चार केंद्रीय श्रम संहिताओं के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आंदोलन : एक विश्लेषण

चार केंद्रीय श्रम संहिताओं के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आंदोलन : एक विश्लेषण

डॉ रामजीलाल 

 

भारत का संविधान श्रमिक  कानूनों के मूल स्रोत:

संविधान सभा की बहसें देश के संविधान के निर्माण की प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा थीं. 29 अप्रैल 1947 को सरदार वल्लभभाई पटेल ने संविधान सभा में मूल अधिकारों की समिति की अंतरिम रिपोर्ट  पर बहस करने के लिए प्रस्तुत की. इस चर्चा में बिना शस्त्रों के  शांतिपूर्ण  सभा करने की स्वतंत्रता, बोलने की आज़ादी, शांति से इकट्ठा होने का अधिकार और एसोसिएशन बनाने के अधिकार जैसे कई पहलू शामिल थे.

भारत का संविधान के अंतर्गत अध्याय तीन (मूल अधिकार)तथा अध्याय चार (राज्यनीति निर्देशक सिद्धांत) भारतीय श्रमिक  कानूनों के मूल स्रोत हैं और  श्रमिकों की रक्षा करते हैं:

भारत का संविधान के अंतर्गत अध्याय तीन (मूल अधिकार):

भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता अधिकार , अनुच्छेद  15  भेदभाव का निषेध, अनुच्छेद 16(1) सार्वजनिक नियुक्तियों में अवसर की समानता, अनुच्छेद 19(1) सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, अनुच्छेद 19 (बी) शांतिपूर्ण सभा का अधिकार, अनुच्छेद 19 (सी) संघ या संस्था बनाने का अधिकार और अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्ति की सुरक्षा का अधिकार है. अनुच्छेद 23 में शोषण के विरुद्ध अधिकार के अंतर्गत मानव तस्करी, मानव का क्रय-विक्रय,  बेगार इत्यादि पर प्रतिबंध लगाया गया है. अनुच्छेद 24 के अंतर्गत 14 वर्ष की से कम आयु के बच्चों को कारखानों, खदानों व जोखिम भरे  किसी प्रकार के कार्यों में नियुक्त करने का निषेध है . अन्य शब्दों में अनुच्छेद 23 और 24  व्यक्तियों को शोषण से बचाते हैं. भारत के संविधान के अंतर्गत अध्याय तीन में वर्णित अधिकार न्याय संगत है.

भारतीय संविधान के अध्याय IV में  राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 36-51) :

भारतीय संविधान के अध्याय IV में  राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 36-51) लेबर कानूनों और पॉलिसी को बनाने के लिए एक बुनियादी नींव का काम करते हैं. यह सरकारों को इन नियमों के आधार पर लेबर कानून और पॉलिसी बनाकर मज़दूरों की भलाई को बढ़ावा देने का निर्देश देता है, जिससे भारत में राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र भी स्थापित हो सके. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत  अर्थात यदि सरकार में को लागू न करें तो व्यक्ति नागरिक न्यायालय की शरण नहीं ले सकता.

श्रम के संबंध में, अध्याय IV में कई महत्वपूर्ण प्रावधान शामिल हैं:

ह सिद्धांत सरकार को श्रमिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु कानून बनाने में मार्गदर्शन करते हैं. इनमें अनुच्छेद 39  ( पुरुषों और महिलाओं समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार), अनुच्छेद 41 (काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता का अधिकार), अनुच्छेद 42 (न्यायसंगत और मानवीय कार्य परिस्थितियाँ और मातृत्व सहायता), और अनुच्छेद 43 (सभी श्रमिकों के लिए निर्वाह मजदूरी, उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी को बढ़ावा) मुख्य अनुच्छेद सम्मिलित हैं.

इनका विस्तृत विवरण अधोलिखित है:

1.अनुच्छेद 39  के अनुसार राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि  सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने  तथा पुरुषों और महिलाओं समान कार्य के लिए समान वेतन के अधिकार हैं.

 2.अनुच्छेद 41के अनुसार सभी व्यक्तियों को राज्य बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता की मामलों  में काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता के अधिकार के प्रावधान निर्मित करने हेतु निर्देशित  करता है.

3.अनुच्छेद 42: राज्य को “कार्य की न्यायसंगत और मानवीय परिस्थितियों” और “प्रसूति सहायता” के लिए प्रावधान निर्मित करने हेतु निर्देशित  करता है.

4.अनुच्छेद 43के अनुसार सरकार को कृषि और औद्योगिक श्रमिकों सहित सभी श्रमिकों के लिए जीविका मजदूरी, काम की सभ्य स्थिति और जीवन का एक सभ्य मानक सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान निर्मित करने हेतु निर्देशित  करता है.

5.अनुच्छेद 43(ए) उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी को बढ़ावा देने लिए प्रावधान निर्मित करने हेतु निर्देशित करता है.

               

केंद्रीय श्रम मंत्री मनसुख मंडाविया ने 21 नवंबर 2025 को चार केंद्रीय श्रम संहिताएं–मजदूरी संहिता, 2019, औद्योगिक संबंध संहिता, 2020, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य शर्तें संहिता, 2020 के कार्यान्वयन की घोषणा की. भारत सरकार के कथन के अनुसार इन चार संहिताओं में 29 श्रम कानून को संग्रहीत किया गया है.

श्रमिक संहिताओं कीमुख्य विशेषताएं– सभी क्षेत्रों में कार्यरत  सभी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य नियुक्ति पत्र, कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन का सार्वभौमिक वैधानिक अधिकार, समय पर वेतन   की गारंटी , एक साल की निश्चित अवधि के कर्मचारियों के लिये बेहतर ग्रेच्युटी ,    नौकरी अनुबंध,   अल्पकालीन अनुबंध पर काम करने वाले, गिग और प्लेटफॉर्म श्रमिकों को मान्यता देना, सार्वभौमिक स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा, सभी उद्योगों में महिलाओं के लिए नाइट शिफ्ट, प्रतिदिन 8 घंटे और सप्ताह में 48 घंटे तक कार्य समय सीमा ,   श्रमिकों की सहमति से ओवर टाइम का प्रावधान , ओवर टाइम की श्रमिकों  को दो गुणा मजदूरी का भुगतान इत्यादि हैं. इन सभी क्राइटेरिया को स्ट्रक्चरल बदलाव मे दिखाने वाला माना जाता है, जो उन श्रमिकों को पहचान और सुरक्षा देता है जो अभी तक कानूनी परिधि से बाहर थे.

महिलाओं से जुड़े कोड में  जेंडर इक्वालिटी पर ज़ोर दिया गया है.एक जैसे हालात में पुरुष और महिला श्रमिकों  को बराबर वेतन  व अन्य लाभ, श्रमिक बल (वर्क फोर्स ) में महिलाओं की सहभागिता में वृद्धि की सम्भावना इत्यादि  उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में एक अहम मील का पत्थर साबित होने की उम्मीद है.

 चार केंद्रीय संहिताओं के संबंध में प्रतिक्रियाएं :

 A.चार केंद्रीय श्रम संहिताएं—ऐतिहासिक,  कॉम्पिटिटिव व आत्मनिर्भर भारत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह दावा किया है कि आजादी के बाद यह श्रमिकों के हित में किया गया सबसे बड़ा रिफॉर्म है. यह देश के कामगारों को बहुत सशक्त बनाने वाला है. इससे जहां नियमों का पालन करना बहुत आसान होगा, वहीं ‘एज आफ डूइंग बिजनेस’ को बढ़ावा मिलेगा. केंद्र सरकार के अनुसार, नए लेबर कोड लागू करना एक “ऐतिहासिक” फ़ैसला है जो देश को” कॉम्पिटिटिव व आत्मनिर्भर” बनाएगा. उद्योगपतियों, कॉरपोरेट तथा वर्ल्ड बैंक, अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संघ(आईएलओ) इत्यादि ने इन लेबर कोड का स्वागत किया है तथा इनकों वर्तमान संदर्भ में उचित माना है. भारतीय जनता पार्टी(BJP) व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ(RSS) से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (BMS) ने इन कोड्स को मज़बूत ‘लेबर इकोसिस्टम’ की तरफ़ बढ़ने की दिशा में एक “बड़ा मील का पत्थर” संबोधित करते हुए स्वागत व समर्थन किया है.

B.चार केंद्रीय श्रम संहिताएं: श्रमिक विरोधी और कॉर्पोरेट हितैषी

दस प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के ‘संयुक्त मंच’ ने रॉलेट एक्ट (19 मार्च 1919) और तीन खेती के कानूनों (2020) जैसे मज़दूर विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक ‘काले लेबर कोड ‘की आलोचना की. दस प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच से, चार केंद्रीय श्रम संहिताएं को “श्रमिक-विरोधी और नियोक्ता-समर्थक” कहते हुए आलोचना करते हुए, इन्हें रद्द करवाने के लिए सरकार पर दबाव डालने के लिए 26 नवंबर, 2025 को राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन  किया.

ट्रेड यूनियन नए लेबर कोड को वापस लेने की मांग क्यों कर रहे हैं?

ट्रेड यूनियन नए लेबर कोड को वापस लेने की मांग तथा विरोध प्रदर्शन के मुख्य कारण अधोलिखित हैं:

प्रथम रोजगार की सुरक्षा कम तथा कर्मचारियों के ‘सामूहिक दबाव की बातचीत को कमजोर: औद्योगिक संबंध संहिता के अनुसार, 50 से कम कर्मचारियों को लेऑफ़ के लिए मुआवज़ा देने की ज़रूरत नहीं है. सिर्फ़ 300 से ज़्यादा कर्मचारियों वाली कंपनियों को काम के घंटे, वेतन अवकाश, लेऑफ़ को सस्पेंड करने और शिकायत, निवारण सिस्टम के बारे में लिखित आदेश जारी करने की ज़रूरत है. पहले यह नियम 100 कर्मचारियों तक वाली जगहों पर लागू था. इस नियम से सभी छोटी फर्मों में काम करने वालों का शोषण बढ़ेगा. श्रम संगठनों के लिए यह सर्वाधिक चिंता का विषय  है. क्योंकि उनका मानना है कि इन लेबर कोड्स से ‘रोजगार की सुरक्षा कम होगी’ तथा कर्मचारियों के ‘सामूहिक दबाव से बातचीत को कमजोर’ करती है. कुल मिलाकर इनका मुख्य उद्देश्य ‘नियोक्ताओं’ को लाभ पहुंचाना है.

द्वितीय,संविधान के अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार तथा अनुच्छेद  19 का उल्लंघन :भारत के संविधान केअनुच्छेद 19 के अनुसार, नागरिकों को संगठन या यूनियन बनाने का अधिकार है. लेकिन नए कोड के तहत, हड़ताल करने और यूनियन बनाने का अधिकार को लगभग खत्म करने की कगार पर ला खड़ा किया गया है. हड़ताल का नोटिस 60 दिन पहले देना ज़रूरी कर दिया गया है और इस 60 दिन के समय में, कर्मचारी सुलह की प्रक्रिया के दोहरान हड़ताल पर नहीं जा सकते. आलोचकों का मानना है कि श्रमिक संगठनों को बनाने और सामूहिक दबाव की कार्रवाई करने को अपराधीकरण करने का प्रयास है ताकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पूंजी को भारत के बाजार में आकर्षित किया जा सके और श्रमिक का शोषण होता रहे. दूसरे शब्दों में, यह न केवल “मज़दूर विरोधी” है बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार तथा अनुच्छेद  19 का “उल्लंघन” भी है.

तृतीय, महिलाओं के शोषण होने के खतरे बढ़ने की संभावना:  यद्यपि नये लेबर कोड़ में लैंगिक समानता पर बल दिया गया है तथा महिलाओं को सभी उद्धयोगों मे नाइट शिफ्ट में काम करने की इजाजत उनकी सहमति के आधार पर दी जा सकती है.परंतु महिलाओं को नाइट शिफ्ट में काम करने पर शोषण होने के खतरे बढ़ने की संभावना की चिंता है. भारत सरकार के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, भारत में सन् 2023 में महिलाओं के खिलाफ 4,48,211 अपराध दर्ज हुए, जो सन् 2022 के 4.45 लाख मामले से अधिक हैं. अहम सवाल यह है कि क्या ऐसी स्थिति में महिलाएं नाइट ड्यूटी पर सुरक्षित रह सकती हैं?

चतुर्थ, ‘न्यायपूर्ण और मानवीय’ परिस्थितियों के विरुद्ध:  पुराने श्रमिक कानूनों की भांति वर्तमान कोड़ में भी प्रतिदिन 8 घंटे और सप्ताह  में 48 घंटे काम के निर्धारित किए गए हैं. श्रमिकों का यह  सार्वभौमिक अधिकार है. परंतु श्रमिकों की सहमति से  ओवर टाइम करने स्वीकृति दी जा सकती है तथा ओवर टाइम में दो गुणा दर से वेतन दिया जाएगा.  ओवर टाइम श्रमिकों  के हित में नहीं है क्योंकि एक ओर उनके स्वास्थ्य बुरा प्रभाव पड़ेगा व दूसरी ओर परिवार के  प्रति दायित्वों को समुचित  निर्वाह नहीं कर सकेगा . प्रबंधकों के दबाव के कारण श्रमिक ओवर टाइम करेगें .परिणामस्वरूप रोजगार के नए अवसरों पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा. नई संहिताओं में 12 घंटे  कार्य दिवस को वैधता प्रदान करना निश्चित रूप में भारत के संविधान के चौथे अध्याय में वर्णित अनुच्छेद  42  के विरूद्ध है.क्योंकि यह अनुच्छेद ‘न्यायपूर्ण और मानवीय’ परिस्थितियों को कार्य के लिए अनिवार्य मानता है .

पंचम , युवा पीढी के भविष्य को अंधकारमय :इन नई श्रम संहिताओं में स्थाई रोजगारऔरसुरक्षा के अधिकार की अपेक्षा रोजगार की “नियत अवधि “को वैधता प्रदान करके युवा पीढी के भविष्य को अंधकारमय बनाना है. केवल यही नहीं अपितु नई कार्य संहिताएं ठेका श्रम (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम, 1970  को निष्प्रभावी कर देती हैं.

छटा, करोड़ों कामगार  सामाजिक सुरक्षा   के दायरे से बाहर: भारत सरकार का यह दावा है कि नयी संहिताओं से “सभी श्रमिकों को सुरक्षा” प्राप्त होगी . परन्तु सरकार का दावा सरकार द्वारा संग्रहित आंकड़ो़ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता.  इकोनामिक सर्वे वर्ष 2021-22 के अनुसार सन् 2019-20 में 43.99 करोड़ श्रमिक थे जो भारत के कुल कार्य बल का लगभग 81% शहरी व ग्रामीण  असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत है.वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण सन्  2021 -22के अनुसार 100 से कम रोजगार देने वाले भारत के कुल कारखानों  का 79.2% है. नई कार्य संहिताएं इन कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिक ‘सामाजिक   सुरक्षा’ की परिधि से बाहर है.

संक्षेप में सांझा मंच के द्वारा भारत के राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को सौंपें गए ज्ञापन के अनुसार ‘‘ये संहिताएं हमारे हड़ताल करने के अधिकार को खत्म करती हैं, यूनियन पंजीकरण के काम को मुश्किल बनाती हैं, यूनियनों की मान्यता खत्म करना आसान बनाती हैं, सुलह और फैसले की प्रक्रिया को मुश्किल बनाती हैं, श्रम अदालतों को बंद करती हैं और कामगारों के लिए न्यायाधिकरण लाती हैं, रजिस्ट्रार को यूनियनों का पंजीकरण खत्म करने की पूरी शक्ति देती हैं.”

यही कारण है कि चार नए श्रम संहिताओं को वापस लेने पर प्राथमिक ध्यान केंद्रित करते हुए देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आयोजित किए.

दस प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के ‘संयुक्त मंच’ और समर्थक 40किसान संगठनों  की मुख्य मांगें:

कर्मचारी यूनियनों और समर्थक किसान संगठनों  की मुख्य मांगें निम्नलिखित हैं:

1.श्रम संहिताओं को निरस्त करना: चार नई श्रम संहिताओं को तत्काल निरस्त किया जाए,  क्योंकि ये संहिताएं श्रमिकों के अधिकारों को नकारती हैं, “नौकरी दो और निकाल दो”( Hire andFire) की नीतियों को बढ़ावा देती हैं, तथा यूनियन पंजीकरण और हड़ताल को और अधिक कठिन बनाती हैं.

2.न्यूनतम वेतन वृद्धि: ₹26,000 प्रति माह का राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन और 60 वर्ष की आयु में ₹10,000 की न्यूनतम मासिक पेंशन का कार्यान्वयन;

3.सामाजिक सुरक्षा: संगठित, असंगठित और कृषि क्षेत्र के श्रमिकों सहित सभी श्रमिकों के लिए व्यापक सामाजिक सुरक्षा लाभ;

4.आकस्मिकीकरण का अंत: सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों में स्थायी नौकरियों के आकस्मिकीकरण, आउटसोर्सिंग और संविदाकरण का अंत, और 65 लाख (6.5 मिलियन) रिक्त सरकारी पदों को भरना;.

  1. निजीकरण को रोकें:सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) और रक्षा, रेलवे, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण को रोकें और राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) को समाप्त करें;

6.मूल्य नियंत्रण और पीडीएस: मूल्य वृद्धि को रोकने, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को मजबूत करने और सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा सुनिश्चित करने के उपाय;

8.किसानों की मांगें: संयुक्त विरोध प्रदर्शन में किसानों की मांगें भी शामिल थीं, जिनमें C2+50% फार्मूले के आधार पर सभी फसलों के लिए कानूनी रूप से गारंटीकृत न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), व्यापक ऋण माफी , कृषि पंपों के लिए मुफ्त बिजली , चार नई श्रम संहिताओं , इलेक्ट्रिसिटी बिल 2025, सीड बिल 2025, NPFAM और नेशनल कोऑपरेटिव पॉलिसी को रद्द करना और मज़दूरों और किसानों को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी FTA पर रोक लगाना शामिल हैं.

इनके अतिरिक्त मनरेगा व अखिल भारतीय विद्युत अभियंता महासंघ (एआईपीईएफ) की मांगें भी हैं..

राष्ट्रव्यापी  सामान्य आन्दोलन (26 नवंबर 2025): संक्षिप्त विवरण

 A.राष्ट्रव्यापी  सामान्य आन्दोलन का समर्थन वाले मुख्य दस संगठन व  संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) :सांझा विरोध मंच’

सामान्य हडताल का समर्थन वाले दस मुख्य संगठनों के ‘सांझा विरोध मंच’ में  दस सेंट्रल ट्रेड यूनियनों (सीटीयू) – भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (आईएनटीयूसी), अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी), अखिल भारतीय यूनाइटेड ट्रेड यूनियन केंद्र (एआईयूटीयूसी), हिंद मजदूर सभा (एचएमएस), भारतीय ट्रेड यूनियंस केंद्र (सीआईटीयू), ट्रेड यूनियन समन्वय केंद्र (टीयूसीसी), स्वरोजगार महिला संघ (एसईडब्ल्यूए), अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियंस परिषद (एआईसीसीटीयू), श्रम प्रगतिशील महासंघ (एलपीएफ), और यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (यूटीयूसी), अखिल भारतीय विद्युत अभियंता महासंघ (एआईपीईएफ) के अतिरिक्त 40 किसान यूनियनों के गठबंधन, संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) की भूमिका भी अग्रणीय थी.हम अपने प्रबुद्ध पाठकों को यह याद  दिलाना चाहते हैं कि किसान आंदोलन (सन् 2020-21) में ट्रेड यूनियनों के द्वारा भी  ऐतिहासिक सक्रिय भूमिका निभाई गई थी .

 B.राष्ट्रव्यापी  सामान्य आन्दोलन का समर्थन वाले राजनीतिक दल:

दस प्रमुख केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच के अतिरिक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया(मार्क्सवादी) कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया,भाकपा (माले)व अन्य वाम दलों ने इनकों श्रमिक विरोधी कह कर आलोचना की है. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिय(मार्क्सवादी) ने लेबर कोड को तुरंत वापस लेने की मांग करते हुए कहा कि इन लेबर कोड्स का निर्माण करते समय सभी स्टेक होल्डर्स विशेष तौर से तीन तरफा सलाह के बिना डेमोक्रेटिक और फेडरल नियमों को ताक पर रख  दिया तथा इनके विरुद्ध आपत्तियों को खारिज करके निर्मित किया गया. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिय(मार्क्सवादी) उनकी आलोचना करते हुए कहा:

”लेबर कोड उन 29 लेबर कानूनों को खत्म कर देते हैं जो कई सीमाओं के बावजूद, कुछ हद तक मज़दूरी, काम के घंटे, सोशल सिक्योरिटी, इंडस्ट्रियल सेफ्टी, इंस्पेक्शन-कम्प्लायंस सिस्टम और कलेक्टिव बारगेनिंग मौजूद थे. नए कोड लंबे समय से चले आ रहे अधिकारों और हकों को कमज़ोर और खत्म करने की कोशिश करते हैं और बैलेंस को तेज़ी से मालिकों के पक्ष में कर देते हैं। कोड मज़दूरों को कैपिटल के हमले के सामने असुरक्षित छोड़ने के लिए बनाए गए हैं। ये उनका मकसद यह पक्का करके नेशनल और इंटरनेशनल कैपिटल को लुभाना है कि लेबर राइट्स के अलग-अलग पहलुओं को कवर करने वाले सभी काम के रेगुलेशन खत्म कर दिए जाएंगे। इसके अलावा, वे हड़ताल करने का अधिकार छीनना चाहते हैं और वर्किंग क्लास के किसी भी कलेक्टिव एक्शन को क्रिमिनल बनाना चाहते हैं”.)

C.समान्य विरोध से राष्ट्रीय सामान्य आन्दोलन में परिवर्तित: 500 जिलों में सफलता

ग्रामीण स्तर से लेकर इन 4 नई श्रमिक संहिताओं का विरोध करने हेतु किसानों,खेत मजदूरों ,विभिन्न क्षेत्रों मे कार्यरत श्रमिकों और कर्मचारियों को  लामबंद किया गया तथा 26 नवंबर 2025 को यह विरोध प्रदर्शन  के रूप मेंशुरू होकर राष्ट्रीय सामान्य आन्दोलन में परिवर्तित हो गया.  केंद्रीय ट्रेड यूनियनों व 40 किसान संगठनों के  संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) के द्वारा 500 जिला स्तरों पर धरनों व प्रदर्शनों का आयोजन किया गया . प्रदर्शनकारियों के हाथों में झंडे और बाजू पर काली पट्टियां बंधी हुई थी और नये चारों कोड्स  को निरस्त करो व अन्य उदघोष  गू्ंज रहे थे . इन चारों नई संहिताओं को सब जगह जलाया गया. राष्ट्रव्यापी आंदोलन शांतिपूर्ण रहा और समाचार पत्रों में किसी प्रकार के हिंसा तोड़फोड़ अप्रिया घटना की खबर प्रकाशित नहीं हुई . त्रिपुरा में सत्ताधारी दल के समर्थकों के द्वारा प्रदर्शनकारियों पर जानलेवा बर्बर हमले निदंनीय हैं. ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की महासचिव अमरजीत कौर के अनुसार यह राष्ट्रव्यापी आंदोलन भारत के 500 जिलों में प्रभावित रहा .इसको सफल बनाने में लाखों किसानों,खेत मजदूरों ,बैंक कर्मचारियों , बिजली कर्मचारियों , जल आपूर्ति कर्मचारियों  , शिक्षकों व गैर- शिक्षक कर्मचारियों , खदानों में कार्यारत कर्मचारियों ,  महिलाओं,युवकों व युवतियों ने भाग लिया .

संक्षेप में,मज़दूर वर्ग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. इसलिए, सरकार को उनके फ़ायदे के लिए लेबर कोड में बदलाव करना चाहिए. मज़दूर वर्ग को वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्था के बारे में भी जागरूक करने और ग्लोबलाइज़ेशन, प्राइवेटाइज़ेशन और लिबरलाइज़ेशन के ख़िलाफ़ लोगों की राय बनाने की ज़रूरत है. इस दिशा में अग्रसर होकर हम शोषण, बेरोज़गारी और भूख से मुक्त समाज, आत्मनिर्भर व विकसित भारत का निर्माण कर सकते हैं.

लेखक सामाजिक वैज्ञानिक और दयाल सिंह कॉलेज,करनाल (हरियाणा) के पूर्व प्राचार्य हैं।

 

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