नए बिहार की तलाश: संदर्भ विधानसभा चुनाव

नए बिहार की तलाश: संदर्भ विधानसभा चुनाव

राम आह्लाद चौधरी

बिहार आज एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है,जहाँ अतीत की गौरवशाली विरासत और वर्तमान की जटिल चुनौतियाँ आमने-सामने हैं। राजनीति, समाज, शिक्षा, बेरोजगारी, प्रवासन और संस्कृति — सभी क्षेत्रों में बिहार परिवर्तन की पुकार कर रहा है। यह आलोचनात्मक टिप्पणी इसी प्रश्न को उठाती है कि क्या बिहार अपने भीतर से एक नया सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विमर्श गढ़ सकता है? और यदि हाँ, तो उसकी दिशा क्या होगी — पुनरुत्थान या पुनरावृत्ति?

परिवर्तन की प्रतीक्षा में एक प्राचीन भूमि

नालंदा, विक्रमशिला और वैशाली की धरती बिहार एक समय भारतीय सभ्यता का बौद्धिक केंद्र थी। पर आज वही भूमि बेरोजगारी, पलायन और राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक बन चुकी है। 2025 के विधानसभा चुनावों ने इस सवाल को फिर से जीवंत कर दिया है कि क्या अब भी एक “नया बिहार” संभव है — जो परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बना सके।

जनादेश और जनभावना के बीच की खाई

स्वतंत्रता के बाद बिहार की राजनीति समाजवादी और गांधीवादी विचारों पर टिकी थी, परंतु 1990 के दशक के बाद जातीय समीकरणों ने जन राजनीति की दिशा मोड़ दी। “सामाजिक न्याय” की राजनीति ने प्रतिनिधित्व तो दिया, परंतु विकास की प्रक्रिया पिछड़ गई। जब युवा और मध्यम वर्ग दोनों आर्थिक न्याय और रोजगार को प्राथमिकता दे रहे हैं, तब भी राजनीति घोषणाओं और गठबंधनों के जाल में उलझी है। बिहार की राजनीति को अब “सत्ता की रणनीति” से आगे बढ़कर “सृजन की राजनीति” बनना होगा — जहाँ विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसरों की समानता केंद्र में हों।

युवा और बेरोजगारी : सबसे बड़ा प्रश्न

बिहार की जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा युवाओं का है, परंतु वही युवा राज्य के बाहर मजदूरी करने को विवश हैं।यह केवल रोजगार का संकट नहीं, बल्कि “सपनों का पलायन” है।चुनावी वादों की चमक में यह प्रश्न दब जाता है कि क्यों अब तक बिहार अपने युवाओं के लिए अवसर नहीं बना पाया।नए बिहार की रूपरेखा में युवाओं को केवल मतदाता नहीं, बल्कि निर्माता और नवप्रवर्तक की भूमिका दी जानी चाहिए।शिक्षा को स्थानीय उद्योग, कृषि, तकनीक और उद्यमिता से जोड़ना इस दिशा में आवश्यक कदम है।

असमानता और परिवर्तन की चुनौतियाँ

बिहार का समाज जातीय और आर्थिक असमानता से गहराई तक प्रभावित रहा है।सामाजिक न्याय के नारे ने राजनीतिक सशक्तिकरण तो दिया, परंतु सामाजिक सौहार्द और समान अवसरों का सपना अधूरा है।

ग्राम्य जीवन, जो कभी आत्मनिर्भरता का प्रतीक था, अब बेरोजगारी और पलायन का केंद्र बन गया है।

नए बिहार का निर्माण तभी संभव है जब समाज जाति, धर्म और लिंग के भेदों से ऊपर उठकर समावेशी विकास का मॉडल अपनाए।ग्राम-आधारित उद्योग, कृषि प्रसंस्करण और महिला स्व-सहायता समूहों को नई तकनीक से जोड़ना इस दिशा में निर्णायक कदम होंगे।

निर्माण की बुनियाद

बिहार की बौद्धिक परंपरा विश्वप्रसिद्ध रही है, पर आज राज्य की शिक्षा व्यवस्था संकटग्रस्त है।

स्कूलों की अव्यवस्था, उच्च शिक्षा में पलायन और शोध के अभाव ने स्थिति गंभीर बना दी है।

शिक्षा को केवल डिग्री का माध्यम न बनाकर “ज्ञान और कौशल का एकीकृत तंत्र” बनाना होगा।

यदि शिक्षा में गुणवत्ता, पारदर्शिता और स्थानीय उपयोगिता सुनिश्चित की जाए तो बिहार फिर से ज्ञान की भूमि के रूप में स्थापित हो सकता है।

 आत्मनिर्भरता की दिशा

कृषि बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, पर सिंचाई, विपणन और मूल्य निर्धारण की समस्याएँ लगातार बनी हुई हैं।औद्योगीकरण की कमी ने राज्य को पिछड़ेपन के दायरे में बाँधे रखा है।“नए बिहार” के लिए विकास की दिशा स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भरता होनी चाहिए —कृषि आधारित उद्योग,कुटीर और हस्तशिल्प उत्पादन,

पर्यटन और सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था,और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश।सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज — तीनों की साझेदारी से यह परिवर्तन संभव है।

 बिहार की मौन त्रासदी

प्रवासन बिहार की सबसे पुरानी सामाजिक-आर्थिक समस्या है।राज्य के लाखों लोग रोज़गार के लिए अन्य राज्यों में जाते हैं, जिससे गाँव खाली होते जा रहे हैं।

यह प्रवृत्ति न केवल आर्थिक असुरक्षा को बढ़ाती है बल्कि सामाजिक विखंडन भी पैदा करती है।जब तक स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन नहीं होगा, बिहार का मानव-संसाधन अन्य प्रदेशों के विकास में ही लगा रहेगा।

 विकास का संवेदनात्मक आधार

पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण ने राजनीतिक भागीदारी दी है, परंतु अभी भी शिक्षा, सुरक्षा और रोजगार के क्षेत्र में उनकी स्थिति सीमित है।महिलाओं को “लाभार्थी” नहीं, बल्कि “निर्णयकर्ता” के रूप में देखने की आवश्यकता है।स्व- समूहों और स्थानीय उद्योगों में उनकी भूमिका को सशक्त बनाना नया सामाजिक ढाँचा तैयार कर सकता है।

बिहार की आत्मा

बिहार की सांस्कृतिक परंपरा इसकी असली ताकत है। दिनकर,भिखारी ठाकुर, फणीश्वरनाथ रेणु, बाबा नागार्जुन और कैफी आज़मी जैसे रचनाकारों ने लोकजीवन को आवाज़ दी।आज जब सांस्कृतिक जीवन सीमित दायरे में सिमटता जा रहा है, तब ज़रूरत है कि लोककला, लोकभाषा और जनसंस्कृति को आधुनिक मंच मिले।संस्कृति ही वह शक्ति है जो समाज को आत्मविश्वास और दिशा देती है।

भविष्य की दिशा

बिहार का भविष्य किसी एक दल या नेता से नहीं बनेगा, बल्कि जनता की सामूहिक चेतना से निर्मित होगा।राजनीति को जवाबदेह, समाज को सहभागी और शिक्षा को व्यावहारिक बनाना — यही “नए बिहार” का मार्ग है। यह यात्रा कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं। नया बिहार तभी बनेगा जब हर नागरिक यह महसूस करे कि परिवर्तन की शुरुआत उसके भीतर से होती है —जब युवा भागने के बजाय सृजन का संकल्प लेंगे,जब नेता वादों से अधिक जवाबदेही निभाएँगे,और जब समाज समान अवसरों को अपनी पहचान बनाएगा।

कुल मिलाकर बिहार केवल एक भौगोलिक प्रदेश नहीं, बल्कि एक विचार है, जो संघर्ष,ज्ञान और जागृति का संगम है।2025 के चुनाव और आगामी दशक इस विचार की पुनर्स्थापना का अवसर हैं।यह बिहार फिर से वही बन सकता है जो वह कभी था —जहाँ से पूरे भारत को नैतिकता, सामाजिक चेतना और जनसंघर्ष की दिशा मिलती थी। “नए बिहार की तलाश” अंततः अपने भीतर छिपे उस आत्मविश्वास को पहचानने की सही यात्रा है

लेखक समाज, राजनीति और संस्कृति के आलोचनात्मक अध्येता हैं

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