मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है- पार्टः 1

ऋत्विक घटक का जन्म 4 नवंबर 1925 को पूर्वी बंगाल के पावना जिले नये भारंगा में हुआ था। उनके पिता का नाम सुरेश चंद्र था। वह ख्यातिप्राप्त चलचित्रकार थे। ऋत्विक घटक ने राजशाही कालेज से अंग्रेजी साहित्य में आनर्स किया था। वे जब पढ़ रहे थे तो कहानियां लिखनी शुरू कर दी थीं और कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उन्होंने विमल राय के सहयोगी के रूप में सिनेमा निर्माण की प्रक्रिया में पदार्पण किया। उन्होने अपनी पहली फिल्म का ‘नागरिक’ का निर्देशन 1952 में किया। ‘बाड़ी थेके पालिए-1957’, ‘मेघे ढाका तारा- 1959’, ‘कोमल गन्धार-1960’, ‘सुवर्ण रेखा-1962’और जुक्ति तक्को गप्पो उनकी कालजयी फिल्में हैं। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में रहते हुए उन्होंने मणि कौल, कुमार साहनी और जॉन अब्राहम को फिल्म कला में दीक्षित किया। ऋत्विक घटक 1973 में कलकत्ता में तपेदिक अस्पताल में इलाज करा रहे थे, उस समय उनसे एक साक्षात्कार लिया गया था। यह चित्रनाट्य पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उस इंटरव्यू का कुछ अंश का अनुवाद प्रतिबिम्ब मीडिया में किस्तों में प्रकाशित कर रहे हैं। इसका अनुवाद किया है रामशंकर द्विवेदी ने। समास -16 से साभार।

इंटरव्यू

मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है- पार्टः 1

ऋत्विक घटक

मेरे सिनेमा के संसार में आने के कई कारण थे। मेरे मझले भाई की मृत्यु हो गई थी, वे इस देश के पहले टेलीविजन विशेषज्ञ थे। मंझले भाई ग्रेट ब्रिटेन में डाक्यूमेंट्री कैमरामैन के रूप में छह वर्ष काम करने के बाद 1935 में देश लौट आए थे और न्यू थियेटर्स में शामिल हो गए थे। सहगल, काननवाला की फिल्म में ‘स्ट्रीटसिंगर’ में उन्होंने कैमरामैन के रूप में काम किया था। इसी तरह की कई और फिल्मों में उन्होंने काम किया।

मंझले दादा की वजह से मैंने बचपन में ही यह देखा है कि बरुआ साहब से लेकर विमल राय तक फिल्म से जुड़ी कई हस्तियां अक्सर मेरे घर आती-जाती रहती थीं। इसका असर यह हुआ कि मेरे घर में उस ज़माने की शुरुआत से ही फिल्म की आबोहवा या परिवेश तैयार हो गया था और सभी लोग जिस तरह की फिल्में देखते हैं, मैं भी इनकी वैसी ही फिल्में देखा करता था। मुझमें एक विशेष उत्साह इसलिए था क्योंकि मैं इन्हें दादा के साथ अड्डा मारते हुए देखा करता था।

एक दिन फिल्म जगत में जाऊंगा, यह बात उस समय नहीं सोची थी। अनेक तरह के काम किये हैं, घर से दो-तीन बार भागा भी हूं। कानपुर की एक टेक्सटाइल मिल में बिल डिपार्टमेंट में काम भी किया है। उस वक्त भी सिनेमा दिमाग में नहीं घुसा था। घर के लोग जबरदस्ती कानपुर से पकड़ कर ले गए थे। यह 1942 की बात है। बीच में दो वर्ष पढ़ाई लिखाई में गए। घर से जिन दिनों भागा था उस समय मेरी उम्र 14 साल थी।

बाबा ने कहा था, मैट्रिक की परीक्षा पास कर इंजीनियर-फिंजीनियर बना जाए, नहीं तो तुम मिस्त्री बनकर रह जाओगे। सहसा क्या हुआ कि पढ़ने-लिखने में मन लग गया। बंगाली लड़के-लड़कियों की जो बंधी हुई जीवन दिशा है या फ्रांसीसियों के बारे में जैसा सुनने में आया है कि इन दोनों के भीतर जैसे ही कोई रचनात्मक प्रेरणा जागती है, सबसे पहले इनके भीतर से कविता निकलती है। इस प्रवृत्ति के अनुसार दो – चार अत्यंत अभागी रचनाओं से मेरा कलात्मक प्रयास शुरू हुआ।

उसके बाद मैंने देखा कि मुझसे न हो सकेगा। कविता के एक लाख मील लम्बे पथ पर मैं किसी भी दिन नहीं चल सकूंगा। उसके बाद हुआ क्या? मैं राजनीति में घुस पड़ा। 42-43-45 के जमाने के बारे में जो जानते हैं। उन्हें पता है कि वह राजनीति की दृष्टि से तेज बदलाव का समय था।
उस समय फासीवाद विरोधी आन्दोलन होने के साथ-साथ जापानी आक्रमण, ब्रितानियों का पलायन, अपने यहां वही युद्ध-बम-टम, ऐसी एक के बाद एक बड़ी जल्दी कई घटनाएं घट गयीं। 40-41 में हम लोगों का शांत, निस्तरंग जीवन था कि सहसा चवालीस – पैंतालीस में एक के बाद एक कई घटनाएं घट गयीं। चावलों के दाम बढ़ गए, अकाल फैल गया, एक के बाद एक कई बदलावों ने मनुष्य की विचारधारा को बड़ा धक्का दिया।
उस समय मैं मार्क्सवादी राजनीति की ओर झुक गया था। सिर्फ झुका ही नहीं था, सक्रिय कार्यकर्ता बन गया था। हां, कार्ड होल्डर नहीं था पर आत्मीयतापूर्ण सहानुभूति रखने वाला अवश्य था। उस समय लिखने की शुरुआत की थी। कहानी लिखने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी थी पर कविता लिखने का वही धुंधला प्रयास फिर मन में उत्पन्न नहीं हुआ। उस छोटी उम्र में चारों ओर जो सब अन्याय, अत्याचार देख रहा था, उसका एक राजनैतिक प्राणी के रूप में मुखर विरोध करने के लिए ही कहानी लिखने की प्रबल इच्छा हो गई थी। कहानी मैं कोई बहुत खराब नहीं लिखता था।

मुझे आज भी याद है मेरी और समरेश की पहली छपी हुई कहानी ‘अग्रणी’ पत्रिका में निकली थी, उसके बाद सजनी बाबू की पत्रिका ‘शनिवारेर चिठी’ में, ‘गल्प भारती’ में जिसके एडीटर उस समय नरेंद्र कृष्ण बाबू थे, ‘देश’ पत्रिका में कुछ कहानियां छपीं, इस प्रकार कुल मिलाकर मेरी पचास कहानियां प्रकाशित थीं।

इस दौरान मैंने एक पत्रिका निकाली थी, जो लगभग मार्क्सवादी विचारधारा की थी। इसी दूरदराज के शहर में रहकर मैं उस समय राजशाही शहर में तीसरे साल में पढ़ रहा था। दूरदराज के शहर में छपने वाली पत्रिका उस समय एक दुर्लभ घटना थी। कई महीने वह पत्रिका चलती रही, सब कुछ अपने रुपये – पैसे से चलने वाला मामला था।

हां, जैसा कि नियम है इस तरह की पत्रिकाओं का, यह भी कुछ समय बाद बन्द हो गयी। उसके बाद ऐसा लगा कि कहानी लिखना नाकाफ़ी है, फिर कहानी कितने लोगों को स्पन्दित करती है और अगर करती है तो बहुत गहरायी में जाकर और वहां तक पहुंचने में लम्बा समय लगाती है। मेरा उत्तेजक रक्त तुरन्त प्रतिक्रिया चाहता है। उसी समय ‘नवान्न’ थियेटर की स्थापना हुई।‘नवान्न’ ने मेरे पूरे जीवन की धारा पलट दी। क्रमशः