आम जनता के सरोकारों के गीतकार हैं ब्रजमोहन

  • ब्रजमोहन की जनगीत की पुस्तक ‘सबसे मुश्किल है घर की लड़ाई’ पर एक टिप्मणी
आलोक वर्मा
गीत और समाज का संबंध कुछ -कुछ परिवार और अपने परायों के साथ अपनेपन और गैर होने के एहसास से जोड़ती हैं या तोड़ती हैं। गीत जब जनता की आवाज बन जाए, उनके हित अहित की बात करने लगे, उनके सुख दुख में शामिल होने का अहसास कराए, जीवन को उम्मीद से भर दे और आगे का रास्ता दिखाए, अच्छे और बुरे की पहचान बताए तो वह जनगीत बन जाता है। हिंदी साहित्य में एक पूरा दौर इन गीतों से भरा पूरा रहा। गीतकारों ने सामने आकर जनता की आवाज को स्वर दिया।
आजादी  के बाद के दशक में जनता की उम्मीदें टूटने लगीं, हर मोर्चे पर निराशा दिखाई पड़ने लगी। कहां तो ये अपेक्षा थी कि आजादी के बाद अपनी सरकार होगी तो सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। हर हाथ को रोटी कपड़ा और मकान तथा हर हाथ को रोजगार मिलेगा। लेकिन प्रतीक्षा का दौर लंबा होने लगा तो जनता के सब्र का बांध टूटना ही था। ऐसे में जनता के निराशा, हताशा को स्वर दिया कवि, कहानीकार और गीतकारों ने। इसमें जनता के हर तबके तक जि लोगों ने बात पहुंचाई वे गीतकार थे।
उन्होंने अपने गीतों से केवल गुस्सा, क्षोभ और निराशा को स्वर दिया बल्कि उनके लिए मशाल लेकर भी चले। जनता को बेहतर और बदतर की पहचान बताई। अपने गीतों के जरिये उनको लामबंद करने, शत्रु और मित्र की पहचान करने तथा व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से क्या करना चाहिए इसे बताने की कोशिश की।
ब्रज मोहन भी उन्हीं गीतकारों में शामिल हैं। उनके गीत जम्हूरियत के पहरेदार हैं। इनकी रचनाओं के मूल में हाशिये पर बैठे लोगों का दर्द है। उनके गीत किसानों, मजदूरों, महिलाओं, बच्चों, मजलूमों के गीत  हैं। वे आम जनता के लिए गीत लिखते हैं। उनके गीतों में बेचैनी है।
वे उम्मीदों का गीत रचते हैं। सामूहिक संघर्ष के जरिये जीवन बेहतर करने की तड़प के गीत लिखते हैं। आधार प्रकाशन पंचकूला से ब्रज मोहन के जनगीतों का संग्रह ‘सबसे मुश्किल है घर की लड़ाई’ आ रहा है। ब्रज मोहन के साहित्य को समझने के लिए उनके जीवन को जानना जरूरी है।
ब्रज मोहन मूलरूप से यूपी के बागपत जिले से ताल्लुक रखते हैं। 1971 में  वह ग्रेजुएशन करने के लिए दिल्ली पहुंचे और निशांत नाट्य ग्रुप से जुड़ गए। गीत लिखने की शुरुआत भी उसी समय हुई।  नाटक मंडली जब कोई नाटक करती थी तो उसमें शंकर शैलेंद्र के गीत गाए जाते थे।
शंकर शैलेंद्र जनता के सरोकारों से जुड़े गीत लिखते थे इसलिए नाट्य ग्रुप उनके गीतों का उपयोग अपने नाटकों में करते थे।  ब्रज मोहन ने पूछा कि नाटकों में क्यों केवल शंकर शैलेंद्र के गीत गाए जाते हैं? उनको कहा गया कि तुम लिखो और इस तरह उनके जनगीत लिखने की शुरुआत हुई।
ब्रज मोहन पिछले पचास सालों से   जनगीत लिख  रहे हैं। वह बताते हैं कि दिल्ली के कपड़ा मिलों के एक कार्यक्रम में निशांत नाट्य मंच को भी
 निमंत्रण मिला था। उन्होंने पहला गीत वहीं लिखा। उन्होंने थियेटर और नुक्कड़ नाटकों के लिए बहुत काम किया। कई नाटक मंडलियों के साथ जुड़े रहे।  खुद भी 10-15 से अधिक नुक्कड़ नाटक मंडलियां बनाईं। पंजाब में गुरुशरण सिंह की मंडली में काम किया। कलकत्ता, बनारस, गोरखपुर, इलाहाबाद, छत्तीसगढ़, बिहार में जाकर नाटक किए। उनके गीत देश की100 से ज्यादा नाट्य मंडलियों ने गाए हैं।
 ब्रज मोहन का मानना है कि जनगीत लिखना कमिटमेंट पर निर्भर करता है। सामाजिक संघर्षों, सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होगा, वही जनगीत लिख पाएगा। उसके गीत लोगों की जुबान पर छा सकते  हैं। वह कहते हैं कि उनके गीत मजदूर, किसान, लोअर मिडल क्लास से जुड़े हुए हैं। वे सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे हैं।
ब्रज मोहन 1995 में बम्बई ( मुंबई) चले गए। वहां 50 से अधिक सीरियलों के लिए स्क्रीन प्ले और डायलाग्स लिखे।  जिसमें प्रमुख पंकज कपूर का ‘मोहन दास बीए एलएलबी’ और सतीश कौशिक का ‘ये शादी नहीं हो सकती’ है। अभी हाल ही में उन्होंने महेश तुलेकर की कामेडी फिल्म गाड़ी बुला रही है का स्क्रीन प्ले और डायलाग्स लिखे हैं। महेश तुलेकर मूलतः मराठी फिल्मकार हैं।
उन्होंने इससे पहले ‘गाड़ी बुला रही है’ नामक कामेडी फिल्म बनाई थी। ब्रज मोहन के ढेर सारे जनगीत यू ट्यूब पर पड़े हैं। तमाम नाटकों में उनके गीतों को शामिल किया गया है।
अब उनके संग्रह ‘सबसे मुश्किल है घर की लड़ाई’ के गीतों पर बात करते हैं। संग्रह का पहला गीत ‘ये साल…’ में उम्मीदों और खुशियों की  चाहत व्यक्त की गई है। 1990 में लिखे गये  गीत में ब्रज मोहन कैसे साल की कामना करते हैं, पढि़ए-
ये साल हमारे संघर्षों को नई दिशाएं देगा/ नए पंख और नई उड़ानें नई हवाएं देगा/ ये साल हमें जोड़ेगा/ हिम्मत उनकी तोड़ेगा/ इस बार ना भागलपुर का कोई खून बहाने पाए/ इस बार ना मंदिर मस्जिद कोई कत्लेआम कराए/ इस बार मोहब्बत को ना कोई दंगों में झुलसाए/ यह साल दुखी माओं के बेटों का दर्द हरेगा…/  … मांगें हम अपनी किरणें मांगें अपने उजियारे/ यह साल हमारी छाती में ताकत नई भरेगा/ इस बार न हत्याओं की खामोश गवाही भरना/ इस बार धुआं उठने से पहले ही भाई संभलना… इस बार लड़ेंगे बच्चे- हर दंगाबाज मरेगा।  गीतकार कैसा समाज चाहता है यह इस गीत से स्पष्ट हो जाता है। वह चाहता है कि नया साल खुशियां लेकर आए। देश में दंगे न हों, किसी का खून न बहे। ऐसे लोगों के खिलाफ सबको सचेत हो एकजुट होकर लड़ने का भी आह्वान करता है।
सत्ता कैसी होती है उसके चरित्र पर एक गीत है- ‘ये सत्ता’ – ये सत्ता किसे हंसाएगी/ आंसू और खून बहाएगी/ आपस की फूट बढ़ाएगी/ अपनी दुनिया कब बदलेगी- जब सत्ता हाथ में आएगी। मजदूर, किसान अर्थात आम आदमी की दुनिया तभी बदल सकती है जब उसकी सरकार अर्थात उसकी बात सुनने वाली, उसके हक में कानून बनाने वाली सरकार आएगी तभी जीवन बदलेगा।
मंदिर भी ले लो… गीत में कवि कहता है- मंदिर भी ले लो मस्जिद भी ले लो/ मगर आदमी के लहू से न खेलो।… हमें चाहिए न अंधेरा तुम्हारा/ हमें चाहिए न सियासत तुम्हारी/ हमें चाहिए जिंदगी का उजाला।
गीतकार संपूर्ण समाज का विकास चाहता है इसलिए वह लड़कियों की शिक्षा की जरूरत पर जोर देता है। लड़कियां शिक्षित होंगी तभी तो जुल्म के खिलाफ आवाज उठाएंगी। ‘है जरूरी’ गीत में लिखता है- है जरूरी लड़कियों को भी पढ़ाओ/ जुल्म से लड़ना उन्हें भी तो सिखाओ- है जरूरी। शासक वर्ग ने कैसे किसान-मजदूरों की एकता को तोड़ने के लिए जाति और धर्म का मुलम्मे का आवरण पहना दिया है उसके प्रति भी वह सचेत करता है ‘जिंदगी की हर लड़ाई…’ नामक गीत में- जातियों की धर्म की गुलामियों को छोड़ दो/ जिंदगी की हर लड़ाई को हकों से जोड़ दो। धर्म की चादर तान रे बंदे में व्यंग्य करते हुए गीतकार कहता है कि अगर धर्म का चोला डाल लिया तो योगी -भोगी-बाबा-साबा- बन जा रे/
इसी क्रम में ‘ये दिन’ गीत को भी देख सकते हैं-  ये दिन आवाज उठाने के, ये दिन संघर्ष चलाने के/ ये दिन मिलकर साथ आने के,  ये दिन अंधियार मिटाने के/… ये दिन जो सबको बांच रहे, सबके हाथों को काट रहे/ ये दिन हैं भाई समझने के और फिर सबको समझाने के… ये दिन…। ‘दुश्मन का गर खेल’ गीत में भी यही बात समझाने की कोशिश करता है-  दुश्मन का गर खेल समझ न पाओगे/ आपस में ही लड़-कट कर मर जाओगे/ मजदूरों का मजदूरों से क्या झगड़ा/ मजलूमों का मजलूमों से क्या झगड़ा।
हक के लिए एकजुट होने की जरूरत है इस पर जोर देते हुए गीत ‘चले चलो’ में लिखते हैं- चले चलो दिलों में घाव लेके भी चले चलो/ चलो लहूलुहान पांव लेके भी चले चलो/ चलो कि आज साथ साथ चलने की जरूरतें / चलो कि खत्म हो न जाएं जिंदगी की हसरतें/ जमीन, ख्वाब, जिंदगी, यकीन सबको बांटकर / वो चाहते है बेबसी में आदमी झुकाए सर… जले हुए घरों के ख्वाब लेके भी चले चलो। किसान और मजदूर श्रम करते हैं मगर उसका फायदा उन्हें नहीं मिल रहा। वे दोनों को जागरूक करते हुए अपना हक छीन लेने का आह्वान करते हैं- ‘हाथ कुदाली रे…’ गीत में वे लिखते हैं- हाथ कुदाली रे ओ भैया हाथ कुदाली रे/ तेरे दम से ही धरती पे है हरियाली रे… दाब महाजन की गरदन अब चरबी वाले रे/ … जमींदार की आंखों से अब खींच ले लाली रे। श्रमिकों के लिए लिखा गया गीत है- हाथ हथौड़ा रे… – हाथ हथौड़ा रे ओ भैया हाथ हथौड़ा रे/… हर युग में खूनी जबड़ों को तूने तोड़ा रे। 
 ये दोनों गीत न केवल किसानों, मजदूरों को लामबंद करते हैं बल्कि उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे अपना हक हासिल करने के लिए दुश्मन को ध्वस्त कर दें। किसानों और मजदूरों के बीच जब नाटक मंडलियां नाटक खेलने जाती थीं तो ये गीत बार-बार उपयोग किए जाते थे।
इसी तरह ब्रज मोहन अपने गीत चुनाव का गीत… में राजनीतिक दलों और नेताओं के चरित्र को बेनकाब करते हैं। वे उनको सियार, ठग और बटमार की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि जैसे ही चुनाव आया तो नेताजी का प्यार गांव और वहां की जनता के प्रति उमड़ आया है। ये टोपी वाले बगुला बस्ती और गांव में आकर सपने दिखाएंगे और फिर दिल्ली उड़ जाएंगे और वहां जनता को भूलकर अपने और अपने लोगों के हित में काम करेंगे।
पुस्तक का नामः सबसे मुश्किल है घर की लड़ाई (जनगीत)
लेखक – ब्रजमोहन
मूल्य: 195 रुपये
प्रकाशकः आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
एससीएफ 267, सेक्टर र16 पंचकूला हरियाणा