धार्मिक पुस्तकें: सवालों से भागना कई सवाल पैदा करता है
धर्मेन्द्र आज़ाद
अधिकतर धार्मिक लोग धर्मग्रंथों को समझने के लिए नहीं, बल्कि श्रद्धा में झुककर केवल जाप करने के लिए पढ़ते हैं—क्योंकि उन्हें बचपन से यह सिखाया जाता है कि धार्मिक पुस्तकों पर सवाल करना पाप है।
लेकिन क्या बिना प्रश्न किए, या बिना बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल किए, कोई समझ वास्तव में बन पाती है?
क्या बिना तर्क के कोई विश्वास सच में मज़बूत हो सकता है?
अगर विचार—चाहे वह धर्म का हो या विज्ञान का— तभी समझ में आता है जब उस पर प्रश्न किए जाएँ, जब उसे विवेक और तर्क की रोशनी में परखा जाए।
जब धर्मग्रंथों को उनके रचे जाने के समय, उस दौर की सामाजिक परिस्थितियों और तत्कालीन बौद्धिक समझ के संदर्भ में पढ़ा जाता है, तो कई परतें अपने-आप खुलने लगती हैं।
तब समझ में आता है कि अनेक बातें उस समय की सोच पर आधारित थीं— जो आज अप्रासंगिक या भेदभावपूर्ण लगती हैं।
आज के समय में एक छोटा बच्चा भी बता सकता है कि उनमें दर्ज कई कथाएँ काल्पनिक हैं, जो उस समय रहस्यमय और मायावी प्रतीत होती होंगी, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग में तर्क की कसौटी पर वे हास्यास्पद लगने लगती हैं।
और कुछ मान्यताएँ ऐसी भी हैं जिनके पीछे न तर्क है, न प्रमाण— केवल अंधविश्वास और पाखंड।
यह बात किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है। यह सभी पारंपरिक धर्मों पर समान रूप से लागू होती है।
मज़ेदार बात यह है कि अक्सर धार्मिक लोग दूसरों के धर्मग्रंथों में कमियाँ आसानी से देख लेते हैं, लेकिन अपने ही धर्मग्रन्थों को तर्क-विवेक और प्रश्नों की नज़र से देखने का साहस नहीं जुटा पाते।
जबकि यही समझ व्यक्ति और समाज की सोच को अधिक तार्किक, अधिक जागरूक और अधिक रचनात्मक बनाती है।
आस्था को बचाने के लिए यदि सवालों को दबाना पड़े, तो समझ लीजिए—समस्या सवालों में नहीं, आस्था में है।

धर्मेन्द्र जी ने बहुत संक्षेप में साफ साफ और बहुत सकारात्मक बात कही है । सभी धर्मों के अनुयायियों को इसे खुले दिल से स्वीकार करते हुए खुद में समाज में सुधार की शुरुआत करनी चाहिए । यह अपनी और देश की बेहतरी के लिए बहुत जरूरी है ।
धर्मेंद्र आज़ाद की टिप्पणी दिशासूचक है। सवाल यही है कि लक्ष्य क्या है ? समाज की बेहतरी या नफ़रत !