कविता
ज़ख़्म-ए-पंजाब
एस.पी.सिंह
दरिया बोले —
“मैंने तो सिर्फ़ राह बदली थी,
तबाही का ठेका तो इंसानों ने लिया था,
बांधों की राजनीति,
और सत्ता की सुस्ती ने
मुझे खंजर बना डाला।”
खेत बोले —
“मैं तो हर साल हरी चुनरी ओढ़ता था,
इस बार मेरी गोदी लाशों से भर गई।
धान नहीं उगा, सपने डूब गए,
गेंहूँ नहीं खिला, उम्मीद बह गई।”
मज़दूर बोले —
“मेरे घर का छप्पर, मेरी बस्ती,
मेरे बच्चों का बस्ता — सब पानी में।
सरकारी कागज़ में मैं बस एक आंकड़ा हूँ,
पर आँकड़े कभी आँसू नहीं पोंछते।”
सत्ता बोली —
“हमने हेलिकॉप्टर से देखा है मंजर,
कैमरे में हाथ हिलाए हैं,
घोषणाओं के पुल बनाए हैं…
बाकी सब क़ुदरत की मार है!”
पंजाब बोला —
“झूठे!
तुम्हारे कंधों पर भी ये बोझ है,
कुदरत की मार से बड़ी तुम्हारी बेरुख़ी है।
जब मैंने गेंहूँ से तुम्हारा पेट भरा था,
तब मैं ‘अन्नदाता’ था,
आज जब मैं डूबा हूँ,
तो मैं सिर्फ़ एक ‘समस्या’ हूँ?”
दरिया की लहरें हंस पड़ीं,
पर वह हंसी करुण थी, कटाक्ष थी
“इंसान!
तू बांध बनाता है, पर ज़िम्मेदारी नहीं,
तू फसल लेता है, पर दर्द नहीं।
तू राहत का वादा करता है,
पर निभाता सिर्फ़ मौन है।”
पर देखो,
इन सब के बीच,
टूटा हुआ किसान अब भी खड़ा है।
वह ट्रैक्टर पर राशन लादे
पड़ोसी की बस्ती में जा रहा है।
उसकी जेब में बचे बस दो हज़ार हैं,
पर वह कहता है —
“सेवा करनी है, यही पंजाब है।”
यही है पंजाब की आत्मा —
पानी में भी जज़्बा नहीं डूबता,
तबाही में भी दिल नहीं सिकुड़ता।
सियासत मौन हो सकती है,
मगर इंसानियत बोलती है।
और जब यह सैलाब थमेगा,
फिर हरियाली लौटेगी खेतों में,
पर पंजाब की आंखें पूछेंगी —
“जब मैं डूब रहा था,
तब मेरी सरकार कहां थी?”