शकील प्रेम की कविताः शांति के लिए युद्ध

शांति के लिए युद्ध

शकील प्रेम

 

आप कहते हैं कि

शांति के लिये युद्ध जरूरी है

मैं कहता हूँ

कुंठाओं को 

सही साबित करने के लिए

ऐसे बेहूदा कुतर्कों की

मियाद अब खत्म हो चुकी है

बहुत हो चुका 

अब रहने दीजिए 

मत कीजिये

इंसान के विरुद्ध 

इंसानी नफरत की यह खूनी सियासत

मत खेलिए 

इंसान के खिलाफ

इंसानी ताकत का यह रक्तरंजित खेल

 

आपके अंदर वो हृदय ही नहीं

जिससे आप महसूस कर पाएं की 

युद्ध की 

हर विभीषिका में

बमों के धमाकों से

जलते हुए शहरों में

गिरती हुई इमारतों के नीचे

कितनी ही जिंदगियां

गुम हो जाती हैं

आपके पास

वो आंखें ही नहीं 

जो देख पाए कि

हर युद्ध के दौरान

एडवांस्ड हथियारों से

निकलते हुए शोलों में

झुलसते हुए लोगों के 

कितने ही बच्चे

अनाथ हो जाते हैं

आपका कबीला 

और इस कबीले का झंडा 

सदा दूसरों से ऊंचा रहे

इसके लिए

कमजोर कबीलों पर

कब तक हमले करते रहेंगे आप ?

 

आपका राष्ट्र 

और इस राष्ट्र की सीमाएं

सदा बढ़ती रहें 

इसके लिए

कमजोर राष्ट्रों को

कब तक निगलते रहेंगे आप ?

आपका झंडा ऊंचा रहे

इसके लिए 

क्या दूसरों का झंडा 

जमींदोज होना जरूरी है ?

आपका राष्ट्र 

ताकतवर कहलाये

इसके लिए

क्या दूसरे राष्ट्रों का

खत्म होना जरूरी है ?

याद रखिये

की युद्धों में

राष्ट्र कभी तबाह नहीं होते

बल्कि 

राष्ट्र के नाम पर लड़े गए 

हर युद्ध में

इंसानियत ही तबाह होती हैं

मत भूलिए

की युद्धों में

झंडे कभी लहूलुहान नहीं होते

बल्कि

झंडों के नाम पर लड़ी गई

हर लड़ाई में

इंसानियत ही लहूलुहान होती है

 

यह युद्ध

यह हिंसा

यह बम

यह धमाके

यह आतंक 

यह डर 

यह दहशत

क्या यह सब

शांति के लिए है ??

यह तोप

यह तलवार

गोली बारूद 

और 

इन बारूदों के ढेर पर

बैठी दुनिया

क्या यह सब

शांति के लिए ही है ?

कौन सी शांति चाहते हैं आप ?

जिस घर का सब कुछ तबाह हो चुका हो

उस घर के बचे हुए आखिरी बच्चे के लिए

और कितनी शांति की जरूरत है ?

जिस मां के 

सारे बच्चे 

धुंए के गुबार में

खो चुके हों

वहां और कितनी शांति की जरूरत है ?

 

नहीं 

ऐसी शांति नहीं चाहिए 

मैं समझता हूँ कि

युद्ध को जायज ठहराने का

यह सबसे नाजायज बहाना है

जिसे सदियों से

भोले लोगों के दिमागों में

राष्ट्रवाद की आड़ में ही

ठूसा गया है

आप जिसे खेल समझते हैं 

इस खूनी खेल को 

जनता ही झेलती है

युद्ध बीत जाते हैं

लेकिन युद्ध की 

विभीषिकाएँ 

सदियों तक 

पीछा नहीं छोड़ती

हर युद्ध के बाद

कई नजरें

अपने बच्चों की तलाश में 

भटकती हैं

कई बच्चे अपने 

घरवालों की याद में 

तड़पते हैं

कई औरतें 

मिट चुके सुहाग को 

भुला नहीं पाती

और कई मर्द

अपने बीबी और बच्चों से

फिर कभी नहीं मिल पाते

शांति के नाम पर

तो कभी

प्रतिष्ठा की आड़ में

यह जमीं 

खून से लाल हो चुकी है

सीमाओं के नाम पर

तो कभी

मजहबों की आड़ में

इतिहास के पन्ने भी

लहू से रंगे हुए हैं 

लेकिन न तो

कभी उस तथाकथित धर्म की 

स्थापना हो पाई 

जिसके लिए

अधर्मियों का 

सामूहिक नरसंहार जरूरी था 

और न कभी वो शांति ही आ पाई

जिसके लिए

एटम बम तक बनाने पड़े

आप इसे सही साबित करने का 

कोई दूसरा बहाना गढ़ सकते हैं

लेकिन 

सच कहूं 

मुझे किसी भी रूप में

हिंसा बर्दाश्त नहीं

युद्ध की बस दो ही वजहें होती हैं

ताकत का दम्भ

और बुद्धिजीवियों का मौन 

जब ताकत के आगे

बुद्धि हार जाती है 

तब युद्ध की पैदाइश होती है

जब कलम बिक जाती है

जुबान सिल जाते है

मुहब्बत पर नफरत की विजय होती है

और विचारों पर तलवार हावी हो जाता है

तब युद्ध की 

वजह जन्म लेती है

आप इसे जायज बताने का 

फिर कोई नया बहाना ढूंढ लेंगे

लेकिन

याद रखिये

जिस दिन 

युद्ध की आग में

आपका घर जल रहा होगा

उस दिन आपके पास

युद्ध को जायज ठहराने का

कोई बहाना न होगा.

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