज्यादा कॉपियाँ, 46 भाषाओं में बिक चुकी है।
दुनिया की महानतम किताबों में गिनी जाती है।
1982 में इसी किताब की वजह से मार्क्वेज़ को नोबेल पुरस्कार मिला।
गरीबी एक दिन में खत्म हो गई।
सुंदर घर लिया, दुनिया घूमी, कभी पैसों की चिंता नहीं की।
लेकिन मार्क्वेज़ कभी नहीं भूले कि यह सब किस वजह से हुआ।
जीवन भर हर इंटरव्यू में उन्होंने कहा —
“इस किताब की असली लेखक मर्सिडीज है।
मैं लिख पाया क्योंकि उसने मुझे लिखने दिया।
वह सबसे मजबूत इंसान है जिसे मैं जानता हूँ।”
उनकी शादी 56 साल चली, उनके निधन (2014) तक।
मर्सिडीज का निधन 2020 में 87 साल की उम्र में हुआ।
उनकी प्रेम कहानी शुरू हुई एक 13 साल के लड़के के वादे से।
फिर 18 साल की दूरी, 18 महीने की गरीबी, और एक दिन डाकघर में उस समय से जब उन्होंने अपना सबकुछ सिर्फ एक पांडुलिपि भेजने में लगा दिया।
दुनिया को One Hundred Years of Solitude इसलिए मिली
क्योंकि एक औरत ने अपना हेयर ड्रायर बेचकर अपने पति के सपने पर भरोसा किया।
प्यार कैसा दिखता है?
कुछ ऐसा —
जब आप कंगाल हों, डरे हुए हों, फिर भी एक पैकेट डाक में देकर कहें:
“लिखो… चाहे कुछ भी हो।” लक्ष्मी प्रताप सिंह के फेसबुक वॉल से साभार
(अंग्रेजी साहित्य से उद्धत)
