मनीष आजाद की कविता- राष्ट्रीय खोदो-पाड़ो अभियान

 

राष्ट्रीय खोदो-पाड़ो अभियान

अतीत को न्याय दिलाने वाले

इस ‘राष्ट्रीय खोदो-पाड़ो अभियान’ में 

आख़िरकार मैं भी शामिल हो गया !

फावड़ा लेकर निकल पड़ा अतीत की ओर …

खोदते खोदते जब मैं थक रहा था

तो अचानक कुछ टकराया,

मैंने जल्दी – जल्दी मिट्टी हटायी

लेकिन यहां किसी मन्दिर का अवशेष नहीं

बल्कि एक कंकाल था

कंकाल एक महिला का

मैं बेहद आश्चर्यचकित 

क्योंकि महिला की योनि पर ताला जड़ा था.

ताले में भरसक जंग लग गया था

लेकिन वह टूटा नहीं था.

तभी वह दर्द से कराही

मैं डरकर पीछे हट गया

वह अपने आप में कुछ कह रही थी

मैंने कान लगाया

‘मेरी योनि को मुक्त करो’!

इसकी चाभी खोजो और मुझे मुक्त करो!!

मैं पसीने से तरबतर

ये कैसे हो सकता है

सदियों से यह महिला

अपनी योनि पर लगे ताले के खुलने के इंतजार में मरी नहीं है.

घबराकर मैंने खुदाई बन्द कर दी.

दूसरे दिन मैंने दूसरी जगह खुदाई शुरू की

इस बार जब टन्न की आवाज़ आयी

तो मैं हैरान 

यह तो सिर्फ़ सिर का कंकाल है.

धड़ कहाँ है?

सर के इस कंकाल को जैसे ही मैंने हाथ में लिया.

यह काँपा 

और कहीं से बारीक़ सी आवाज़ आयी

मेरे धड़ को ढूंढो !

बिना उसके मैं कैसे मर सकता हूँ

हमारे सिर को तो पेशवाओं ने फुटबॉल बना कर खेला

धड़ का क्या किया

हमें पता नहीं.

मैंने धड़ की तलाश में चारों तरफ़ तेज़ी से खुदाई कर डाली

लेकिन हर तरफ सिर के ही कंकाल मिले

फुटबॉल की तरह हिलते-डुलते

सदियों बाद भी मरने से इंकार करते.

अचानक मेरी नज़र

कुछ अकड़े काले पड़ गये कंकालों पर पड़ी

ये तो आग में जले मालूम होते हैं

मैं सहमते-सहमते उनके नज़दीक गया

मुझे देखते ही उन्होंने करवट बदल ली

अरे, ये भी ज़िन्दा हैं !

मैंने साहस करके पूछा

तुम्हारा तो अन्तिम संस्कार हो चुका है

फिर तुम ज़िन्दा क्यों हो ?

उनमें से एक ने लगभग खीझते हुए कहा

हमें अपनी झोपड़ियों में हमारे बच्चों समेत फूंक दिया गया था

मैंने आश्चर्य से पूछा क्यों?

क्योंकि हमने पहली बार अपने खाने में घी का तड़का लगाया था !

दक्षिण टोले से जाने वाली घी की महक उन्हें बहुत नागवार गुजरी !

क्योंकि घी के स्वाद पर उनका ही अधिकार था

इसलिए खाने से पहले ही हमें जला दिया गया !

हम अभी भी भूखे हैं

तो फिर मर कैसे सकते हैं ?

मैं पसीने से तरबतर वहां से भागा. 

मुझे लगा मैं पागल हो जाऊंगा. 

लेकिन कुछ दिनों बाद

इन सबको दिमाग़ से निकाल 

मैंने फिर खुदाई शुरू की

इस बार एक जर्जर हवेली की खुदाई करते हुए

मुझे उसकी नींव में एक के ऊपर एक कई साबुत कंकाल मिले.

वे भी मरे नहीं थे, बल्कि कराह रहे थे

उन्होंने फुसफुसा कर मुझसे कहा

इस महल को बनाते हुए हम इसी में दब गये

इसकी नींव हो गये.

राजा ने महल की सुरक्षा का वास्ता देकर

हमारे परिवार वालों को यहां आने से रोक दिया.

बिना अंतिम संस्कार, हम मर कैसे सकते हैं ?

मैं वहां से भी जान बचाकर भागा

अन्ततः एक खुले मैदान की मैंने खुदाई शुरू की

रात भर खुदाई के बाद जब मैं पस्त हो चुका था

तो अलस्सुबह जो मैंने देखा

उसने मेरे होश उड़ा दिये 

यहां वहां बिखरे थे हज़ारों कंकाल

लेकिन कोई साबुत नहीं था.

किसी की टांग गायब थी, किसी का हाथ

और किसी की आँख

मुझे आश्चर्य हुआ, कि ये भी मरे नहीं हैं !

सब कसमसा रहे हैं

मानो मिट्टी का बोझ हटने से

अब उठना चाह रहे हों

उनमें से किसी एक ने बहुत धीमी आवाज़ में कहा

‘अंधायुग’ में हम जिस राजा के ख़िलाफ़ लड़े

उसे तो हम नहीं ही जानते थे

लेकिन जिस राजा के लिए लड़े, उसके बारे में भी हमें कहां पता था !

विजयी और पराजित राजा

दोनों ने सन्धि की

और हमे छोड़कर चले गये.

हम अपने परिवार वालों के इंतज़ार में

अभी भी मरने का इंतज़ार कर रहे हैं

क्या तुम उन्हें इत्तिला दे सकते हो ?

मैं परेशान

कि यह सब क्या हो रहा है

कहीं यह कोई दुःस्वप्न तो नहीं है

अतीत इस क़दर ज़िन्दा कैसे है !

मैंने फावड़ा फेंका

और हताश होकर समुद्र में छलांग लगा दी

जब साँस रोके समुद्र की गहराई में गोते लगाता

तलछट पर पहुँचा

तो यहां भी आश्चर्य ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा

मैंने जो देखा, वह भयावह था !

कल्पना से परे था !

समुद्र की तलहटी पर लाखों कंकाल बिछे हुए थे

इनके न सिर्फ़ हाथ और पैर बंधे थे

बल्कि वे एक दूसरे से भी बांधे गए थे !

मुझे समझते देर न लगी

जरूर ग़ुलाम विद्रोह के कारण इनके जहाज़ डूबे होंगे

मैंने सोचा कि पानी मे तो निश्चित ही ये मर चुके होंगे

लेकिन मैं यहां भी ग़लत था

नज़दीक पहुँचने पर मैंने देखा कि वे हिल रहे हैं

उन्हें लहरे हिला रही हैं या वे ख़ुद हिल रहे हैं !

पता नहीं

लेकिन मुझे देखते ही 

सभी कमज़ोर आवाज़ में, मगर एक स्वर में बोलने लगे

‘संकोफ़ा, संकोफ़ा…’

मैं समझ गया

ये मुझे सुदूर अतीत में भेजकर

अपने लिए कुछ मंगाना चाहते हैं

ताकि अपनी यातनादायी बेड़ियाँ तोड़ सकें 

मुक्त होकर एक दूसरे के गले लग सकें 

और चैन से मर सकें 

या अफ्रीकी मुहावरे में कहें तो चैन से जी सकें !

अब मेरी साँस घुटने लगी थी

मुझे अतीत से बाहर आना ही पड़ा

समुद्र के ऊपर आकर लम्बी लम्बी साँस भरकर

मैं सोचने लगा

अतीत तो सचमुच ज़िन्दा है, पूरी तरह ज़िन्दा !

ठीक हमारी ही तरह

और न्याय के इंतज़ार में है

ठीक हमारी ही तरह