कविता
कला चैतन्य
मंजुल भारद्वाज
मखमली अहसास
सलवटों में लिपटकर
रूबरू हो
सिरहाने आ बैठे हैं
हौले हौले स्मृतियों के
उजाले में
नई दास्तां लिखते हुए !
ख़्वाब
समर्पण के पलों को गूंथ
चल पड़े हैं प्रेम डगर पर
जीवन पथ को
रौशन करते हुए !
स्पर्श,स्पंदन
खोज,शोध
अमूर्त मूर्त
मूर्त अमूर्त
हैं सृजन साधना !
विचार भक्षक
है काल विध्वंसक
तिमिर की चुनौती विराट
विकारग्रस्त हैं मानवदेह
सत्ता का हथियार
है नरसंहार
हिंसा की ज्वाला
इंसानियत को जला डाला !
तिमिर की ललकार
है स्वीकार
कला चैतन्य से
जगा सत्य बोध
सत्य की लौ से
चमकते विचार
दूर करें अंधकार
कला प्रदीप्त चेतना
काल को दें आकार !
