मंजुल भारद्वाज की कविता -अंतहीन गंतव्य

कविता

अंतहीन गंतव्य

मंजुल भारद्वाज

पहले से खींची हुई लकीर को
मिटाकर नहीं
उससे बड़ी लकीर खींचकर
इतिहास रचो !
उपरोक्त कथन
एकाकीपन का
अनंत गंतव्य पथ है
जहाँ गंतव्य अंतहीन है !

सृजनकार के लिए
समीक्षा,आलोचना
आत्मसंवाद अनिवार्य
सृजन आयाम हैं
पर समीक्षक, आलोचक की योग्यता का
कोई पैमाना निश्चित होता है?
जैसे पापी को सज़ा देने के लिए
पत्थर वही मारे
जिसने पाप ना किया हो !

जो नाटक लिखते हों
नाटक में अभिनय
निर्देशन किया हो
सरकारी खैरात
बनिया,कॉर्पोरेट
या किसी पार्टी का पालतू पट्टा
बांधे बिना
दर्शक सहभागिता से
रंग सृजन कर
धर्मान्धता,पूंजीवाद
वर्णवाद,सामन्तवाद, पितृसत्तात्मक
फ़ासीवादी तानाशाही का मुखर
प्रतिरोध करते हुए
समता,न्याय,शांति
अहिंसा,सत्य और मानवीय मूल्यों के लिए
समर्पित हो
रंगकर्म पर ज़िंदा हो !
प्रतीक्षारत हूँ
ऐसे सृजनकार
समीक्षक, आलोचक की
जिससे रंग चिंतन पर
विमर्श कर सकूं …

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