क्रांतिकारी आकाशगंगा के ‘प्रकाश पुंज’ शहीद -ए -आजम उधम सिंहः विराट व्यक्तित्व और विचारधारा : एक मूल्यांकन

31 जुलाई की तिथि को हिंदुस्तान के इतिहास में बहुत आदर प्राप्त है। इस दिन देश के दो सपूतों के नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज हैं। भारत माता के एक सपूत थे उधम सिंह, जिन्होंने जलियां वाला बाग के कत्लेआम का आदेश देने वाले सर माइकल फ्रांसिस ओ’डायर (जिसे अधिकांश लोग जनरल डायर के नाम से जानते हैं ) को गोलियों से उड़ा दिया था, जिसके लिए 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। 31 जुलाई उनका शहीदी दिवस है।।  दूसरे सपूत  मुंशी प्रेमचंद हैं जो  हिंदी और उर्दू साहित्य के महानतम लेखकों में हैं। उन्होंने अपने लेखन से दबे -कुचले, शोषित- वंचित समाज को आवाज तो दी ही,  सामाजिक समस्याओं, जातिगत भेदभाव और महिलाओं की दुर्दशा का यथार्थ वर्णन किया। उन्होंने लेखन की शुरुआत उर्दू से की तो उनके लेखन से भयभीत होकर अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया और एक से एक उपन्यास और कहानियां हिंदी साहित्य को दीं । प्रतिबिम्ब मीडिया अपने इन दोनों सपूतों को श्रद्धांजलि स्वरूप दो लेख  प्रकाशित कर रहा है। दोनों लेखकों को प्रतिबिम्ब मीडिया की तरफ से शुक्रिया। यहां प्रस्तुत है  डॉ रामजी लाल का शहीद उधम सिंह पर शोधपूर्ण लेखः   

श्रद्धांजलि: शहीद -ए -आजम उधम सिंह के  85 वें शहीदी दिवस पर विशेष

   क्रांतिकारी आकाशगंगा के ‘प्रकाश पुंज’ शहीद -ए -आजम उधम सिंह- विराट व्यक्तित्व और विचारधारा : एक मूल्यांकन

डॉ. रामजीलाल

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया उससे तीन बातें बातें स्पष्ट होती है.प्रथम,भारत को स्वतंत्रता केवल अहिंसावादी साधनों के द्वारा  प्राप्त हुई है. अहिंसावादी आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी के द्वारा किया गया. हमारा यह बिल्कुल अभिप्राय नहीं है कि अहिंसावादी साधनों का योगदान कम आंका जाए.परंतु स्वतंत्रता  केवल अहिंसावादी  साधनों से प्राप्त हुई है यह एक अतिशयोक्ति होगी.द्वितीय, भारत के स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पाठय पुस्तकों में किसान संगठनों  , किसान आंदोलनों , ट्रेड यूनियनों,विद्यार्थी संगठनों ,महिला संगठनों व ,महिला आन्दोलनों की राष्ट्रीय आन्दोलन में  भूमिका के संबंध में लगभग कोई स्थान नहीं है.  तृतीय  राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारी विचारधारा, क्रांतिकारी तत्वों , व्यक्तियों, साम्यवादियों व समाजवादियों ,क्रांतिकारी संस्थाओं तथा असंख्य क्रांतिकारियों के योगदान पर सही तरीके से प्रकाश नहीं डाला गया.वास्तविक रूप में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में जो योगदान अथवा आहुति जीवन देकर क्रांतिकारियों ने  दी है वह अपने आप में एक अनोखा, अद्भुत व शानदार उदाहरण है जो विश्व के विभिन्न देशों के इतिहास में बहुत कम मिलता है

 विश्व के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों की विचारधारा का प्रभाव

भारतीय क्रांतिकारियों की विचारधारा,साधनोंतथा कार्य पद्धति पर विश्व के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों–गैरीबाल्डी, कावूर ,मेजिनी, कार्ल मार्क्स, लेनिन तथा अन्य सिद्धांत कारों और क्रांतिकारियों का काफी अधिक मात्रा में प्रभाव पड़ा. रूस की साम्यवादी क्रांति भी भारतीय स्वतंत्रता के परवानों के लिए एक पथ प्रदर्शन के रूप में थी.एम.एन.राय इस प्रभाव के परिणाम स्वरूप कट्टर  राष्ट्रवादी से कट्टर साम्यावादी  बन गए थे.चटोपाध्याय ने कहा कि ‘रूस की क्रांति मेरे जीवन में क्रांतिकारी मोड है’ . महात्मा गांधी, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया इत्यादि ने भी रूस की क्रांति के प्रभाव को स्वीकार किया है.

भारतीय क्रांतिकारी संघर्ष के मुख्य नायक और नायक और नायिकाएं

भारतीय क्रांतिकारी संघर्ष के इतिहास में (सन्1857 –सन्1947तक) ज्ञात तथा अज्ञात असंख्य क्रांतिकारियों ने भाग लिया. सन्1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के  बाद में स्वतंत्रता संग्राम में खुदीराम बोस (प्रथम बंगाल का प्रथम युवा शहीद),श्याम जी कृष्ण वर्मा, चापेकर ब्रदर्स,अरविंद घोष,बिहारी बोस,सुभाष चंद्र बोस,राजा महेंद्र प्रताप,लाला हरदयाल, लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आजाद,करतार सिंह सराभा ,मदनलाल ढींगरा, चंद्रशेखर आजाद ,अशफाक उल्ला खान,भगत सिंह,  सुखदेव,राजगुरु तथा  अनेक क्रांतिकारी महिलाओं– महारानी लक्ष्मीबाई, अजीजनबाई,बेगम हजरत महल, बीना दास , प्रीति लता  वादेदार (बंगाल की प्रथम महिला शहीद), आबादी बानो बेगम  (बी अम्मा),सुनीति चौधरी  भीकाजी कामा ,कल्पना दत्ता इत्यादि उल्लेखनीय हैं.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बलिदान देने वाले शहीदों के जन्म दिन अथवा शहीदी दिवस पर यह चिंतन करना अनिवार्य है कि इन महान बलिदानियों ने अपने जीवन में क्या-क्या कार्य किये और क्यों किये? उनकी विचारधारा क्या थी? वे अपनी विचारधारा को व्यावहारिक रूप देने में कहां तक सफल रहे.क्या वर्तमान सरकारें उनके चिंतन पर खरी उतरती हैं अथवा उनकी मूर्तियों अथवा प्रतिमाओं पर माल्यापर्ण करके  इतिश्री करती हैं.? वर्तमान लेख में क्रांतिकारी शहीद-ए-आजम( Great Martyr’) उधम सिंह के संघर्षपूर्ण जीवन  तथा विचारधारा की वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिकता का वर्णन करने से पूर्व उनसे संबंधित विवादों का पर्दाफाश करना भी बड़ा जरूरी है.

उधम सिंह के संबंध में अनेक विवाद :

  1. जाति के संबंध में विवाद:

परंतु कुछ विद्वानों ने ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा करते हुए उधम सिंह को “दलित सिख परिवार” से जोड़ दिया. इन विद्वानों में शम्सुल इस्लाम. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर का नाम मुख्य है. शम्सुल इस्लाम का लेख ‘सांझी सहादत ,सांझी विरासत की बंद पड़ेी गौरव यात्रा’, .नामक लेख में लिखा, ‘सुविख्यात क्रांतिकारी उधम सिंह का जन्म एक दलित परिवार में हुआ’. (समयांतर, वर्ष 50, अंक 9, जून 2019 पृष्ठ 29.). दिल्ली विश्वविद्यालय के वाणिज्य विभाग और सामाजिक अध्ययन फाउंडेशन द्वारा  भारतीय स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 8 अगस्त, 2022 को, आयोजित एक सेमिनार  में उधम सिंह को दलित जाति से संबंधित बताया गया.

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने उधम सिंह को चमार जाति से जोड़कर उधम सिंह नगर जिले का नामकरण किया था. इसके अतिरिक्त सैनी,कुर्मी एवं कोली जाति के लोगों ने भी उधम सिंह को अपनी  -अपनी जाति साथ संबंध जोड़ने का प्रयास किया गया है.

हमारा मानना है कि उधम सिंह को जाति के बंधन में बांधना उचित नहीं हैक्योंकि शहीदों की कुर्बानी किसी विशेष जाति,धर्म,अथवा क्षेत्र से संबंधित न होकर पूरे राष्ट्र और मानवता के लिए होती है .परंतु इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि ऐतिहासिक तथ्यों को अनुचित तरीके से प्रस्तुत किया जाए. यदि जाति की दृष्टिकोण से देखा जाए तो उधम सिंह कंबोज जाति से संबंधित थे तथा उनकी कुर्बानी भारत की स्वतंत्रता व समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए थी.

  1. भ्रामक धारणाः कर्नल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को मौत के घाट उतार कर जलियांवाला बाग हत्याकांड 1919 का  बदला लिया

आम धारणा यह है उधम सिंह ने कर्नल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर ( (9 अक्टूबर 1864 – 23 जुलाई 1927)  —एक अस्थायी ब्रिगेडियर-जनरल  —  “अमृतसर का कसाई”),को मौत के घाट उतारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड 1919 का बदला लिया. ऐसी धारणा का प्रचार प्रसिद्ध लोकप्रिय फिल्म ‘रंग दे बसंती’ में भी किया गया है .यह ऐतिहासिक तथ्य के विरुद्ध है तथा भ्रामक है. अस्थायी ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर  का निधन 23 जुलाई 1927 लंबी बीमारी के बाद धमनीकाठिन्य से हो चुका था .

उधम सिंह ने सर माइकल फ्रांसिस ओ’डायर ( Sir Michael Francis O’Dwyer, – 28 अप्रैल 1864 – 13 मार्च 1940) को मौत के घाट उतारा था जो उस समय पंजाब के लेफ्टिनेंट  गवर्नर तथा जलियांवाला नरसंहार के प्रमुख योजनाकार थे .

  1. जलियांवाला हत्याकांड( 13 अप्रैल 1919) के दिन उधम सिंह विदेश में: ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा

पंजाब शिक्षा विभाग की चौथी श्रेणी की पीएसईबी( PSEB) द्वारा प्रकाशित “पंजाबी पाठ” के मूल संस्करण में यह वर्णन करके कि13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला हत्याकांड के दिन उधम सिंह उपस्थित नहीं थे और वह समय लंदन में थे.पुस्तक  में प्रकाशित इस लेख ने एक महत्वपूर्ण विवाद खड़ा कर दिया. यह ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध है.क्योंकि उधम सिंह के जीवन से संबंधित सरकारी रिकॉर्ड, विभिन्न विद्वानों के द्वारा लिखे गए लेख गए , इतिहासकारों के द्वारा किए शोध लेख व पुस्तकें,  उधम सिंह के मुकदमे की पैरवी करने वाले प्रसिद्ध वकील वी .के. कृष्णा मैनन ने इस बात का समर्थन किया है कि उधम सिंह जलियांवाला हत्याकांड के दिन (13 अप्रैल 1919) मौजूद थे . उधम सिंह और अनाथालय के साथी घटना के समय जलियांवाला बाग में लोगों को पानी पिला रहे थे. अन्य शब्दों में, उधम सिंह जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रत्यक्षदर्शी थे.

4.उधम सिंह की मूर्तियों के मूर्तियां और चित्रों के संबंध में विवाद

उधम सिंह की मूर्तियों और चित्रों के संबंध में विवाद उठते रहते हैं. इसका सर्वोत्तम उदाहरण उधम सिंह के अपने पैतृक गांव सुनाम( पंजाब)में स्थापित मूर्तियां है. विनय लाल के अनुसार’’ उधम सिंह के जन्मस्थान सुनाम में एक ही वर्ष में स्थापित उनकी दो मूर्तियाँ एक दूसरे से सटी हुई हैं .एक मूर्ति में उन्हें खालसा सिख के रूप में दिखाया गया है, जिसके बाल कटे हुए हैं और दाढ़ी है; दूसरी मूर्ति में एक साफ-सुथरा व्यक्ति (हिंदू) दिखाया गया है.’ परन्तु माइकल ओ’ डायर की हत्या के समय उधम सिंह ने सर पर हैट लगाया हुआ था.

  1. रोगी,हत्यारा, कम पढ़ा लिखा और निम्न जाति से संबंधित अनुचित अवधारणा

अनीता आनंद की किताब, (द पेशेंट असैसिन: ए ट्रू टेल ऑफ़ मैसेकर, रिवेंज, एंड इंडियाज़ क्वेस्ट फ़ॉर इंडिपेंडेंस ,  अप्रैल 2019 ) में उधम सिंह को ‘रोगी हत्यारा’, ‘कम पढ़ा लिखा ‘और ‘निम्न जाति’ से संबंधित बताया है. इंग्लैंड के लोग उससे घृणा करते हैं जबकि भारतीयों को हीरो मानते हैं. अनीता आनंद के शब्दानुसार “ब्रिटेन में सबसे अधिक घृणास्पद व्यक्ति बन गए, भारत में अपने देशवासियों के लिए एक नायक और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक मोहरा बन गए.’’

अनीता आनंद ने मौली ओडिंट्ज़ (क्राइमरीड्स की प्रबंध संपादक और ऑस्टिन नोयर की संपादक) को ऑनलाइन इंटरव्यू में बताया:

‘उस क्षण  तक(13 मार्च 1940), उधम कोई नहीं था, कुछ भी नहीं था – एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास कोई एजेंसी नहीं थी. वह न केवल एक गरीब,’ निम्न जाति और कम शिक्षित’ अनाथ था, बल्कि वह एक ऐसे देश का “मूल निवासी” भी था जहाँ भारतीयों के पास बहुत कम शक्ति थी और निचली जातियों के पास कुछ भी नहीं था.‘’ अपने पूरे युवा जीवन में अदृश्य, नगण्य और शक्तिहीन, बदला लेने के उधम के वादे ने उसे एक नायक बना दिया; कम से कम उसके अपने मन में तो. यह विचार ही मादक था. इससे भी बढ़कर, यह उसका जुनून बन गया – एक ऐसा जुनून जिसने उसे दो दशकों से भी ज़्यादा समय तक अपने अंदर समाहित कर रखा था.”

उपरोक्त सभी अवधारणाएं गलत, अनैतिहासिक, अनुचित, भ्रमात्मक व तथ्यहीन हैं. उधम सिंह का जन्म कंबोज जाति में हुआ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है,केवल यही नहीं  उधम सिंह ने रेजिनाल्ड़  डायर को नहीं अपितु पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर को मारा था.  इसके अतिरिक्त उधम सिंह जलियांवाला  बाग के सुनियोजित नरसंहार का प्रत्याशी था और वह विदेश में नहीं था .जहां तक अनिता आनंद के कथन का संबंध है कि उधम सिंह रोगी ,हत्यारा, कम शिक्षित और निम्न जाति से संबंधित है.उससे भी सहमति प्रकट नहीं की जा सकती क्योंकि उधम कोई रोगी नहीं थाऔर न ही वह कम शिक्षित था .क्योंकि आज से लगभग 107 वर्ष पूर्व सन् 1918 में मैट्रिक पास होना कोई कम शिक्षा नहीं थी. रोगी व्यक्ति कभी भी इतना धैर्यवानऔर गंभीर नहीं हो सकता जितना कि उधम सिंह था. अनिता आनंद को इस पुस्तक -द पेशेंट असैसिन को सन् 2020 में हेसेल-टिल्टमैन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

वास्तव में उधम सिंह एक धैर्यवान,शूरवीर ,साहसी ,राष्ट्रवादी ,महान देशभक्त, समाजवादी क्रांतिकारी और बिल्कुल यथार्थवादी व्यक्ति थे जो देश की आजादी के लिए सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तैयार थे. अपने मिशन को पूरा करने के लिए उन्होंने विश्व के चार महाद्वीपों -यूरोपीय, पूर्वी यूरोपीय, अफ्रीकी और अमेरिकी- की यात्रा की. जर्मनी के राष्ट्रवादियों , रूस  के साम्यवादियों व अफ्रीका,अमेरिका और इंग्लैंड में ब्रिटिश साम्राज्यवादी विरोधियों से संपर्क स्थापित किया.      यह किसी रोगी का काम नहीं है अपितु ऐसे व्यक्ति का काम होता है जो मानसिक और शारीरिक रूप में बिल्कुल स्वस्थ और सुदृद्ध हो.यही कारण है कि उसने अपने मिशन को पूरा करने के लिए 21 वर्ष इंतजार किया.पंजाब की माटी में जन्मे क्रांतिकारी शिरोमणि शहीद-ए-आज़म अमर शहीद ऊधम सिंह का नाम हमेशा युवाओं में राष्ट्रभक्ति का संचार भरता रहेगा. ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग हत्याकांड को देखा था. उसने पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर से खून का बदला खून से लेने की कसम खाई थी. यद्यपि माइकल ओ’ डायर से उसकी कोई वैयक्तिक शत्रुता नहीं थी.

जन्म: मुसीबतों के पहाड़ से टूटा बचपन –सेंट्रल खालसा अनाथालय पुतलीघर अमृतसर में पालन पोषण व शिक्षा

शहीद-ए- आजम क्रांतिकारी शिरोमणि अमर शहीद उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को तत्कालीन पटियाला स्टेट (अब पंजाब ) लाहौर से 130 मील दूर दक्षिण में सुनाम के पिलबाद इलाके में कंबोज जाति के जम्मू गोत्र में हुआ.,

उधम सिंह के पिताजी का नाम सरदार टहल सिंह कंबोज तथा माता जी का नाम श्रीमती नारायण कौर था. इनके माता-पिता ने इनका नाम शेर सिंह रखा .उस समय किसी भी  व्यक्ति को यह आभास नहीं था कि भविष्य में यही बालक शेर सिंह विश्व प्रसिद्ध क्रांतिकारियों की आकाशगंगा में ध्रुव तारे की तरह प्रकाशपुंज होगा और क्रांतिकारियों की  श्रेणी में अग्रणीय स्थान पर होकर भारतीय क्रंतिकारी इतिहास का एक सुनहरी गौरवपूर्ण पृष्ठ होगा. केवल यही नहीं अपितु आने वाली पीढ़ियों के लिए वह एक आदर्श प्रेरक व क्रांतिकारी राजकुमार में होगा.

इस परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब बचपन में इनकी माताजी का सन् 1901 तथा पिताजी का सन् 1907 में देहांत हो गया. उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था. किशन सिंह रागी ने दोनों भाइयों शेर सिंह तथा साधू सिंह को सेंट्रल खालसा अनाथालय पुतलीघर अमृतसर में भर्ती कराया. अनाथालय के आधिकारिक रिकॉर्ड(रजिस्टर)के अनुसार अनाथालय में सिख धर्म के नियमानुसार 28 अक्टूबर 1907 को दोनों भाइयों की दीक्षा (नामकरण संस्कार) हुई. पुनर्बपतिस्मा ( दीक्षा) के बाद शेर सिंह का नाम ऊधम सिंह तथा साधू सिंह का नाम मुक्ता सिंह रखा गया. ‘मुक्त’’ (मोक्ष) का अर्थ है कि वह व्यक्ति जो पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है. उधमसिंह के माता-पिता ने बचपन में उनका नाम शेर सिंह रखाऔर जनरल ओ’डायर को मारकर उसने सिद्ध कर दिया कि वह वास्तव में भारत का शेर था.परंतु उसका नाम उधमसिंह में तब्दील कर दिया गया. उधम का तात्पर्य ‘उथल-पुथल’ है . यह नाम भी उसके लिए बहुत अधिक उपयुक्त सिद्ध हुआ क्योंकि माइकल ओ’डायर की हत्या करके उधम सिद्ध ने वैश्विक स्तर पर ऐसी अप्रत्यायशित उथल-पुधल (उधम )मची दी जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की पुलिस,नौकरशाही, गुप्तचर  विभाग व सैन्य गुप्तचर एजेंसियों की कार्य प्रणालियों की कमजोरियों की पोल सार्वजनिक तौर पर उजागर हो गयी. अनाथालय में उसके सहपाठियों और अध्यापकों के द्वारा उन्हें प्यार से “उदे’ उपनाम से पुकारा जाता था. उधम सिंह के द्वारा कालांतर में “उदे” छद्म नाम का प्रयोग भी किया. इनके भाई मुक्ता सिंह की मृत्यु के पश्चात जीवन बिल्कुल एकाकी हो गया.उधम सिंह ने सन् 1918 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और अनाथालय को छोड़ दिया..

सैनिक के रूप में:

उस समय प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था और ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार को सैनिकों की आवश्यकता थी. परिणामस्वरूप, सन् 1918 में कम उम्र होने के बावजूद, उधम सिंह को उनके अनुरोध पर सेना में भर्ती कर लिया गया और 32 सिख पायनियर्स के एक सैनिक के रूप में उन्होंने समुद्र तट से बसरा क्षेत्र तक रेलवे की बहाली के लिए काम करना शुरू कर दिया. लेकिन कम उम्र होने और उच्च अधिकारियों के साथ मतभेद के कारण, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी और वापस भारत (पंजाब) लौटना पड़ा. 6 महीने के भीतर, वह फिर से सेना में भर्ती हो गए और उन्हें बढ़ईगीरी, मशीनरी और वाहनों के रखरखाव और मरम्मत के लिए बसरा और बगदाद भेजा गया. लेकिन फिर से, विवाद के कारण, वह सन् 1919 की शुरुआत में अमृतसर के अनाथालय में वापस आ गए. इस अनुभव ने उन्हें और अधिक निराशा में डाल दिया.

प्रथम विश्व युद्ध (सन् 1914 – सन् 1918) :असंतोष व रोष की भावना चरम सीमा

हमारे सुधि पाठकों के लिए जलियांवाला बाग नरसंहार की पृष्ठभूमि जानना अति आवश्यक है. प्रथम विश्व युद्ध (सन् 1914 – सन् 1918) के समय अंग्रेजी सरकार का यह कहना था युद्ध स्वतंत्रता के लिए लड़ा जा रहा है. प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों के द्वारा अंग्रेजी सरकार की अभूतपूर्व सहायता की गई थी. सन् 1914- सन् 1916 तक 1,92,000 भारतीय सैनिकों में पंजाब के सैनिकों की संख्या 1,10,000 थी . जनता ने केवल सैनिक ही नहीं दिए अपितु 2 करोड रुपए युद्ध का चंदा तथा 10 करोड रुपए ब्याज के रूप में भी दिए. प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने भारतीय जनता से चंदा स्वैच्छिक तथा बलपूर्वक भी लिया. विश्वयुद्ध में 43,000 सैनिकों की मृत्यु के कारण सैनिक परिवारों के आर्थिक स्थिति बहुत अधिक खराब हो गई .युद्ध के दौरान जनता से बलपूर्वक युद्ध का चंदा इकट्ठा करना, अभूतपूर्व महंगाई ,बेरोजगारी,भूखमरी,जनता पर कर्ज , महामारी, असंतुलित मानसून व किसानों की दुर्दशा, आर्थिक मंदी का दौर ,गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन का पंजाबी युवाओं पर निरंतर बढ़ता हुआ प्रभाव एवं तुर्की में पैन इस्लामिक मूवमेंट के कारण भारतीय जनता में भी असंतोष व रोष की भावना चरम सीमा पर थी.

अराजक एवं क्रांतिकारी अपराधिक अधिनियम 1919 (रौलट एक्ट: नो अपील ,नो दलील, नो वकील ‘के नारे की गूंज संपूर्ण हिंदुस्तान में

पंजाब सरकार ने असंतोष को दबाने के लिए अराजक एवं क्रांतिकारी अपराधिक अधिनियम 1919 (रौल्ट एक्ट )लागू किया . रौल्ट एक्ट1919 के अंतर्गत सरकार को प्रेस पर नियंत्रण करने, स्वतंत्र आंदोलन को रोक लगाने, नेताओं पर बिना मुकदमा चलाए जेल में डालने, बिना वारंट गिरफ्तार करने एवं विशेष न्यायाधिकरणों तथा बंद कमरों में बिना किसी जिम्मेवारी के अभियोग चलाने इत्यादि अधिकार दिए गए. अराजक एवं क्रांतिकारी अपराधिक अधिनियम 1919 (रौल्ट एक्ट ) को भारतीयों ने’ ‘काले कानूनों’ के नाम से संबोधित करके आलोचना की. इन ‘काले कानूनों’ के विरुद्ध ‘नो अपील ,नो दलील, नो वकील ‘ का नारा संपूर्ण हिंदुस्तान में फैल गया. परंतु इन काले कानूनों का पंजाब में सर्वाधिक विरोध हुआ.

13 अप्रैल 1919 :पंजाब में बैसाखी( “वैसाखी”)  का त्यौहार:   जलियांवाला बाग नरसंहार  में बदल गया

13 अप्रैल को पंजाब तथा विदेशों में पंजाबियों के द्वारा में बैसाखी का त्योहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है. यह त्योहार फसल कटाई के मौसम की शुरुआत का प्रतीक है और सिखों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक त्योहार भी है, क्योंकि इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना 13 अप्रैल, 1699 को गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर साहिब में की थी. यह सिख नव वर्ष की शुरुआत का  प्रतीक भी है. इस त्यौहार में सिक्खों के अतिरिक्त  हिंदू,मुस्लिम व  ईसाई धर्मों के अनुयाई सम्मिलित होकर जश्न मनाते हैं.

13 अप्रैल 1919 को बैसाखी की सुबह ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर के नए नियम अमृतसर शहर में लागू किये. इन नए नियमों के अंतर्गत के अंतर्गत लोगों को बिना परमिट के शहर छोड़ने , किसी भी तरह के जलूसों और चार से अधिक लोगों की किसी भी सभा पर प्रतिबंध लगा लगा दिए थे और सबसे खतरनाक बात तो यह थी कि “रात 8 बजे के बाद सड़कों पर पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को गोली मार दी जाएगी’’. नगर प्रचारकों द्वारा मिलिट्री के ड्रमों की धुन के द्वारा शहर में मुनादी की गई. परंतु गर्मी व शोर-शराबे के कारण भीड़ वाले प्रमुख स्थानों पर इनका व्यापक रूप से प्रसार- प्रचार ना हो सका . ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर को उसी दिन (13 अप्रैल) ही दोपहर 12.40 बजे सूचित किया गया कि जलियांवाला बाग में एक राजनीतिक सभा आयोजित की जा रही है.   इस शांतिपूर्ण समारोह पर सुनियोजित योजना के आधार पर भारतीयों को सबक सिखाने तथा दबाने के लिए ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर 2-9वीं गोरखा, 54वीं सिख और 59वीं सिंध राइफल्स के 90 सिख, गोरखा, बलूच और राजपूत सैनिकों के साथ शाम 5 बजकर 15 मिंट पर सभा स्थल पर गए . उस समय वहाँ लगभग 20,000 हिंदू, सिख, मुस्लिम और ईसाई सहित सभी आयु के पुरुषों महिलाओं और बच्चों की शांतिपूर्ण सभा चल रही थी. ब्रिगेडियर जनरल डायर ने और बिना चेतावनी दिए गोली चलाने के आदेश दिए .सैनिक टुकड़ी ने लगभग 1650 गोलियां फायर की तथा फायरिंग गोलियां समाप्त होने तक चलती रही. लगभग 15 मिनट में अमृतसर के सिविल सर्जन डॉ. स्मिथ के अनुसार 1800 लोग मारे गए. मरने वालों में 41 लड़के व एक 6 सप्ताह की बच्ची भी थी. इस हत्याकांड में 1200लोग घायल हुए थे. ब्रिटिश सरकार के द्वारा 581 व्यक्तियों पर मुकदमें चलाए गए और उन में से 108 व्यक्तियों को मृत्यु दंड,265 व्यक्तियों को आजीवन कारावास ,85 व्यक्तियों को सात-सात वर्ष की कैद और शेष को अपमानित किया गया .जलियांवाला बाग हत्याकांड सन् 1857 की जनक्रांति के पश्चात रक्तरंजित बर्बरता, निर्दयता एवं अमानवीय नरसंहार 20 वीं शताब्दी की प्रथम मिसाल थी. दीनबंधु एफ .एंड्रयूज ने जलियांवाला बाग हत्याकांड को ‘जानबूझकर की गई क्रूर हत्या’ कह  कर आलोचना की. थॉमसन और गैरट  अनुसार “अमृतसर दुर्घटना भारत -ब्रिटिश संबंधों में युगांतरकारी घटना थी,जैसा कि1857 का विद्रोह ”था

जलियांवाला बाग नरसंहार: ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में आलोचना

जलियांवाला बाग नरसंहार पर ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में व्यापक चर्चा व आलोचना  हुई. विंस्टन चर्चिल, (तत्कालीन युद्ध सचिव) ने इस नरसंहार की “अत्यंत भयानक” कहकर निंदा व आलोचना की . हाउस ऑफ कॉमन्स में मतदान में 247 सांसदों ने ब्रिगेडियर जनरल आर.ई.एच. डायर का विरोध किया.जब कि इसके बिल्कुल विपरीत केवल 37 सांसदों ने डायर का समर्थन किया। हाउस ऑफ कॉमन्स में नरसंहार के संबंध में मतदान और बहस ब्रिटिश जनता के गुस्से और परेशानी के प्रतीक व प्रतिबिंब थे.  समस्त भारत में जलियांवाला बाग सुनियोजित नरसंहार के परिणाम स्वरूप जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था और भारत में असहयोग आंदोलन को बढ़ावा दिया और इसके बाद जन आंदोलनों,किसान आंदोलनों , मजदूरों के संघर्षों एवं राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया मोड़ आया .दूसरे शब्दों में जलियांवाला बाग हत्याकांड एक युगांतकारी घटना थी जिसके परिणाम ब्रिटिश साम्राज्यवाद पतन की ओर अग्रसर हुआ.

उधम सिंह समस्त हत्याकांड को स्वयं देखा था. ‘खून का बदला खून’ से लेने के लिए सौगंध उठाई थी तथा उसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समूल नष्ट करने की कसम ली थी .जलियांवाला बाग हत्याकांड उसके जीवन पर अमिट छाप छोड़ गया और बदला लेने की ज्वाला निरंतर धधकती रही.यह नरसंहार उनके जीवन पर गहरी छाप छोड़ गया और उसने पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ’डायर को मारने की कसम खाई थी..

राष्ट्रीय नेताओं एवं क्रांतिकारियों का प्रभाव

उधम सिंह के जीवन दर्शन एवं चिंतन पर अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन (दिसंबर 1919 )में स्वामी श्रद्धा नंद सहित प्रसिद्ध  राष्ट्रीय नेताओं के भाषणों , प्रसिद्ध क्रांतिकारियों, गदर पार्टी के सुप्रसिद्ध नेताओं- लाला हरदयाल, प्रोफेसर मोता सिंह, ,सरदार बसंत सिंह, बाबा सोहन सिंह भकना, करतार सिंह सराभा, भगत सिंह के चाचाओं- सरदार अजीत सिंह, व सरदार स्वर्ण सिंह, सत्यपाल,डॉ सैफुद्दीन किचलू ,लाला लाजपत राय इत्यादि के व्यक्तित्व और विचारों अभूतपूर्व गहरा प्रभाव था.

बब्बरअकाली लहर -‘बाबाओं’ का प्रभाव

उधम सिंह के चिंतन पर बब्बरअकाली लहर का प्रभाव भी था क्योंकि उसने ‘बाबाओं’ में काम किया था और सन् 1924 में अमेरिका के प्रवास के समय गदर पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से केवल मुलाकात ही नहीं की बल्कि उनकी कार्यप्रणाली से भी प्रभावित हुआ था. गदर पार्टी का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए प्रवासी भारतीयों को संगठित करना था.

मार्क्सवाद, लेनिनवाद और बोल्शेविकवाद विदेशी यात्राओं व प्रवास का प्रभाव :सिक्ख पंजाबी मार्क्सवादी

इन सभी व्यक्तियों और विचारधाराओं के अतिरिक्त उधम सिंह के चिंतन पर मार्क्सवाद, लेनिनवाद और बोल्शेविकवाद की प्रभाव भी था. जुलाई 1927 में अमृतसर के रामबाग उधम सिंह को आर्मज एक्ट के सेक्शन 20 के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया .उसके पास गदरे गूंज प्रतिबंधित गदर पार्टी का समाचार पत्र भी मिला था जिसे जब्त कर लिया गया. यही कारण है उसे ‘सिक्ख पंजाबी मार्क्सवादी’के नाम से पुकारा गया है. उसकी प्रेरणा के स्त्रोत रूस के बोल्शेविक्स भी थे . बाबा ज्वाला सिंह की पुस्तक ‘गदर’ से भी बहुत अधिक प्रभावित था

क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तारी और 5 साल की सजा

अमेरिका में प्रवास के समय उधम सिंह का भगत सिंह के साथ पत्र व्यवहार था. भगत सिंह के बुलावे पर ही सन् 1927 में भारत वापस आए थे. उनको 25 साथियों , रिवाल्वर, गोला-बारूद और प्रतिबंधित गदर पार्टी के प्रमुख समाचार पत्र गदर-ए-गंज की कुछ प्रतियों के साथ गिरफ्तार किया गया. परिणाम स्वरूप इन पर मुकदमा चलाया गया और 5 साल की सजा सुनाई गई. 23 मार्च 1931 को जब सुखदेव,भगत सिंह और राजगुरु को फांसी दी गई उस समय उधम सिंह  जेल में सजा काट रहे थे. सन् 1931 में   जेल से छूटने के पश्चात उधम सिंह गुप्तचर विभाग और पंजाब पुलिस को चकमा देते हुए कश्मीर के रास्ते जर्मनी पहुच गए तथा सन् 1934 में लंदन पहुचने में सफल हुए.

विदेशी यात्राओं व प्रवास का प्रभाव

उधम सिंह ने अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने विभिन्न छद्म नामों से चार महाद्वीपों -यूरोपीय, पूर्वी यूरोपीय, अफ्रीकी और अमेरिकी- देशों की यात्रा की. इन देशों में अफ्रीका (सन् 1920), नैरोबी (सन् 1921), अमेरिका(सन् 1924) जर्मनी , जिम्बाव्बे, ब्राजील, मिस्र, इथियोपिया, रूस और अंततः इंग्लैंड (सन् 1934) मुख्य हैं. सन् 1920 में सिंह अफ्रीका जाने में सफल हुए अफ्रीका में उस समय रंगभेद की नीति( गोरे -काले में भेदभाव) व्यापक स्तर पर थी. उसका गहरा असर उधम सिंह के विचारों पर पड़ा. दक्षिण अफ्रीका तीन साल के अपने प्रवास के समय़ रेलवे वर्कशॉप में नौकरी की तथा दक्षिण अफ्रीका वह एक अच्छा वक्ता और अंग्रेजी भाषा का माहिर हो गया.

चार विश्व के महाद्वीपों की यात्राओं व प्रवास के समय अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने उसने जर्मनी के राष्ट्रवादियों , रूस  के साम्यवादियों व अफ्रीका,अमेरिका और इंग्लैंड में ब्रिटिश साम्राज्यवादी विरोधियों से संपर्क स्थापित किया. परिणाम स्वरूप, उधम सिंह के चिंतन एवं व्यक्तित्व में अभूतपूर्व परिपक्वता आई.

छद्म उपनाम : लंदन मेट्रोपॉलिटन पुलिस रिपोर्ट (फ़ाइल)

क्रांतिकारी गतिविधियों को चलाने के लिए क्रांतिकारियों को अनेक रूप और अनेक नाम धारण करने पड़ते हैं ताकि उनकी पहचान न की जा सके. भगत उधम सिंह ने भी अपनी पहचान छुपाने के लिए समय-समय पर नाम और ड्रेस में परिवर्तन किए. परिणाम स्वरूप भगत सिंह की भांति सिख धर्म के प्रतीकों का परित्याग करके ‘क्लीन शेव्ड’ हो गए और हेट ,बढ़िया सूट भी उसकी पोशाक का हिस्सा रहे हैं. लंदन मेट्रोपॉलिटन पुलिस फ़ाइल मेपो(Police File MEPO 3/1743) के अनुसार उसने अपने अपेक्षाकृत छोटे जीवन में विभिन्न चरणों में अपनी पहचान छुपाने के लिए अनेक नाम रखे– उदे, शेर सिंह, उदय फ्रेंक ब्राजील, उदे सिंह, उदबन  सिंह, उधम सिंह कम्बोज, मोहम्मद सिंह आजाद तथा राम मोहम्मद सिंह आजाद. मेट्रोपॉलिटन पुलिस रिपोर्ट फ़ाइल MEPO 311743 दिनांक 16 मार्च 1940 के अनुसार वह एक बहुत ही सक्रिय, खूब यात्रा करने वाला, राजनीति से प्रेरित, धर्मनिरपेक्ष सोच वाला युवक था, जिसके जीवन में कुछ महान उद्देश्य थे और वह भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति तीव्र घृणा से प्रेरित था.

राम मोहम्मद सिंह आजाद

राम मोहम्मद सिंह आजाद वास्तव में संप्रदायिक सद्भाव ,धर्मनिरपेक्षता ,सहनशीलता और गंगा- जमुनी संस्कृति व पंजाबियत का प्रतीक है .’राम’ हिंदू धर्म से,’ मोहम्मद’ इस्लाम धर्म से तथा ‘सिंह’ सिख धर्म से संबंधित हैं. इसी पंजाबियत —दूसरे शब्दों में अपने नाम के साथ तीन धर्मों को जोड़ कर राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रीय एकता ,विभिन्न धर्मो में सौहार्दपूर्ण संबंधों को प्रेरित करने का प्रयास किया.उनका यह नाम लघु संकीर्णताओं– धर्म, जाति व क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्रवाद तथा धर्मनिरपेक्षवाद को अपनाने की प्रेरणा देता है. वर्तमान संदर्भ में जहां धार्मिक  कट्टरवाद के नारे गूंज रहे हैं वहां यह बहुत अधिक प्रासंगिक नाम है.समय की नजाकत है कि लोगों को लघु संकीर्णताओं से मुक्त होकर समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देना चाहिए ताकि लोगों को न्यूनतम सुविधाएं- रोटी, कपड़ा ऱोजगार,मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त हो, भुखमरी से आजादी हो और भारत एक समृद्ध राष्ट्र बन सके जैसा के उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों का स्वपन था. यद्यपि उस समय भारत अंग्रेजी साम्राज्य में एक गुलाम राष्ट्र के रूप में था.परंतु क्रांतिकारी परंपरा का अनुसरण करते हुए उधम सिंह ने कभी भी अपने आप को पराधीन नहीं समझा.यही कारण है कि उन्होंने अपने नाम के साथ‘आजाद’ शब्द जोड़ा.आजाद का अभिप्राय‘स्वतंत्र’ है .

उधम सिंह का इंग्लैंड में प्रवास-निवास स्थान में बार-बार परिवर्तन: पुलिस और गुप्तचर विभाग असमंजस में

उधम सिंह अपने नाम की भांति लंदन में अपने निवास स्थान का लंदन में पता पर बदलते रहे .सन् 1934 में राम मोहम्मद सिंह के नाम से पासपोर्ट बनवा कर लंदन जाने में सफल हुए एवं 9 एडलर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर एक घर किराए पर लिया.12 मई 1936 को जब उसने हॉलैंड. जर्मनी, पोलैंड, ऑस्ट्रेलिया ,हंगरी और इटली के पासपोर्ट के लिए अप्लाई किया तो उसने 4 ड्यूक स्ट्रीट स्पाईटल फील्ड -इ -एड्रेस लिखा था . 26 जून 1936 को जब वह लेनिनग्राड से लंदन वापस आया तो उसने वेस्ट एंड ऑफ लंदन अपना एड्रेस बताया . लंदन में रहते हुए, वे फिल्म स्टूडियो में भीड़ के दृश्यों पर अंतराल में काम करते रहे थे. निवास स्थान में बदलाव के कारण उधम सिंह को ब्रिटिश पुलिस और गुपत्चर विभाग नहीं पकड़ सका. राष्ट्रीय पंजीकरण तिथि पर उसे सीरियल नं. इएसीके/ 305/ 7 (Serial NO. EACK /305/ 7)के तहत “आजाद सिंह’ के नाम पर पंजीकृत किया गया जिसमें अपना पता 581, बिम्बोम्ब रोड, बौर्नमाउथ व अपना व्यवसाय बढ़ई का बताया गया था. गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट(23 फरवरी 1938) के अनुसार उधम सिंह इंडियन स्टूडेंट्स हॉस्टल गोवर स्ट्रीट, ङब्ल्यू सी में भी रहा. गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया कि उधम सिंह ने अपना पता 30,चर्च लेन , ई भी बताता रहा. परंतु जब गुप्तचर विभाग ने वहां छापा मारा तो वहां निवास स्थान की अपेक्षा वेयर हाउस था. उधम सिंह इस बात को जानता था कि ब्रिटिश गुप्तचर विभाग की उसकी राजनीतिक गतिविधियां पर निरंतर निगरानी है.उधम सिंह का इंग्लैंड में प्रवास-निवास स्थान में बार-बार परिवर्तन ने पुलिस और गुप्तचर विभाग को असमंजस में स्थिति में डाल दिया और उसे  गिरफ्तार नहीं जा सका.लंदन में रहते हुए अगस्त 1938 में उधम सिंह पर एक मुकदमा भी चलाया गया .परंतु वह ट्रायल के बाद छूट गया. 1 सितंबर 1939 को द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ. इस युद्ध के दौरान ब्रिटिश पुलिस और गुप्तचर विभाग इंगलैंड में युद्ध विरोधियों की निगरानी पर लग गए. परिणामस्वरूप उधम सिंह की निगरानी कम हो गई. उसके उद्देश्य की पूर्ति में यह लाभदायक सिद्ध हुई.

उधम सिंह और भगत सिंह में घनिष्ठ संबंध : भगत सिंह का प्रभाव

उधम सिंह और भगत सिंह सिंह में मैत्रीपूर्ण घनिष्ठ संबंध थे. उधम सिंह भगत सिंह को अपना परम मित्र और गुरु दोनों मानते थे. भगत सिंह और उधम सिंह के चिंतन और कार्य पद्धति में अद्भुत समानताएँ निम्नलिखित हैं:

1.दोनों के चिंतन पर जलियांवाला बाग के  सुनियोजित नरसंहार( 13 अप्रैल 1919),गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन, बब्बर अकाली लहर,  ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय नेताओं व आंदोलनों और क्रांतिकारी संगठनों का प्रभाव था.

  1. दोनों के चिंतन पर अभूतपूर्व महंगाई,बेरोजगारी,भूखमरी,जनता पर कर्ज, भारतीय एवं विदेशी पूंजीपतियों व साम्राज्यवादी सरकार व भारतीय नरेशों ,नवाबों और राजाओं के द्वारा के द्वारा जनसाधारण का शोषण व अत्याचारपूर्ण नीतियों का प्रभाव था.

3.दोनों ने इन समस्याओं को समूल नष्ट करने का प्रण लिया तथा दोनों ही शोषण रहित समतावादी समाज की स्थापना के पक्षधर थे. अन्य शब्दों में, वर्तमान संदर्भ में दोनों का चिंतन उदारीकरण,निजीकरण,वैश्वीकरण,पूंजीवादऔर कॉरपोरेट्रीकरण के विरुद्ध है.

4.दोनों धर्म,संप्रदायवाद, पाखंडवाद, व अंधविश्वास के विरुद्ध थे . भगत सिंह  की भांति उधम सिंह की क्रांतिकारी ज्वाला राष्ट्र और सिद्धांतों के लिए अपने जीवन की कुर्बानी करने के लिए तैयार थे क्योंकि दोनों को मृत्यु दंड का कोई खौफ नहीं था.

  1. यद्यपि भगत सिंह तथा अन्य क्रांतिकारियों की भांति उधम सिंह भी गांधीवादी तरीकों के विरूद्ध थे.इसके बावजूद भी भगत सिंह ने लाहौर सेंट्रल जेल में116 दिन भूख हड़ताल की. जब उधम सिंह को इंगलैंड की जेल में   यातनाएं दी गई तब विरोध स्वरूप उसने भूख हड़ताल की जो 42 दिनों तक चली.
  2. भगत सिंह तथा अन्य क्रांतिकारियों की भांति उधम सिंह के भी दो प्रसिद्ध स्लोगन-‘इंकलाब जिंदाबाद’ व ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ थे.

उपरोक्त समानताओं से स्पष्ट होता हैकि उधम सिंह के चिंतन पर भगत सिंह के चिंतन बहुत अधिक प्रभाव था.

उधम सिंह  : क्रांतिकारी संगठनों के सक्रिय सदस्य व संगठनकर्ता

भारतीय मजदूर संघ, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन, (भारत), इलेक्ट्रीशियन यूनियन (इंग्लैंड), वर्कर्स एसोसिएशन (IWA), और ग़दर पार्टी (अमेरिका) जैसे क्रांतिकारी संगठनों सक्रिय सदस्यता ने भी उन पर प्रभाव डाला.भारतीयों को क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए संगठित करने हेतु, उधम सिंह ने लंदन में “आज़ाद पार्टी” की स्थापना भी की थी.

संक्षेप में  समय के साथ, कई कारकों ने उधम सिंह के सराहनीय चरित्र और मूल्यों को प्रभावित किया. बचपन में ही अपने माता-पिता और भाई मुक्ता सिंह की मृत्यु(1917), अभावग्रस्त पालन-पोषण, अकेलेपन, पारिवारिक गरीबी और अनाथालय में जीवन के कारण, वे मनोवैज्ञानिक रूप से एक साहसी, कठिन और जुझारू युवक थे. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा भारतीय संसाधनों का शोषण, भारतीय लोगों के विरुद्ध किए गए भयानक अपराध और अत्याचार, तथा उनकी गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी, इन सभी ने उनके विचारों को प्रभावित किया. हालाँकि, उनके राजनीतिक दर्शन पर 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में हुए सुनियोजित हत्याकांड का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा. बब्बर-अकाली लहर, मार्क्सवाद, लेनिनवाद और बोल्शेविज्म, साथ ही भारतीय मजदूर संघ, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (भारत), इलेक्ट्रीशियन यूनियन (इंग्लैंड), वर्कर्स एसोसिएशन (IWA), और ग़दर पार्टी (अमेरिका) जैसे क्रांतिकारी संगठनों ने भी उन पर प्रभाव डाला. उन्होंने चार महाद्वीपों के एक दर्जन से ज़्यादा देशों की यात्राएँ कीं. भारतीयों को क्रांतिकारी उद्देश्यों के लिए संगठित करने हेतु, उधम सिंह ने लंदन में “आज़ाद पार्टी” की स्थापना भी की . भगत सिंह के चरित्र, विचारों और निस्वार्थता ने उधम सिंह को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया. उधम सिंह और भगत सिंह के बीच मैत्रीपूर्ण और घनिष्ठ संबंध थे। भगत सिंह, उधम सिंह के सबसे अच्छे “मित्र” और “गुरु” थे।

व्यक्तिगत का जीवन

उधम सिंह के संबंध में यह धारणा है कि वह अविवाहित थे .सिकंदर सिंह के अनुसार अमेरिका के प्रवास के दौरान फरवरी 1922 में, अमेरिका के कैलिफोर्निया के क्लेरमॉन्ट में  उधम सिंह की मुलाकात एक मैक्सिकन महिला, लूपे हर्नांडेज़ (Lupe Hernandez) नामक सुन्दर व मोटी आंखों वाली युवती से हुई. सन् 1923 में, उसने लूपे हर्नांडेज़ से विवाह कर लिया. सन् 1924 के जॉनसन-रीड (आव्रजन) अधिनियम के कारण, अमेरिका में भारतीय पुरुषों को हिस्पैनिक पत्नियाँ( Hispanic wives ) रखनी पड़ी.अन्यथा उन्हें अमेरिका से निष्कासित कर दिया जाता. उधम सिंह ने एक स्टेटमेंट में स्वयं स्वीकार किया कि उसके दो बेटे थे. वह दोनों क्लेरमॉन्ट (Claremont) के सैक्रामेंटो (Sacramento)स्कूल में पढ़ते थे.उन दोनों बच्चों को स्कूल में भारत के पुत्रों(India’s Sons) के नाम से पुकारा जाता था. सन् 1935 में उधम सिंह की पत्नी स्वर्ग सुधार गई और उसके दोनों पुत्रों को उनकी माताजी (लूपे हर्नांडेज़) के रिश्तेदार एरीजोना (यूएसए) में ले गए.

ब्रिटिश गुप्तचर   रिपोर्ट के अनुसार अपने इंग्लैंड के प्रवास के समय उधम सिंह  नवंबर 1936 में एक श्वेत महिला शादी कीऔर वे दोनों वेस्ट एंड ऑफ लंदन रहे थे. परंतु ब्रिटिश गुप्तचर रिपोर्ट में यह पुष्टि नहीं है कि इस शादी से उनकी कोई औलाद थी.

सर माइकल ओ’ डायर  की हत्या: 13 मार्च1940

अनेक देशों की यात्रा करते हुए ऊधम सिंह सन् 1934 में लंदन जाने में सफल हुए. सन् 1940 में जलियांवाला हत्याकांड के 21 वर्ष के बाद ऊधम सिंह का मुकाम पूरा होने का वक्त आया. जब लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन तथा रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की ओर से अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति और मुस्लिम देश विषय पर सभा का आयोजन किया गया. सभा की अध्यक्षता भारतीय मामलों के सचिव लॉर्ड जेटलैंड कर रहे थे. सर माइकल ओ’ डायर (सन् 1913 से सन् 1919 पंजाब के लेफ्टिनेंट  गवर्नर) ने अपने भाषण में भारतीयों के लिए अपमानित शब्द इस्तेमाल किए. सभागार में ऊधम सिंह ने 3 गज की दूरी से सर माइकल ओ डायर को दो गोलियां ठोक दी और उसकी मौके पर मौत हो गई। मंच पर आसीन लुइस डेन, लारेंस, चाल्र्स सी. बैल्ले, लॉर्ड जेटलैंड व लॉर्ड लेमिंगटन को भी गोलियां लगी लेकिन वे बच गए. लॉर्ड लेमिंगटन का बायां हाथ जख्मी हो गया और वे औंधे मुंह फर्श पर गिर पड़े .

मदनलाल ढींगरा व उधम सिंह: सर्जिकल स्ट्राइक–शत्रु के घर ( इंगलैड) में घुसकर मारने सर्वोत्तम उदाहरण

शत्रु के घर ( इंगलैड) में घुसकर मारने वाले प्रथम  शहीद वीर मदनलाल ढींगरा थे,और द्वितीय शहीद-ए -आजम उधम सिंह हैं. शत्रु के घर में घुसकर मारने की सर्जिकल स्ट्राइक के यह सर्वोत्तम उदाहरण हैं.दोनों को इंग्लैंड में फांसी पर चढ़ा दिया गया.वीर मदनलाल ढींगरा इंग्लैंड में फांसी पर चढ़ने वाले पहले भारतीय क्रांतिकारी थे. लंदन में भारतीय सचिव के राजनीतिक सलाहकार सर विलियम कर्जन वायली की हत्या के जुर्म में  17 अगस्त 1909  में क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा को इंग्लैण्ड में फाँसी दी गई थी. देश के बाहर फाँसी की सज़ा पाने वाले उधम सिंह दूसरे क्रांतिकारी थे.31 जुलाई 1940 को ऊधम सिंह को सर माइकल ओ ‘डायर (सन् 1913 से सन् 1919 -पंजाब के लेफ्टिनेंट  गवर्नर) की हत्या के जुर्म में   पेंटनविले जेल में फांसी दी गई थी. इन दोनों ने विदेश में अपने उद्देश्य को पूरा किया परंतु जीवित स्वदेश वापस नहीं आए. यद्यपि दोनों क्रांतिकारियों की अस्थियों को कालांतर में भारत में लाया गया. ये दोनों क्रांतिकारी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण चर्चित और सम्मानित चेहरे थे . दोनों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज उठाने और अपने कार्यों से इतिहास बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

ओ’डायर की हत्या पर प्रतिक्रियाएँ

माइकल ओ डायर की हत्या की प्रतिक्रिया भारत में मिश्रित थी. महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार पत्र में 15 मार्च 1940 में लिखा कि ‘मुझे इस हिंसात्मक घटना का मुझे गहरा दुख हुआ है’ उन्होंने आगे लिखा कि ‘यह पागलपन है’. जब महात्मा गांधी के वक्तव्य की आलोचना हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के द्वारा की गई तो महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार पत्र (23 मार्च 1940) के संस्करण में कहा कि ‘दोषी उधम सिंह को बहादुरी के चिंतन का नशा है’. जवाहरलाल नेहरू ने नेशनल हैराल्ड में 15 मार्च 1940 को माइकल ओ डायर की हत्या पर ‘गहरा दुख’ व्यक्त किया .परंतु कालांतर में सन 1962 में दैनिक प्रताप में प्रकाशित वक्तव्य के अनुसार जवाहरलाल नेहरू ने कहा मैं शहीद –ए- आजम उधम सिंह को सम्मान पूर्वक नमन करता हूं क्योंकि उन्होंने फांसी के फंदे को चूम लिया ताकि हम आजाद हो’.

भारतीय समाचार पत्रों में सर्वप्रथम अमृतसर पत्रिका (कोलकाता)  व  स्टेट्समैन में उधम सिंह के कार्य की प्रशंसा की है. 18 मार्च 1940 के संस्करण में अमृत बाजार पत्रिका ने लिखा “माइकल ओ डायर का नाम पंजाब की उस घटना से जुड़ा हुआ है जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता”. लाहौर से प्रकाशित होने वाले द ट्रिब्यून ने 14 मार्च1940 को दिखा’ उधम सिंह ने वीरता पूर्वक काम किया है’. विदेशों में भारत सरकार के गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार ओ’डायर की मौत पर ‘’भारतीयों को महान संतुष्टि’ प्राप्त हुई है तथा उधम सिंह वास्तव में ‘स्वतंत्रता का योद्धाहै’.उधम सिंह ने हत्या करके भारतीयों में उत्साह की भावना की अग्नि को प्रज्वलित किया.

ब्रिटिश प्रेस की प्रतिक्रिया

डेली टेलीग्राफ ने  ओ’डायर हत्या को जलियांवाला बाग अमृतसर13 अप्रैल 1919 से जोड़ते हुए ‘एक पुरानी, दुखद स्मृति’ बताया और यॉर्कशायर पोस्ट ने  माना कि ओ’डायर का नाम ‘दर्दनाक यादें ताज़ा करता है’. यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि जलियांवाला बाग की घटना के साथ नरसंहार जोड़ने से परहेज किया गया है.यद्यपि इंग्लैंड के प्रसिद्ध समाचार पत्र द टाइम्स( लंदन) ने उधम सिंह को ‘स्वतंत्रता का योद्धा’ कहा.

धुरी राष्ट्रों -जर्मनी, इटली एवं जापान में प्रेस की प्रतिक्रिया

इंग्लैंड सहित मित्र देशों में उधम सिंह की आलोचना हुई. परंतु धुरी राष्ट्रों -जर्मनी, इटली एवं जापान में उधम सिंह के ‘शौर्य एवं पराक्रम’ की प्रशंसा की गई .जर्मन रेडियो के अनुसार ‘हाथियों की भांति भारतीय अपने शत्रुओं को कभी माफ नहीं करते. वह 20 वर्षों के पश्चात भी बदला ले सकते हैं’ .रोम से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र बर्गेरेट में इस घटना को ‘महान महत्वपूर्ण’ बताया तथा उधम सिंह के कार्य को ‘साहस पूर्ण’ बताकर प्रशंसा की. बर्लीनर बोर्सन जैतूगं ने इस घटना को ‘भारतीय स्वतंत्रता की मिसाल’ के नाम से संबोधित किया है

सेंट्रल क्रिमिनल कोर्ट ओल्डबैले में मुकदमा :पेंटनविले जेल में फांसी

इस घटना के पश्चात उधम सिंह पर सेंट्रल क्रिमिनल कोर्ट ओल्डबैले में मुकदमा चलाया गया. जब उधम सिंह के वकील वी.के. कृष्ण मैनन ने कोर्ट में कहा उधम सिंह का कत्ल करने का कोई इरादा नहीं था. वकील को धमकाते हुए उधम सिंह ने कहा :“ मेरा वकील मेरी जान बचाने के लिए झूठ बोल रहा है….. जान बचाने के लिए बहाने बनाना क्रांतिकारियों की परंपरा नहीं है. मैं अपने बलिदान से इंकलाब की ज्योति प्रज्वलित करना चाहता हूं”. उधम सिंह ने आगे कहा :“जलियांवाला बाग हत्याकांड के दिन ही मैंने प्रतिज्ञा की थी कि मैं इस खून का बदला लेकर रहूंगा. मुझे प्रसन्नता है कि अपने प्राणों की बाजी लगाकर इस घटना के 21 वर्ष  बाद आज मैंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली”.आज से 85 वर्ष पूर्व 31 जुलाई 1940 को उधम सिंह को पेंटनविले जेल में फांसी दी गई.

उधम सिंह का चिंतन: सपनों का भावी भारत कैसा हो?

उधम सिंह की जयंतियों एवं जन्म दिवस के समारोहों में एक महान राष्ट्रवादी कहकर इति श्री कर जाती है.परंतु इस बात का वर्णन नहीं किया जाता कि उधम सिंह के चिंतन में भावी भारत का स्वरूप क्या है?. हमें इस बात पर प्रकाश डालना चाहिए कि उधम सिंह के राजनीतिक विचार समाजवाद,मार्क्सवाद-लेनिनवाद, बोल्शेविज्म और गदरवादी क्रांतिकारियों के क्रांतिकारी विचारों और आदर्शों से अत्यधिक प्रभावित थे. वह केवल रोमांचकारी राष्ट्रवादी तथा खून का बदला खून से लेने वाले शेर नहीं थे .उनका मुख्य उदेश्य केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति प्राप्त करना ही नहीं था अपितु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक व शैक्षिक निज़ाम  में मूलचूल परिवर्तन करना था.उधम सिंह का मुख्य उद्देश्य भारत को मुक्ति दिलाना और हिंदू .मुस्लिम तथा सिख एकता स्थापित करना ,गरीबी, अज्ञानता तथा अशिक्षा को मूलरूप से समाप्त करना है.

उधम सिंह ने पेंटोविले जेल से 15 जुलाई 1940 को लिखा उसके सपनों का भावी भारत कैसा हो? उधम सिंह के अनुसार, ”हमारा सबका महान कर्तव्य देश की पुण्य भूमि से अंग्रेजों को बाहर निकालना है .तत्पश्चात हिंदू ,मुस्लिम एकता तथा सिख एकता स्थापित करना है ..भूखमरी अज्ञानता , अविद्या बीमारियों को समूल नष्ट करना है … जनता को न्याय मिले किसान और मजदूर को पेट भर भोजन मिले. विद्यार्थियों के लिए अच्छे स्कूल, कॉलेज और बच्चों तथा वृद्धों के लिए सुंदर क्रीड़ा स्थल तथा भव्य उद्यान हो .मेरी प्रबल इच्छा है जो धन भारतीय अभियोगों ,बाहरी ठोगों अथवा विवाहों की शान -ओ- शौकत पर व्यय करते हैं उनकी अपेक्षा उच्च शिक्षा पर खर्च करें .इससे मुझे विश्वास है कि आप लोग इन मूल्यों को आंकने का प्रयत्न करेंगे . मेरा देश उन्नत हो.”

 

अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उधम सिंह क्रांति को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे .उधम सिंह ने स्वयं अदालती बयान में कहा, ‘मैंने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के नीचे लोगों को तड़प -तड़प कर मरते देखा है .मैंने जो कुछ भी किया विरोध के तौर पर किया है ऐसा मेरा धर्म था, कर्तव्य था .विशेषकर मेरे प्यारे देश के लिए मुझे इस बात की तनिक भी चिंता तथा परवाह नहीं है इस संबंध में मुझे कितना दंड़ मिलेगा 10, 20 अथवा 60 वर्ष का कारावास या फिर फांसी का तख्ता .मैं किसी भी निर्दोष व्यक्ति को मारना नहीं चाहता था. केवल विरोध करना चाहता था’ .उसने 30 मार्च 1940 को अपने मित्र सिंह को लिखा,’ मुझे मौत का डर नहीं है मुझे हर हाल में भरना है और उसके लिए मैं हर समय तैयार हूं .मौत से नहीं डरता. मैं शीघ्र मौत से शादी करने वाला हूं .मुझे जरा भी अफसोस नहीं है’

यद्यपि अमर शहीद उधमसिंह व अन्य क्रांतिकारियों का मुख्य उद्देश्य केवल मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं था अपितु ऐसा भारत का निर्माण करना था जिसमें भूख ,गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, अज्ञानता ,आर्थिक शोषण, आर्थिक और सामाजिक विषमता इत्यादि न हो .परंतु आज भी भारत में गरीबी महंगाई, बेरोजगारी, अज्ञानता ,अशिक्षा ,आर्थिक शोषण, आर्थिक और सामाजिक विषमता,राजनीतिक अपराधीकरण ,संप्रदायवाद, जातीय भेदभाव, दलित शोषित व आदिवासियों की दयानीव स्थिति, महिलाओं पर बढ़ते हुए निरंतर अत्याचार, पुलिस ,अपराधियों, राजनेता और नौकरशाही का बढ़ता हुआ गठबंधन, राजनीतिक भ्रष्टाचार बहुराष्ट्रीय कंपनियों का राजनीतिक व्यवस्था पर हावी होना और सरकारी बैंकों का मुंडन संस्कार करना यह सभी बातें क्रांतिकारी के चिंतन के विरुद्ध हैं. यही कारण है कि आज भी शहीद-ए-आजम उधम सिंह का चिंतन प्रासंगिक है.

लेखक  समाज वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य ,दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा)  हैं।