निर्मला पाखी की कविता- छोटी औरतें बड़ी औरतें

छोटी औरतें बड़ी औरतें

निर्मला पाखी

छोटी औरतें
खेलती है गुड़ियों से
पूछती है बड़ी औरतों से
गुड्डा गुड्डी का शादी का जोड़ा कैसा हो
गुड्डे के हाथ में तलवार
गुड़िया को सतरंगी घुंघट
पर दादी, गुड़िया देखेगी कैसे?
चलेगी कैसे?
बड़ी औरतें जोर से हंसती हैं
धीरे-धीरे सब दिखने लगेगा
तुम भी चुनरी ओढ़ना सीख लो
बड़ी औरतें सिखाती हैं
छोटी औरतों को
चुनरी ओड़ना शर्माना घुंघट निकालना
शर्मा कर सर झुका कर चलना
छोटे हाथों से बर्तन मांजना
हाथ जलने पर भी रोटी बनाते रहना
छेड़खानी का विरोध ना करना
हुकुम बजाना, जुबान ना लड़ना
आदमी से घर के काम ना करवाना
पतिव्रता बने रहना
रूठ कर मायके मत जाना
परंतु
अब छोटी औरतें गुड़िया नहीं खेलता
मुक्ति गीत गा सकती है
चुनरी का मंडासा बना लाठियां भांजती है
अब
छोटी औरतें बड़ी औरतों को सिखाती है
औरत मर्द की बराबरी की बातें
मर्द की गुलामी ना करना
छेड़खानी करने वालों को पीटना
छोटी औरतें सिखाती हैं
इतिहास की बराबरी वाली बातें पढ़ने
बराबरी के साथ हुई दगाबाजी पढ़ना
बराबरी के इतिहास को भविष्य बनाना