बात बेबात
सिर्फ अन्नदाता नहीं, ऑल-इन-वन पैकेज
विजय शंकर पांडेय
विदर्भ का किसान अब सिर्फ अन्नदाता नहीं रहा, वह ऑल-इन-वन पैकेज हो गया है। फसल उगाने के साथ-साथ अब शरीर के पुर्ज़े भी उगाने पड़ते हैं। एक लाख का कर्ज लिया, साहूकार ने सूद में ऐसा पानी डाला कि रकम 74 लाख की बेल बन गई। बेल चढ़ती गई, किसान झुकता गया। आखिर में साहूकार बोला—“फसल नहीं तो क्या हुआ, किडनी तो है न!”
किसान को विदेश ले जाया गया। हवाई जहाज में पहली बार बैठा, सोचा शायद सरकार की कोई योजना होगी। वहां जाकर पता चला—यह ‘कृषक उन्नयन’ नहीं, अंग-उत्पादन योजना है। डॉक्टर ने किडनी निकाली, साहूकार ने ब्याज जोड़ा और सिस्टम ने आंखें बंद कर लीं। सब खुश। बस किसान थोड़ा हल्का हो गया—वजन में भी और जिंदगी में भी।
विदर्भ में अब खेती का गणित बदला जा रहा है। जमीन कम, कर्ज ज्यादा। बारिश अनिश्चित, सूद सुनिश्चित। फसल बीमा है, मगर किसान बीमा नहीं। आत्महत्या पर शोक संदेश मिलता है, किडनी बेचने पर चुप्पी।
सरकार कहेगी—“हम किसान के साथ हैं।” बैंक बोलेगा—“नियम हैं।” साहूकार बोलेगा—“समझौता हुआ था।” और किसान? वह खेत में खड़ा होकर सोचता है—अगली फसल कौन सी बोए—सोयाबीन, कपास या फिर बची-खुची जिंदगी?
विदर्भ में अब सवाल यह नहीं कि किसान क्या उगाए, सवाल यह है—कितना बचेगा?
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लेखक- विजय शंकर पांडेय
