नरेश प्रेरणा
इंडिया गठबंधन का विचारों में और व्यवहार में ना बन पाना भी उन वजहों में शामिल है, जो एक लोकप्रिय विरोध होते हुए और दस सालों की एंटी इन्कमबैंसी होते हुए भी भाजपा ने वोटों में मामूली और सीटों में अच्छी खासी बढ़त हासिल की।
हरियाणा में चुनाव के नतीजों के बाद बहुत तरह की समीक्षाएं सामने आ चुकी हैं। कांग्रेस सदमे में है, भाजपा हैरान है और लोग अचंभित हैं कि ये क्या हुआ। मीडिया और सोशल मीडिया में भी अविश्वास फैला हुआ है और देश भर में धक्का सा महसूस किया जा रहा है। ईवीएम की गड़बड़ी, सुनियोजित जातिवाद, विद्रोही उम्मीदवार और पैसे के खेल की भूमिकाओं को रेखांकित किया जा चुका है। गठबंधन ना हो पाने को भी चिन्हित किया गया है।
फिर भी कुछ पहलुओं पर अभी गौर नहीं किया गया है। सबसे पहले इसी को देखने समझने की जरूरत है कि आखिर इंडिया गठबंधन ने मिल कर चुनाव क्यों नहीं लड़ा? इंडिया गठबंधन बनने के समय से ही साझा प्रस्ताव पास होने के बावजूद मौजूदा समय को फासीवादी उभार की तरह देखने में नाकामी सामने आई है।
परिस्थितियां फासीवाद का जवाब तैयार करने की मांग कर रही हैं और राजनीतिक दल सामान्य चुनाव की तरह देख रहे हैं। नफरत को राजनीतिक हथियार बनाकर लड़ने वाली पार्टी के मुकाबले सिर्फ महोब्बत की दुकान की उम्मीद जगाना नाकाफी है।
विभाजन की राजनीति धर्म के आधार पर भी और जाति के आधार पर भी हो रही हो तो इसका सामना कैसे किया जाएगा? महिला उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष होते हुए भी, उत्पीड़न के खिलाफ माहौल क्यों नहीं बन पाया या बनाया ही नहीं गया? बेतहाशा बेरोजगारी के बावजूद मुखर युवा आवाज कहाँ दब गयीं? ये सवाल अभी विमर्श के बाहर बने हुए हैं।
देश की सत्ताधारी पार्टियों ने अभी तक भाजपा के चरित्र को पूरा नहीं पहचाना है। पहचाना है तो स्वीकार नहीं किया है। स्वीकार कर लिया है तो उससे लड़ने की रणनीति नहीं बनाई है। भाजपा कोई भी दूसरी राजनीतिक पार्टी नहीं है बल्कि आर एस एस द्वारा संचालित पार्टी है, जिसका घोषित उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना है।
वह संविधान की शपथ लेने वाला संगठन नहीं बल्कि उसको बदलने की वकालत और उस दिशा में काम करने वाला संगठन है। इसके खिलाफ संघर्ष कोई भी संयुक्त मोर्चा बनाए बिना नहीं लड़ा जा सकता। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के बाद अब हरियाणा में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के चुनाव लड़ने की रणनीति यही गवाही दे रही है। दूसरी तरफ हरियाणा की भाजपा की जीत में संघ की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है।
संयुक्त मोर्चा बनाने का काम न केवल इंडिया गठबंधन की सभी पार्टियों के साथ करने की जरूरत थी, बल्कि अपनी पार्टी के भीतर भी सभी को साथ लेकर चलने की हर संभव कोशिश करने की जरूरत थी। इन सबसे ऊपर लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का गठबंधन बनाने की जरूरत थी, जिसपर बहुत कम ध्यान गया है। लोकसभा चुनाव के दौरान 400 पार के नारे का वास्तविक मतलब लोगों ने समझ लिया था और इसीलिए जातीय जनगणना के आह्वान को स्वीकार कर लिया था। इसी का नतीजा था कि भाजपा को 400 पार तो दूर बहुमत का भी जुगाड़ करना पड़ा। उस समय लोगों में जातीय जनगणना के मसले पर जो उत्साह था वह हरियाणा विधानसभा चुनाव में गायब ही हो गया। जातीय जनगणना का आह्वान गायब था, जिक्र भर था। कुमारी सैलजा की शुरुआती नाराजगी और निष्क्रियता ने सामाजिक बराबरी और भागीदारी के बचे खुचे इरादों पर भी संदेह पैदा कर दिया।
दूसरा मसला है कि गोरक्षा के नाम पर हिंसा, हत्याओं और लामबंदी में संघ के संगठन और अपराधी गिरोह लंबे समय से मिलकर काम कर रहे हैं। असल में हरियाणा इसकी प्रयोगशाला बना हुआ है। हरियाणा विधानसभा के पूरे चुनाव अभियान में इन अपराधी गिरोह और पुलिस प्रशासन तथा संघ के संगठनों के गठजोड़ पर लगभग खामोशी दिखाई देती है।
क्या हम नहीं जानते कि लोकसभा चुनाव नतीजों के ठीक बाद माबलींचिंग की घटनाओं में कांग्रेस की खामोशी पर बहुत लोग गुस्से में थे और कांग्रेस पर खामोशी तोड़ने के लिए दबाव बना रहे थे। मुस्लिम आबादी को साथ लेने के लिए हरियाणा में कांग्रेस की सात गारंटियों में कुछ भी नहीं है। अलगाव, नफ़रत और हिंसा झेल रहे समुदाय कहां जाएं?
इंडिया गठबंधन का विचारों में और व्यवहार में ना बन पाना भी उन वजहों में शामिल है, जो एक लोकप्रिय विरोध होते हुए और दस सालों की एंटी इन्कमबेंसी होते हुए भी भाजपा ने वोटों में मामूली और सीटों में अच्छी खासी बढ़त हासिल की। जब तक भाजपा से मुकाबले के लिए फासीवादी उभार के फैक्टर को शामिल नहीं किया जाएगा और फासीवाद से लड़ने और लड़ सकने वाली ताकतों और व्यक्तियों को एकजुट नहीं किया जाएगा, भाजपा को पूरी तरह से हराना मुश्किल होगा।