राज कपूर की मानवीय करुणा का सिनेमाई प्रतिबिंब

राज कपूर की मानवीय करुणा का सिनेमाई प्रतिबिंब

    राम आह्लाद चौधरी

हिंदी सिनेमा के इतिहास में राज कपूर का नाम एक ऐसे शख्सियत के रूप में उभरता है, जिन्होंने न केवल मनोरंजन की दुनिया को नई ऊंचाइयां दीं, बल्कि सामाजिक चेतना को भी एक नई दिशा प्रदान की। उनकी फिल्में सिर्फ कहानियां नहीं हैं; वे उस दौर के भारत की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक उथल-पुथल का जीवंत दस्तावेज हैं। राज कपूर की मानवीय करुणा उनकी फिल्मों की आत्मा है—एक ऐसी करुणा जो दर्शक को सिर्फ भावुक नहीं करती, बल्कि विचार करने पर मजबूर करती है। राज कपूर की सामाजिक दृष्टि और उनकी मानवीय करुणा को केंद्र में रखते हुए विचार की दुनिया में  चर्चा करना जरूरी है क्योंकि उनकी जन्मशती है। उनकी फिल्में स्वतंत्र भारत के सपनों, विषमताओं और नैतिक संकटों को करुणा के लेंस से देखती हैं,जो आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक बनी हुई हैं।

राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 में पेशावर में हुआ था, लेकिन उनका कर्मक्षेत्र बॉम्बे (अब मुंबई) का हिंदी सिनेमा रहा। उन्होंने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर से अभिनय की विरासत ली, लेकिन अपनी पहचान एक निर्देशक और निर्माता के रूप में बनाई। उनकी पहली प्रमुख सफलता ‘बरसात’ (1949) से शुरू हुई, लेकिन ‘आवारा’ (1951), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) और ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी फिल्मों ने उन्हें ‘शोमैन ऑफ मिलेनियम’ का खिताब दिलाया। इन फिल्मों में राज कपूर ने लोकप्रियता और सामाजिक संदेश के बीच संतुलन साधा। वे जानते थे कि सिनेमा जनसाधारण तक पहुंचने का माध्यम है, इसलिए उन्होंने अपनी कहानियों में मनोरंजन को सामाजिक आलोचना के साथ जोड़ा। उनकी दृष्टि में सिनेमा सिर्फ पलायन नहीं, बल्कि समाज से संवाद का जरिया है।

राज कपूर की सामाजिक दृष्टि का मूल आधार मानवीय करुणा है। यह करुणा दया या सहानुभूति से आगे की चीज है; यह एक नैतिक शक्ति है जो दर्शक को सामाजिक अन्याय के प्रति संवेदनशील बनाती है। उनकी फिल्मों में नायक कोई सुपरहीरो नहीं होता, बल्कि एक साधारण आदमी होता है—निर्धन, हाशिए पर धकेला गया, लेकिन नैतिक रूप से जीवित। उदाहरण के लिए, ‘आवारा’ में राजू (राज कपूर द्वारा अभिनीत) एक ऐसा युवक है जो गरीबी और सामाजिक उपेक्षा के कारण अपराध की ओर धकेल दिया जाता है। फिल्म का प्रसिद्ध गीत “आवारा हूं” न केवल राजू की पहचान है, बल्कि स्वतंत्र भारत के उन लाखों युवाओं की आवाज है जो औपनिवेशिक अतीत की छाया से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं। राज कपूर यहां गरीबी को अपराध की जड़ बताते हैं, न कि व्यक्ति की नैतिक कमजोरी को। यह दृष्टि भारतीय समाज की उस मानसिकता का प्रतिरोध करती है जो निर्धनता को नैतिक पतन से जोड़ती है।

1947 में आजादी मिली, लेकिन आर्थिक असमानता, वर्ग विभाजन और शहरीकरण की चुनौतियां बनी रहीं। राज कपूर की फिल्में इसी दौर की तस्वीर पेश करती हैं। ‘श्री 420’ में राज (फिर राज कपूर) एक ईमानदार युवक है जो शहर की चकाचौंध में आकर भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आ जाता है। फिल्म का शीर्षक ही 420 धारा (धोखाधड़ी) का प्रतीक है, जो पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करता है। यहां राज कपूर व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराते; वे उस सिस्टम को दोष देते हैं जो ईमानदारी को हास्यास्पद बनाता है और बेईमानी को सफलता की कुंजी। फिल्म के अंत में राज की वापसी आत्मालोचन के माध्यम से होती है, जो समाज के नैतिक पुनर्निर्माण की संभावना का संकेत देती है। यह करुणा का वह रूप है जहां दर्शक नायक के साथ गिरता है, भटकता है और उठता है। राज कपूर की दृष्टि में करुणा सिर्फ भावना नहीं, बल्कि क्रिया है—एक ऐसी क्रिया जो सामाजिक परिवर्तन की मांग करती है।

‘जागते रहो’ राज कपूर की करुणा का एक और उत्कृष्ट उदाहरण है। यह फिल्म एक रात की कहानी है जहां एक प्यासा मजदूर (राज कपूर) पानी की तलाश में एक अपार्टमेंट में भटकता है और समाज के विभिन्न तबकों की सच्चाई देखता है। यहां करुणा मजदूर की प्यास पर नहीं रुकती; यह पूरे समाज की नैतिक प्यास को उजागर करती है। फिल्म व्यंग्य के माध्यम से शहरी जीवन की खोखली नैतिकता पर चोट करती है, लेकिन क्रोध से नहीं, बल्कि संवेदना से। राज कपूर अपने पात्रों पर दया नहीं करते; वे दर्शक को उनके साथ खड़ा करते हैं। यह दृष्टि दर्शक को नैतिक सहभागी बनाती है, जो सिर्फ फिल्म देखने वाला नहीं रह जाता, बल्कि समाज के बारे में सोचने लगता है।

राज कपूर की फिल्मों में करुणा सामाजिक आलोचना का माध्यम है। वे अपने समय के अंतर्विरोधों को संवेदनशीलता से देखते हैं। स्वतंत्र भारत नव निर्माण की राह पर था।औद्योगीकरण, शहरीकरण और आधुनिकता के साथ भारत को आगे बढ़ना था। लेकिन राज कपूर प्रश्न उठाते हैं: क्या विकास सबको लाभ पहुंचा रहा है? क्या आधुनिकता मानवीय मूल्यों को निगल रही है? ‘मेरा नाम जोकर’ में जोकर रंजन (राज कपूर) जीवन से ठगा हुआ कलाकार है, जो प्रेम और सफलता की तलाश में भटकता है। यह फिल्म व्यक्तिगत मोहभंग की कहानी है, लेकिन इसमें सामाजिक संदेश छिपा है कि मनोरंजन की दुनिया भी पूंजीवाद की गिरफ्त में है, जहां कलाकार की भावनाएं व्यापार बन जाती हैं। यहां करुणा जोकर की हंसी के पीछे छिपे दर्द में है, जो दर्शक को अपने जीवन के मोहभंग पर विचार करने पर मजबूर करती है।

राज कपूर की दृष्टि पर चार्ली चैप्लिन का प्रभाव स्पष्ट है। चैप्लिन का ट्रैम्प चरित्र—एक भटका हुआ, गरीब लेकिन मानवीय—राज कपूर के नायकों में ढल गया।  राज कपूर ने इसे भारतीय संदर्भ में रूपांतरित किया। उनका ‘आवारा’ भारतीय शहरों का नागरिक है, जो औपनिवेशिक अतीत, वर्ग असमानता और नैतिक भ्रम से जन्मा है। यह वैश्विक मानवीय करुणा और स्थानीय यथार्थ का संवाद है। चैप्लिन की तरह, राज कपूर भी हास्य और करुणा को मिलाते हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति के प्रतीकों—जैसे गीतों और नृत्य—के माध्यम से। उनके गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं; वे सामाजिक वक्तव्य हैं। “मेरा जूता है जापानी” (श्री 420 से) राष्ट्र की पहचान, गरीबी और सपनों की बहुस्तरीय व्याख्या करता है। यह गीत दिखाता है कि कैसे राज कपूर गंभीर मुद्दों को जनप्रिय बनाते हैं, ताकि आम आदमी तक पहुंच सकें।

स्त्री की भूमिका राज कपूर की करुणा में महत्त्वपूर्ण है। उनकी फिल्मों में स्त्री नैतिक चेतना की प्रतीक है। नर्गिस (उनकी प्रमुख सह-अभिनेत्री) के पात्र नायक को गिरने से रोकते हैं या उठने का साहस देते हैं। ‘आवारा’ में विद्या (नर्गिस) राजू को अपराध से दूर करती है, जो प्रेम और करुणा का प्रतीक है। लेकिन बाद की फिल्मों जैसे ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ (1978) में स्त्री-छवि को लेकर आलोचना हुई, जहां स्त्री को शारीरिक सौंदर्य से जोड़ा गया। यह विरोधाभास राज कपूर की दृष्टि की जटिलता दिखाता है—एक ओर करुणा, दूसरी ओर पितृसत्तात्मक सीमाएं। विचारोत्तेजक रूप से क्या यह उनकी सामाजिक दृष्टि का अंतर्द्वंद्व नहीं है? क्या वे स्त्री को मुक्तिदाता बनाते हुए भी समाज की सीमाओं में बांधते हैं? यह प्रश्न आज के फेमिनिस्ट विमर्श में प्रासंगिक है, जहां करुणा को जेंडर समानता से जोड़कर देखा जाता है।

राज कपूर का सिनेमा निराशा में नहीं डूबता। उनके यहां मोहभंग है, लेकिन निहिलिज्म नहीं। वे मानते हैं कि मनुष्य गिर सकता है, व्यवस्था अन्यायी हो सकती है, लेकिन करुणा, प्रेम और आत्मबोध से पुनर्निर्माण संभव है। ‘श्री 420’ का अंत इसी आशा का प्रतीक है, जहां नायक समाज की ओर लौटता है। यह दृष्टि हिंदी सिनेमा को सामाजिक विवेक का मंच बनाती है। आज के भारत में, जहां गरीबी, भ्रष्टाचार और वर्ग विभाजन अभी भी मौजूद हैं, राज कपूर की फिल्में प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए, ‘आवारा’ की थीम आज के प्रवासी मजदूरों या शहरी गरीबों से जुड़ती है। क्या हमारी आधुनिक फिल्में ऐसी करुणा दिखाती हैं? बॉलीवुड आज एक्शन और रोमांस पर केंद्रित है, लेकिन राज कपूर हमें याद दिलाते हैं कि सिनेमा सामाजिक परिवर्तन का उपकरण हो सकता है।

विचार करें कि राज कपूर की करुणा कैसे समावेशी है। उनकी फिल्में विभिन्न वर्गों, जातियों और धर्मों को छूती हैं, लेकिन हमेशा मानवीयता के आधार पर। ‘जागते रहो’ में अपार्टमेंट के निवासी विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं, लेकिन सभी की नैतिक कमजोरियां उजागर होती हैं। यह करुणा विभाजनकारी नहीं; यह एकजुट करने वाली है। आज के  समाज में, जहां सोशल मीडिया पर नफरत फैलाई जाती है, राज कपूर की दृष्टि हमें सिखाती है कि करुणा से ही संवाद संभव है। उनकी फिल्में हमें प्रश्न पूछने पर मजबूर करती हैं: क्या हमारी विकास की राह मानवीय करुणा को भूल रही है? क्या राष्ट्र निर्माण सिर्फ जी डी पी से होगा या मनुष्यता से?

राज कपूर की विरासत सिर्फ उनकी फिल्मों में नहीं; उनके आर के स्टूडियो और परिवार में भी है। उनके बेटे ऋषि, रणधीर और रणबीर ने सिनेमा को आगे बढ़ाया, सही अर्थों में राज कपूर की सामाजिक गहराई दुर्लभ है। उनकी मृत्यु 2 जून 1988 में हुई, लेकिन उनका सिनेमा जीवित है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, ‘आवारा’ सोवियत संघ और चीन में लोकप्रिय हुई, जो उनकी करुणा की सार्वभौमिकता दिखाती है।

अंत में, राज कपूर  की मानवीय करुणा भारतीय समाज की आत्मा को समझने का माध्यम है। उनकी फिल्में हमें बताती हैं कि सपने देखना, ठोकर खाना और फिर उठना—यही जीवन है। आज जब हम पर्यावरण संकट, असमानता और नैतिक संकट से जूझ रहे हैं, राज कपूर की दृष्टि हमें प्रेरित करती है कि करुणा से ही परिवर्तन संभव है। उनका सिनेमा हमें याद दिलाता है कि हम मनुष्य हैं, और करुणा हमारी सबसे बड़ी शक्ति है।

(लेखक समाज, साहित्य और संस्कृति के आलोचनात्मक अध्येता हैं)

 

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