तत्पर बुद्धि के धनी – जे. पी. पाण्डेय

हरियाणा के कर्मचारी  यूनियन के नेताओं से जुड़ी सीरीज जूझते जुझारू लोग का प्रारूप में इस बार थोड़ा बदलाव है। यह इंटरव्यू है और कर्मचारी नेता ने खुद ही अपने जीवन, संघर्ष और बदलावों को सवालों के जवाब के तौर बताया है।

हरियाणा : जूझते जुझारू लोग- 13

तत्पर बुद्धि के धनी – जे. पी. पाण्डेय

सत्यपाल सिवाच

 

सर्वकर्मचारी संघ की एक्शन कमेटी की एक प्रबल आवाज़ जे.पी. पाण्डेय को सन् 1986-87 में हर कोई पहचानता था। उनकी बुलंद और प्रखर वाणी श्रोताओं के आकर्षण का केंद्र रहती थी। वे उत्तरप्रदेश के सिद्धार्थ नगर के छिटोंनी गांव में 01.07.1955 को श्रीमती श्यामा और पार्श्वनाथ के यहाँ जन्मे। कुल पाँच भाई और एक बहन हैं। आठवीं कक्षा तक ही औपचारिक शिक्षा हासिल कर पाए, लेकिन मानसिक विकास के हिसाब से वे कुशाग्र बुद्धि और तत्पर प्रतिक्रिया देने के रूप में पहचाने जाते थे। उन्होंने 27.04.1972 को मार्केट कमेटी सिरसा में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में काम शुरू किया और 30.06.2015 को सेवानिवृत्त हुए। दूर होने के कारण उनसे प्रत्यक्ष मिलना संभव नहीं हो पाया। इसलिए फोन पर बातचीत की गई।

*स. – आप किस-किस यूनियन में रहे?*

पाण्डेय – नौकरी में आने से पहले कुछ दिन कलकत्ता में कपड़ा मिल में नौकरी थी। वहीं से यूनियन से परिचय शुरू हो गया था। सन् 11.07.1979 को हरियाणा-पंजाब में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी संगठित होने शुरू हो गए थे। उसमें भाग लेना शुरू कर दिया। फतेहचंद भण्डारी और अमरसिंह धीमान भी इसी यूनियन में सक्रिय थे। सिरसा के स्थानीय कर्मचारियों ने सिरसा कर्मचारी संगठन बनाकर काम शुरू किया तो उसी में जुट गए। उस में केन्द्रीय व राज्य दोनों प्रकार के कर्मचारी साथ थे। इसमें पंजाब नेशनल बैंक के के. एल. छाबड़ा, एल.आई.सी. के तेजेन्द्र लोहिया, बिश्नोई, बलजीत नरवाल ए.डी.ओ., लालचन्द और किशोरीलाल आदि अनेक साथी सक्रिय थे। इसी दौरान भट्टा मजदूरों और वन मजदूरों से भी संपर्क हुआ। परिवार की पृष्ठभूमि और कपड़ा मिल के अनुभवों से संगठनों में काम करने की प्रेरणा मिली।

*स. आपको कब-कब उत्पीड़न झेलना पड़ा?*

पाण्डेय – संघ के बनने से पहले ही कपड़ा मिल मजदूरों के संघर्षों से तालमेल हो गया था। बीटीएम मिल गेट पर भीषण लाठीचार्ज हुआ था जिसमें मजदूर नेता टेकचन्द गुप्ता को जानबूझकर चोटें मारी गई थी। इस कार्यवाही में मुझे चोट लगी और गिरफ्तार किया गया। हिसार में केन्द्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम आए थे और हमने विरोध किया। सुब्रह्मण्यम स्वामी की कार के आगे लेटने पर पुलिस ने जबरदस्त पिटाई की थी। सन् 1987 में बोट क्लब दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए पुलिस लालचंद गोदारा को पीट रही थी। मैं उनके ऊपर लेट गया। उससे चोटें आईं।

*स. – आपकी यूनियन सर्वकर्मचारी संघ से जुड़ गई। उसके क्या अनुभव रहे?*

पाण्डेय – चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के सर्वकर्मचारी संघ से जुड़ना वरदान की तरह साबित हुआ था। अन्य मांगों के अलावा बेगार प्रथा समाप्ति के सवाल ने गुलामी से मुक्ति का रास्ता दिखा दिया। हकीकत में मुक्ति दिलाई भी। राजनेता और नौकरशाह चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को सरकारी कर्मचारी मानते ही नहीं थे, बल्कि उन्हें घरेलू नौकर की तरह उत्पीड़ित करते थ। उस लड़ाई के बाद राज्य के समस्त चौथा दर्जा कर्मचारी दिल सर्वकर्मचारी संघ का हिस्सा बन गए।

*स. – सर्वकर्मचारी संघ के अतिरिक्त विभाग स्तर के आन्दोलन के अनुभव क्या रहे?*

पाण्डेय – शुरुआती दौर में मंडी बोर्ड और मार्केट कमेटी कर्मचारियों में आपसी तालमेल का अभाव था। अच्छी संख्या होते हुए भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी उपेक्षित थे। सर्वकर्मचारी संघ रणनीति के तहत मंडी बोर्ड, मार्केट कमेटी फील्ड स्टाफ और चतुर्थ श्रेणी तीनों की तालमेल कमेटी बनाई। जिसके काफी अच्छे प्रभाव पड़े। सरकारी कर्मचारियों की तुलना में बोनस सहित अनेक मांगों में अधिक लाभ ले पाए।

*स. – आन्दोलनों के दौरान परिवार का रूख कैसा रहा*?

पाण्डेय – आन्दोलनों के दौरान परिवार को तकलीफ तो होती ही है। इसके बावजूद मुझे घर से सहयोग रहा। पत्नी और बच्चे सामूहिक हितों की बात को महत्वपूर्ण मानते हैं। तीन बेटी और दो बेटे हैं। सभी विवाहित हैं और अपना काम संभाले हुए हैं। पिछले दिनों सिरसा में रहने वाली बेटी के पति का निधन हो गया।

*स. – क्या कभी किसी नेता अथवा अधिकारी से कोई निजी काम लिया?*

पाण्डेय – नेताओं से तो निजी संपर्क कम ही रहे, क्योंकि मार्क्सवादी विचारों से जुड़ने के बाद किसी और पार्टी के नेताओं से तालमेल बैठाने इच्छा नहीं जागी। लम्बे सेवाकाल में मंडी बोर्ड व मार्केट कमेटी के अधिकारियों से वास्ता पड़ता ही रहा। कर्मचारियों के काम करवाने में तो कोई संकोच नहीं बरता लेकिन निजी काम कभी नहीं कहा।

*स. – आप नयी पीढ़ी के कार्यकर्ताओं से क्या कहना चाहते हैं?*

पाण्डेय – वैसे तो हर समय के हालात अलग होते हैं। इसलिए सभी को अपने ही समय के बारे में सटीक जानकारी होती है, फिर भी मेरा परामर्श है कि

1. संगठन नितांत आवश्यक है। उसके बिना अस्तित्व बचाना भी दूभर हो जाएगा।

2. सच्चाई और पारदर्शिता के बिना संगठन नहीं चलता।

3. आपसी तालमेल और भाईचारे की आवश्यकता पहले से अधिक है। नीतियों का हमला तेज है तो बचाव के लिए ताकत भी अधिक चाहिए।

*स. पहले और अब के आन्दोलनों में क्या अंतर है?*

पाण्डेय – मुझे लगता है कि वह सीधे संघर्षों का दौर था। अब उसमें कमी आई है। हम बुड़ैल जेल में थे। वहाँ कामरेड पृथ्वी सिंह की माता गोधां ताई भी थी। उनकी उपस्थिति सभी को प्रेरित करती थी। मुझे जीन्द में मास्टर अमृतलाल चोपड़ा के नेतृत्व में जुझारू प्रदर्शन की याद ताजा है। अब हम लड़ने के लिए तैयारी के साथ नहीं जाते। शायद आर्थिक उपलब्धियों का दौर न रहने से कर्मचारियों मे उत्साह का अभाव भी हुआ है।   सौजन्य ओम सिंह अशफ़ाक

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