ओमप्रकाश तिवारी की कविता – यायावर

यायावर

ओमप्रकाश तिवारी

यायावर कहां एक जगह रुकते हैं

चलना ही उनकी नियति

अच्छा लगता है उन्हें

हर स्थल

जहां होते हैं

वहीं की मिट्टी की खुशबू में 

विलीन हो जाते हैं

लेकिन रह नहीं पाते 

एक जगह

अचानक

सुदूर स्थल से

आती है एक सुगंध

कोई और मिट्टी

बुला रही होती है

यायावर निकल पड़ता है

नए स्थल की ओर

हालांकि आकर्षित करती है

पुराने स्थल की मिट्टी

विछोह की हूक

दही की तरह मथ देती है

कलेजे को

दर्द की गंगा बन जाती है

शरीर

आंखों में उभर आए

दो बूंद

सागर से कम नहीं होते

कुछ पल के लिए

पथ पर जड़ हो जाते हैं

पग

लेकिन रुकते नहीं

क्योंकि

यायावर कहीं

ठहरते नहीं।

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