नीलकांत जी एक व्यक्ति नहीं, एक सतत विचार थे

वरिष्ठ कथाकार और मार्क्सवादी आलोचक नीलकांत का 90 साल की उम्र में 14 जून को दिल्ली में निधन हो गया। नीलकांत का यूपी के जौनपुर में जन्म हुआ था लेकिन उनका जीवन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में बीता। वह जितने अच्छे कथाकार थे उतने ही तेज आलोचक। वह उस पीढ़ी के थे जिसने सबकुछ साहित्य पर न्योछावर कर दिया था। विचारधारा से कभी डिगे नहीं। विवादास्पद भी काफी रहे। रामचंद्र शुक्ल पर लिखे उनके लेखों के चलते देशभर में काफी विवाद हुआ। जनवादी लेखक संघ में भी काफी बवाल मचा। ‘एक बीघा गोंयड़’, ‘बँधुआ रामदास’, ‘बाढ़ पुराण’ उनके उपन्यास है। कहानी संग्रह हैं- ‘महापात्र’, ‘अमलतास के फूल’, ‘अजगर और बूढा बढई’, ‘मटखन्ना’। आलोचनात्मक कृतियां हैं – ‘रामचन्द्र शुक्ल’, ‘सौन्दर्य शास्त्र की पाश्चात्य परंपरा’, ‘मुक्तिबोध की तीन कवितायें’। ‘इतिहास लेखन की समस्यायें’ (दो भागों में), ‘जाति, वर्ग और इतिहास’, ‘राहुल : शब्द और कर्म’ का संपादन भी उन्होंने किया था। प्रतिबिम्ब मीडिया की तरफ से नीलकांत को विनम्र श्रद्धांजलि। उनके प्रति आदर व्यक्त करते हुए अरुण माहेश्वरी द्वारा फेसबुक पर लिखा गया स्मृति लेख यहां साभार दे रहे हैं-

स्मृति शेष

नीलकांत जी एक व्यक्ति नहीं, एक सतत विचार थे

अरुण माहेश्वरी

“न हन्यते हन्यमाने शरीरे”। शरीर के नाश होने पर भी मनुष्य का अंत नहीं होता। वह तो हमेशा अदने देह के बाहर पूरे ब्रह्मांड तक फैला होता है, उसकी उम्र देह के साथ खत्म नहीं होती।

यह पंक्ति आज नीलकांत जी के न रहने के समाचार के साथ जैसे हमारी पूर्ण अनुभूति में उतर आई। शरीर चला गया, पर जो कुछ उसके बाहर फैला था, उसकी कौंध हमेशा बनी रहेगी। जीवन में कुछ लोगों का संग ही अक्सर ऐसी घटना की भूमिका करता है, जहां से आप वह नहीं रहते, जो पहले हुआ करते थे। वे केवल स्मृति में नहीं, हमारी आत्म-रचना में ही हमेशा बने रहते हैं।

एक समय रामचन्द्र शुक्ल पर उनके लेखों से हिंदी आलोचना के अकादमिक वृत्त में जैसे एक मूर्दानगी छा गई थी। अकादमी अर्थात् विश्वविद्यालय जो ज्ञान के क्षेत्र के मालिक संकेतन (master signifier) का केंद्र होता है, जहाँ से विचारों की नहीं, पूर्वग्रहों की सृष्टि होती है, नीलकांत जी उस हेडक्वार्टर पर बमबारी करने वाली सांस्कृतिक क्रांति का झंडा उठाए हुए थे।

“कथा” पत्रिका में मार्कण्डेय के दिनों में उनके लेखन ने उस पत्रिका को साहित्य के आत्म-मूल्यांकन की जगह बना दिया था। और फिर एक बार, “लहक” पत्रिका में भी उनके लेखन से लगा कि हिंदी आलोचना फिर से कुछ कहने लायक बन रही है — आत्ममुग्धता से बाहर, आत्म-साक्षात्कार की ओर।

जॉक लकान ने जिस प्रमाता को केवल संज्ञा नहीं, आत्म-छवि, प्रतीकात्मकता और यथार्थ के तनाव की संरचना से बनी “गाँठ” के रूप में देखा था, नीलकांत जी उस गाँठ की एक प्रत्यक्ष उपस्थिति थे। आत्मछवि से मोहभंग, प्रतीकात्मकता को चुनौती, और यथार्थ का असहनीय बोध जिसे मुख्यधारा की आलोचना बार-बार टालना चाहती है, नीलकांत जी उसे जीते थे, अपने लेखन और जीवन के औघड़पन, दोनों में। वे उसी असहनीय को आलोचना के केन्द्र में लाकर एक नए नैतिक प्रमाता की जगह बना रहे थे।

ऐसा लगता है जैसे वे किसी पहुँचे हुए पीर, औलिया की तरह आलोचना के उस वांछनात्मक अभाव को जान चुके थे जो स्वयं आलोचना को जन्म देता है। जॉक लकान जिसे विश्लेषक की वांछना (desire of the analyst) कहते हैं , विश्लेषक की वह इच्छा जो कभी पूरी नहीं होती, पर वही सबसे अधिक सृजनशील होती है, नीलकांत जी आलोचना के उसी “अभाव की गति” के संकेतक थे।

हमारे लिए नीलकांत जी का जाना एक व्यक्ति का जाना नहीं है — यह हिंदी आलोचना की आत्म-संभावना का एक क्षरण है। वे हमारे लिए न केवल एक सजग लेखक थे बल्कि हमारी अपनी चेतना की बेचैनी भी है, जो बेचैनी हर मौन और दरार को प्रश्न बनाती है।

नीलकांत जी मूलतः दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी थे। उनके लिए दर्शन संकल्पनाओं का अनुशासन नहीं, चिंतन की काव्यात्मकता थी जो आलोचना को उसके शास्त्र से अधिक, उसकी आत्मा की ओर ले जाती थी।

वे दृढ़ मार्क्सवादी थे। तीक्ष्ण वर्गीय दृष्टि और बौद्धिक प्रतिबद्धता के चलते आलोचना को सिर्फ कला के विवेचन के तौर पर नहीं, उन्होंने इतिहास की समझ के माध्यम के रूप में अपनाया था। चेतना और सिर्फ चेतना से अटे हुए कलावाद से संघर्ष में उनके लेखन का अंदाज़े-बयां उनके तर्क की कई सूक्ष्म दरारों को पाटने के लिए काफ़ी था। इससे यह भी पता चलता है कि किसी भी लेखन में शैली कथ्य से कम अर्थवान नहीं होती है।

उनकी भाषा में उर्दू शायरी का संस्कार था — एक ऐसा सौंदर्य-बोध जो आलोचना को किसी क्लासरूम व्याख्यान का रूप नहीं लेने देता। पोलेमिक्स की सुप्रतिष्ठित मार्क्सवादी शैली में कहन का ठेस अंदाज़ उन्हें हिंदी आलोचना के प्रतिष्ठित मानदंडों पर भी उस ऊँचे पायदान पर रखता है जहाँ हम अक्सर नामवर सिंह को पाते रहे हैं।

हमारे अपने जीवन में नीलकांत जी की उपस्थिति केवल वैचारिक नहीं, बहुत निजी वरिष्ठजन की थी। इलाहाबाद और कोलकाता में हमने कई दिन साथ-साथ बिताएँ। वे हमारे घर भी आए, हमारे साथ रहे। एक बार तो पूरा एक महीना।

इसी से ज़ाहिर है कि उनका निधन हमारे लिए एक कितनी बड़ी निजी क्षति भी है। उन्हें हमारी आंतरिक श्रद्धांजलि। उनकी पत्नी, बेटे और सभी परिजनों के प्रति गहरी संवेदना।

अंत में हम फिर एक बार कहेंगे, नीलकांत जी एक व्यक्ति नहीं, एक सतत विचार थे। एक स्वातंत्र्यकारी प्रक्रिया जो मानव का सबसे बड़ा सत्य है।

अरुण माहेश्वरी

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