खुद से कई सवाल 

अमित दत्ता एक भारतीय प्रयोगात्मक फिल्म निर्माता और लेखक हैं। उन्हें प्रयोगात्मक सिनेमा के सबसे महत्वपूर्ण समकालीन चिकित्सकों में से एक माना जाता है, जो भारतीय सौंदर्य सिद्धांतों और व्यक्तिगत प्रतीकवाद पर आधारित फिल्म निर्माण की अपनी विशिष्ट शैली के लिए जाने जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी छवियां बनती हैं जो दृष्टिगत रूप से समृद्ध और ध्वनिक रूप से उत्तेजक होती हैं। उनकी कृतियाँ ज़्यादातर कला इतिहास, नृवंशविज्ञान और सिनेमा के माध्यम से सांस्कृतिक विरासत के विषयों से संबंधित हैं। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है जिसे राजकमल प्रकाशन और रजा फाउंडेशन ने प्रकाशित किया है। रजा फाउंडेशन की पत्रिका समास के 2018 के अंक में खुद से कई सवाल’ (इसे उन्होंने नोटबुक कहा है) प्रकाशित किया गया। सिनेमा के पाठकों को लेख पसंद आएगा। इसे हम आभार सहित कड़ियों में प्रकाशित कर रहे हैं। संपादक   

 

पहली कड़ी

खुद से कई सवाल

एक भारतीय फिल्म छात्र की नोटबुक

अमित दत्ता

मैं सिर्फ एक बात जानता हूं कि मैं कुछ नहीं जानता 

-सुकरात

हर किस्म की कला के लिए एक शाश्वत सवाल उठता है-‘क्यों?’। यह सवाल हमेशा बना रहेगा। कलाओं को संचालित करने वाले नियमों के अनुसार इसका जवाब हर कलाकार के भीतर से आना चाहिए। आलिया दिनों में ऐसा दिखाई देता है की तकनीक कल के नवाचारों से आगे निकली जा रही है और कला उसकी रफ्तार को पकड़ने की कोशिश में बदहवास सी दौड़ रही है , हांफ रही है। हम सिनेमा की इस यात्रा में चाहे कितना भी आगे आ चुके हों, डिजिटल तकनीक ने इसके लिए कई और रास्ते भी खोल दिए हैं। अब आप बड़े शहरों से दूर, छोटे गांव में रहते हुए भी फिल्म बना सकते हैं। दूसरी कलाओं में भी ऐसा हुआ है, मसलन रिकॉर्डिंग तकनीक ने ग्लेन गोल्ड जैसे कलाकारों को फलने – फूलने का नया वातावरण दे दिया है जो एक पारंपरिक प्रदर्शनकारी कल के माध्यम से एक व्यक्ति की तरह खुलकर सोचने के स्वाभाविक अंतर्विरोधों से जूझ रहे थे, उस कला के प्रदर्शनकारी हिस्से को ही लगभग बाईपास करते हुए। अब, क्या हम इस बात की समीक्षा कर सकते हैं की सत्य की खोज में सिनेमा किस हद तक एक व्यवहारिक उपकरण की तरह उपयोग में आ सकता है ? धन और मानवीय संबंधों ने हमेशा फिल्म निर्माण की प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया है लेकिन तकनीक के कारण इन सब की अनिवार्यता अब धीरे-धीरे कम हो रही है, इससे कलाकार को अंतर यात्रा के लिए अधिक समय और अवकाश मिल रहा है। फिल्म बनाना अब कहीं अधिक निजी और अधिक अंतरंग हो गया है। वह एक दर्शक, कम से कम एक असली दर्शक , की सोच के दायरे से बाहर घटित हो रहा है। इसमें कमाने के लिए कोई पैसा नहीं है, न ही कोई बहुत शोहरत। फिर फिल्म कर के पास क्या पारितोषिक बचता है? मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इसका जवाब है- ‘प्रक्रिया’ । अपनी फिल्म को और ज्यादा गहराई से, और ज्यादा अंतरंगता से जिया जा सके इस बात की संभावना बढ़ गई है। फिल्मकार जिस तरह का विषय च है फिल्म बनाते समय जिस तरह की किताब में पढता है जो बातें सीखता है और जो विचार उसके मन में आते हैं, वे सब उसे फिल्म को बनाने के महत्वपूर्ण कारण बन जाते हैं। सिनेमा एक तरह से संस्कृति, इतिहास, संगीत, सौंदर्य और अंततः सत्य (?) की तलाश और अध्ययन का नया रास्ता बन जाता है।

वास्तविक स्वतंत्रता सिनेमा क्या है? सबसे पहले तो सिनेमा को उसकी आत्म-छवि से स्वतंत्र करने की जरूरत है, और उसके बाद ही उसे वह स्वतंत्रता मिल पाएगी, जिसे हम पूरी स्वतंत्रता के साथ समझ सकते हों । इसके लिए उसे खुला होना होगा, कला के अन्य रूपों के प्रति खुला हुआ। हाल के दिनों में, अधिकतम सिनेमा गद्य की तरह रचा जाता है, वह उपन्यास के बहुत करीब है और उसका पठन भी लगभग उसी तरह होता है। कल के एक अपेक्षाकृत युवा रूप, सिनेमा को हम समय से पहले बुढ़ाते हुए देख रहे हैं? भारतीय सौंदर्यशास्त्र की मूल परंपरा, कला के हर रूप को एक आधारभूत सात्विक सातत्य की अवस्था में देखती है। और फलस्वरूप कला के एक रूप की समझ, दूसरे रूपों की समझ के बिना पूरी तरह नहीं बन पाती। क्या हम सिनेमा के बारे में उसी तरह सोच सकते हैं जैसे संगीत और पेंटिंग के बारे में, क्या संपादन को उस तरह सोच सकते हैं जैसे समय और अवकाश, टाइम और स्पेस के दृष्टिकोणों के बारे में सोचते हों? कल के अन्य रूपों की तरह सोचना यानी अक्षरशः वैसा ही सोचना नहीं, बल्कि एक काव्यात्मक तरीके से सोचना। इसके बाद संभावनाएं विस्तृत हो जाती हैं तब हम सिनेमा को शतरंज की तरह भी सोच सकते हैं ‘बस्ता’ या ‘ज्योतदान’ की तरह भी : एक गंभीर छात्र द्वारा बनाई गई पेंटिंग के एल्बम की तरह, जिन्हें आपस में अनिवार्य अभ्यास और निरंतर बढ़ाने वाली रुचि का एक धागा जोड़ता हो।

जिस तरह लोग सिनेमा घरों में अपने मोबाइल फोन लेकर जाते हैं उससे सिनेमा देखने का सामूहिक अनुभव लगातार दुर्बल होता जा रहा है, खंडित निजी दुनियाओं से सिनेमाई दुनिया भी खंखरी और झिरझिरी हो रही है। दूसरी तरफ अगर हम संगीत को एक किताब की तरह पलट सकते हैं, उसे देह के विस्तार की तरह सुन सकते हैं, तो हम उसी तरह सिनेमा को भी पलट सकते हैं। पहले डीवीडी, और अब लैपटॉप के कारण सिनेमा दर्शकों के एकदम निजी दायरे के भीतर आ गया है। सिनेक्रिचर (सिनेमा को लिखना) के कारण फिल्मकार को सिनेमा के लेखक की तरह देखा जाना संभव हो गया है, यही समय है कि दर्शक भी फिल्म देखने के अपने अनुभव को पूरी तरह नियंत्रित कर सकता हो। ऐसे समय में जब कुछ लैपटॉप्स को ‘नोटबुक’ कहा जाने लगा है, लैपटॉप पर फिल्म देखने की इस आदत को, फिल्मकार को गंभीरता से लेना ही होगा। अगर ऐसा हो तो फिल्मकार अपनी फिल्म की लंबाई सूचनाओं की प्रगाढ़ता (या विरलता) संरचना समेत कई चीजों की चिंता करना छोड़ सकता है। वह अपनी रचना में अपनी मर्जी से लौटकर इन चीजों को ठीक कर सकता है। सिनेमा जिस की समय की कला कहा जाता है, अब ठीक उसी तरह समय से नहीं जुड़ा रह गया। सिनेमा छवि के भीतर तो स्पेस भी एक ‘नैविगेबल’ जगह बन गया है अब उसमें हाइपरलिंक्स और फुटनोट्स भी लगाए जा सकते हैं । असल में, अब फिल्मकार के लिए एक अनंत, अक्षय, असमाप्त सिनेमा बनाने की संभावना पहले से कई गुना बढ़ गयी है। क्रमशः

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