ऋत्विक घटक का साक्षात्कारः
भाग 6 (अंतिम भाग)
मेरी धारणा टूटी कि सिर्फ़ पैसा होने से ही फिल्म बनाई जा सकती है
मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है
ऋत्विक घटक
मनुष्य के सोने का ढंग बदल गया है, मनुष्य का मन बदल गया है, मनुष्य की आत्मा ही बदल गई है, कौड़ी- रुपए की समस्या, खाने-पीने की समस्या, गरीबी वहां भी है। चोरी-छिछोरी, बदमाशी वहां भी है,यहां भी है। यहां पर जो चोरी-छिछोरी बदमाशी तथा बम आदि को लेकर होती है। इस मामले में वहां एक सुविधा हो गई है, याहिया खान की सेनायें प्रचुर मात्रा में हथियार छोड़ गई हैं। पर दोनों जगह समस्या एक ही है, मनुष्यों का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है। अतीत के साथ नाल-नाड़ी का संबंध पूरी तरह कट चुका है। हाँ, आशा की बात यह ज़रूर है कि कुछ तरुण लड़के अभी-अभी विश्वविद्यालय में भर्ती हुए हैं या वहां से निकले हैं अथवा निकलने वाले हैं, ऐसे सब लड़कों में एक प्रचंड बोध, गहन सजगता का भाव आ गया है, अपनी परंपरा और ऐतिह्य के प्रति। उन्हीं का भरोसा है, वहां पर जो कुछ भी अच्छा है वह सभी इन्हीं की देन है, इन्हीं का योगदान।
यह फिल्म (तिताश) बनाते समय वैसा कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ । आर्थिक दृष्टि से जब जो मैंने मांगा, इन लोगों ने दिया। अचरज भरी घटना, एक तरह की शिक्षा ही मिली, कहा जा सकता है। कलकत्ता की इस लालची जगह पर रहकर मेरी एक धारणा बन गई थी फिल्म बनाने के मामले में पैसा ही एकमात्र समस्या होती है, पैसे की समस्या सुलझा ली जाए तो फिर फिल्म के मामले में निश्चिंत हुआ जा सकता है। पहली बार मुझे यह अनुभव हुआ कि सिर्फ पैसा होने से ही फिल्म नहीं बनाई जा सकती। वहां पर यंत्र आदि उपकरणों, फिल्म का अभाव इस तरह की कितनी असुविधाएं हैं, टेक्नीशियन के अलावा कितना कष्ट है, इसे कोई समझेगा नहीं जो कार्यकर्ता है वही इसे समझ सकते हैं। असुविधा यहां भी है। मैंने कलकत्ता, मुंबई, पुणे सभी जगह फिल्में बनाई हैं। क्या एडिटिंग क्या सुविधाएं हैं, इसे मैं जानता हूं, किंतु सारी असुविधाएं वहां 100 गुना बढ़-चढ़कर हैं। यंत्र चाहिए, यंत्र नहीं है, एडिटिंग रूम चाहिए, नहीं है, मिल भी नहीं सकता है। ऐसी बढ़िया चमकदार सुंदर मशीनें हैं वहां पर, जिन्हें मैंने अपने बाप के जन्म में भी नहीं देखी कैमरे के जो लेंस है वहां, उन्हें भी मैंने अपने बाप की जन्म में नहीं देखा, किंतु गलत ढंग से उपयोग की वजह से ऐसा कांड हो गया है कि अब उनका सही ढंग से प्रयोग ही नहीं किया जा सकता है परिणाम यह हुआ कि हर दिन प्रचंड विपदा और असुविधाओं का सामना हम लोगों को करना पड़ा।
वहां फिल्म प्रोडक्शन के अन्नान्य कुशल कारीगरों, कलाकारों, शिल्पियों ने प्राण- पण का सहयोग किया । अपनी तरफ से उन लोगों में से हर एक ने जो संभव था वह सब किया। फिल्म प्रोड्यूसर भी युवा था बहुत बड़े आदमी का लड़का, इन सभी कामों में वह कभी गुस्सा नहीं। फिल्म के संबंध में उसकी धारणा यह थी कि ऋत्विक दा एक फिल्म बनाएंगे, पूरी होने के बाद वातानुकूलित हाल में बैठकर देखूंगा। फिल्म बनाने का अर्थ है एक वर्ष का घोर परिश्रम, यह उसकी धारणा में था ही नहीं। रुपया दे दिया है, ऋत्विक दा फिल्म बनाएंगे, फिल्म रिलीज़ होने के बाद हाल में बैठकर फिल्म देखूंगा। पैसा मिला न मिला, पानी में बह गया, फिल्म चले न चले इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं, फिल्म अच्छी बननी चाहिए। ऐसा युवक मुझे पहले नहीं मिला था। कुशल कलाकारों, शिल्पियों सभी ने कोशिश की, सभी ने खूब मेहनत की। सभी जगह कुछ न कुछ दुष्ट बुद्धि के लोग होते हैं, वहां भी थे।
मेरे इस फिल्म बनाने के मामले में, पूर्वी बंगाल के लोगों ने मुझसे कहा था कि भारत से सिर्फ आप आएंगे। मैंने कहा – एक असिस्टेंट डायरेक्टर भी है। उन लोगों का कहना था वह नहीं चल पाएगा। मैंने कहा ठीक है मैं वही करूंगा इसका फल यह हुआ कि मुझे बहुत असुविधा हुई । धीरे-धीरे वहां के युवकों को तैयार कर मैंने उस असुविधा से मुक्ति पाई। कुछ लड़के बहुत अच्छे थे, उन्होंने जी तोड़ मेहनत की, खूब सहयोग किया था। कुछ लड़कों ने सहयोग नहीं भी किया था। अखबार वालों ने पहले मुझे अच्छी नज़र तो नहीं देखा, शुरुआत में संगठित होकर मेरे बारे में बिरूप मन्तव्य प्रकाशित किया था। इस फिल्म में 10 -12 महिलाओं की लगातार भूमिका थी। इन महिलाओं के सामने शराब पीने को लेकर भयंकर बातें उठ सकती थी । पर मेरे हाव-भाव, चलना- फिरना, उठना -बैठना फिल्म बनाना, मेरा ढंग, कार्य प्रणाली सब कुछ उन लोगों ने देखा था । वे समझ गए कि शराब पीना ही सब कुछ नहीं है। उसके बाद शूटिंग के समय कुछ गड़बड़ नहीं होती है तब मेरे संबंध में उन लोगों की धारणा बदल गई और विरोध के बदले एक प्रीति का संबंध बन गया। अखबार वालों के साथ भी। वहां की फिल्म के लोगों ने भी कुल मिलाकर मुझे स्वीकार कर लिया।
मैं अंतिम रूप से इस फिल्म में काट- छांट नहीं कर सका, फिल्म कैसी बनी मैं नहीं जानता, मैंने देखा नहीं है। कई लोगों का कहना है की फिल्म का संपादन खराब हुआ है । अखबारों में निकली दो चार संख्याएं पढ़ी हैं पक्ष में हैं और बड़ी विगलित भाषा में प्रशंसा है।
एडिटिंग के संबंध में मैं बतला आया था, किंतु उससे क्या होता है। फिल्म निर्देशक किसी की कहानी खरीदता है, फिर किसी से पटकथा लिखवाता है, स्वयं निर्देशन देता है और निर्देशक का अर्थ होता है कि वह ज़मीन पर खड़ा रहता है, स्टार्ट तथा कट करता है। कैमरामैन कैमरे को तैयार रखता है, संगीत निर्देशक, संगीत सहायक यह सब काम करते हैं। एडिटर एडिट करता है। हम लोग स्रष्टा हैं – चित्रस्रष्टा।
फिल्म पहले इंच से लेकर अंतिम तक मेरी संतान होती है। अपनी संतान से जिस तरह प्रेम करते हैं फिल्म को मैं वैसे ही प्यार करता हूं, इसलिए उसे काटा नहीं, काटकर यह नहीं देखा कि कैसी बनी है और क्या परिणाम हुआ है, अखबार में पढ़ा है अथवा अन्य लोगों से सुना है कि उसकी एडिटिंग खराब हुई है। जो लोग आलोचना कर रहे हैं उन्हें भी मैं खूब जानता हूं। वे शायद, थोड़ी गड़बड़ी देखकर उसे विराट रूप दे रहे हैं, जनता की प्रतिक्रिया शुरुआत में धमाकेदार थी, ऋत्विक घटक की फिल्म जैसी बन सकती है यथारीति वैसी ही बनी है, दस आना, छह आना खाली है, एकदम फ्लॉप, शिक्षित लोग फिल्म देख रहे हैं, किन्तु रुपया नहीं आ रहा है। एक तरह से बंधा व्यापार है।
इस फिल्म में समकालीन जीवन का कोई न कोई संकेत है। न चुनी हुई कहानी का हूबहू अनुसरण किया है। यह संभव नहीं था। अद्वैत बाबू (अद्वैत मल वर्मन) की कहानी का सहारा लिया है, ऐसा कहा जा सकता है । यह फिल्म मुझे बहुत आनंददायी लगी है। उसके यहां आने की बात चल रही है, अगर आती है तो मैं फिर से उसमें काट-छांट करूंगा। उसे संपादित करूंगा और उसकी फिर से रिकॉर्डिंग कर डालूंगा। तब आप देखेंगे कि शिशु जैसे सरल मन से यह फिल्म बनाई गई है। अद्वैत बाबू के लिए जो स्वाभाविक था, वहीं उन्होंने किया है। उन्होंने इस कहानी का अन्त ऐसे पतन में किया है कि सब कुछ नष्ट होकर चूर-चूर हुआ जा रहा है। उस स्थान पर मैंने अपने राजनीतिक विचार को व्यक्त किया है। उसकी जगह मैंने नए जीवन का संकेत देकर फिल्म का अंत किया है, इसे मार्क्सवाद कहा जा सकता है, मानवतावाद कहा जा सकता है, राजनीति कहा जा सकता है और नहीं भी कहा जा सकता है।
फिल्म सोसाइटी आंदोलन की भूमिका निश्चय ही अच्छी है, फिर अच्छी और बुरी दोनों है। फिल्म सोसाइटी आंदोलन की वजह से इस देश के लोग देश और विदेश की बहुत सी फिल्मों को देख पा रहे हैं। इस सोसाइटी में बहुत से विचारशील लोग, छात्र, युवक तथा अन्य तरह के लोग भी हैं। लोग इन सब फिल्मों को देख रहे हैं, उनकी समझ में आ रहा है कि फिल्में कोई फेंकने योग्य मामला नहीं हैं। साहित्य की अपेक्षा फिल्मों के माध्यम से बहुत कुछ कहा जा सकता है और फिल्म शिल्पियों ने कहा भी है। इसके फलस्वरूप लोगों में फिल्मों के प्रति नया बोध जाग रहा है, धीरे-धीरे उनकी रुचि में बदलाव आ रहा है।
इससे उत्साहित होकर फिल्म बनाने का हमारा साहस बढ़ रहा है और इसके पहले जिन तरुण श्रोताओं की बात मैंने कही थी, उनमें फिल्मों के प्रति जो प्रबल आग्रह पैदा हो गया है। उस मामले में फिल्म सोसाइटी आंदोलन का योगदान बहुत बड़ा है। उस दृष्टि से इसको स्वीकार करना चाहिए। इसकी खराब बात यह हुई कि सेंसरशिप उठ जाने से कुछ अयोग्य और छद्म लोगों की भीड़ इसमें लग गई है। मैं विशेष रूप से फिल्में नहीं देखता हूं, फिर भी इन सब फिल्मों में जो लोग सहायक होते हैं, उनसे सुना है कि इन फिल्मों को देखने के लिए जो भीड़ लगाते हैं, वे लोग कलात्मक फिल्में नहीं चाहते। फिर भी इससे बचा नहीं जा सकता है, अच्छे के साथ कुछ खराब फिल्में रहेंगी ही।
कलकत्ते में तीन तरह के फिल्म समीक्षक हैं। एक हैं तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों के, इनके फ़िल्म समीक्षक जिन्हें मोटा-मोटा वेतन मिलता है, और एक होते हैं हर बात का गलत अर्थ लगाने वाले पत्रकार – तड़क-भड़क वाली खबरों के प्रति इनका उत्साह रहता है, अधिकांश अभिनेता- अभिनेत्रियों से संबंधित समाचार देते रहते हैं और तीसरी श्रेणी के वे पत्रकार होते हैं, जो फिल्म सोसाइटी के आसपास के ही होते हैं जो पत्र पत्रिकाएं निकलते हैं, फिल्मों को गंभीरता से लेने का प्रयास करते हैं। इनमें दो ग्रुप होते हैं, इनके बारे में कुछ कहने से लाभ नहीं है।
छोटी-छोटी अनेक पत्रिकाएं निकलती हैं, सुना है इनमें बीच-बीच में मेरे लेख भी निकलते रहते हैं, मुझसे लेख ले भी जाते हैं। पर सच कहने में कोई हर्ज नहीं है, मैं पत्रिकाएं अधिक पढ़ता नहीं हूं। वैसे भी मैं बहुत अधिक पढ़ता नहीं हूं। फिर भी अपने सीमित अनुभव से मैं कह सकता हूं कि इन सब पत्रिकाओं की भूमिका अत्यंत प्रगतिशील है। बीच-बीच में कई रचनाएं देखता हूं, जिनमें कच्चे तारुण्य का भावोत्व्छास रहता है। मेरा कहना है फिर वह चाहे गलत हो या ठीक, इस तरह का बचपन कुछ बच्चों में रहता ही है । वे लोग अत्यंत सहज स्थिति में हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है। फिर युवावस्था का यही लक्षण, यही धर्म होता है। समय-समय पर अच्छी रचनाएं भी नज़र आती हैं। बहुत गंभीर लेख।
देश-विदेश में अच्छी-अच्छी विभिन्न तस्वीरें, अच्छी फिल्में, फिल्म जगत के विभिन्न शिल्पी फिल्म के क्षेत्र में जो सब प्रयोग परीक्षण कर रहे हैं, उनके साथ फिल्म सोसाइटी से जुड़े लोगों का परिचय भी वे कराते जा रहे हैं। इन सबको लेकर लेख, फिल्मों की आलोचना, विद्वानों के मतों के उद्धरण देना, इन सबको मिलाकर एक पाठक वर्ग तैयार हो रहा है, वे समझ जाते हैं कि कौन फिल्म ठीक है, कौन गलत है, कौन असली है और कौन नकली है। इस दृष्टि से फिल्म सोसाइटी का निश्चय ही एक अवदान है।
बीमारी से अच्छे हो जाने के बाद मैं ‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’ को समाप्त करूंगा और ‘तिताश’ की एडीटिंग करूंगा।
अन्य फिल्में बनाने के बारे में एकदम तो कुछ सोच नहीं सोच रहा हूं। फिर भी फिल्में तो बनती रहेंगी। बनाते जाना होगा क्योंकि पेट को तो दाना- पानी देते रहना होगा। फिल्में बनाने के अलावा और मैं कौन-सा काम जानता हूं। उम्र भी तो मेरी 50 के लगभग पहुंच रही है। समाप्त