ग़ज़ल
मैं ख़ुद ही अपने ग़म का क़ाफ़िला हूँ
एस.पी. सिंह
जनाज़े पे मेरे न ज़्यादा भीड़ करना हूँ,
मैं ख़ुद ही अपने ग़म का क़ाफ़िला हूँ।
न कोई रोशनी दे, न दिया साथ लाए,
मैं रातों की तह में बुझा सिलसिला हूँ।
तवील राह थी, मगर ठहर न सका कहीं,
मैं ख़ुद अपनी मंज़िल का ही रास्ता हूँ।
मोहब्बतों के सब नक़्श धुल गए हैं अब,
मैं यादों की ख़ुश्बू में खोया दिया हूँ।
कभी थी सांस में रवानी, अब सुकून है,
मैं ख़ामोशी का बजता तराना हूँ।
जो ढूंढेगा मुझे फ़लक की तन्हाई में,
उसे बता देना, मैं ज़मीन का हाला हूँ।
कफ़न भी मेरा सोचता है आज तक यही,
कि ज़िंदा हूँ या कोई मसअला हूँ।
बेबाक ये सोचता है आख़िरी लम्हों में,
मैं रूह का सफ़र हूँ या फ़लसफ़ा हूँ।