राजकुमार कुम्भज की कविता- जॅंगल में मॅंगल

 

कविता

जॅंगल में मॅंगल

राजकुमार कुम्भज

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जॅंगल में मॅंगल

एक बंदर झोपड़ी के अंदर

दमादम मस्त कलंदर

सबका साथ सबका विकास

अपनी बोतल अपना ग्लास

जाग मछंदर गोरख आया

जिसने खोया उसने पाया

इसकी टोपी उसका सिर

किसका जूता किसका सिर

गली में आज चाँद निकला

लालाजी का पाँव फिसला

हारे को हरिनाम

जीते को संसद

मैं तो आरती उतारूँ रे

संतोषी माता की

ढूँढो ढूँढो रे भीडू ढूँढो

टूटी माला टूटी पायल

कौन बचा कौन घायल

हाजी खाये अंडा

पकड़ा जाये पंडा

खेल खत्म पैसा हजम

बोलो चाय डिब्बे में गरम…..

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