एक नया गीत
… नई खिड़कियां खोलें
यश मालवीय
चलो चलें भाषा की झिलमिल
नई खिड़कियां खोलें
बहुत सरल शब्दों में अपने
कठिन समय से बोलें
हर मुश्किल को थोड़ी थोड़ी
धूप सुबह की दे दें
जड़ होते अभिव्यक्ति के क़िले
किरनों से ही भेदें
पंख पसारे पाखी के संग
अपने भी पर तोलें
काले जल से भरी बावड़ी कल की,
दें उजियारा
कुछ पल को ही सही, छंटे
इतिहासों का अंधियारा
अंधापन हो दूर, दृष्टि का
कलुष तमस सब धो लें
होमर मिल्टन सूर, कि मन की
आंखों की परिपाटी
अब न रक्तरंजित हो तिलभर
अपनी चंदन माटी
खुलें रोशनी के दरवाज़े
हिलें,हवा संग डोलें।