इस्मत आपा: आज़ाद ज़िन्दगी का सिर्फ ख़्वाब ही नहीं देखा, जी कर भी दिखाया और दूसरों के लिए रास्ते बनाए

जन्मदिन पर विशेष

इस्मत आपा: आज़ाद ज़िन्दगी का सिर्फ ख़्वाब ही नहीं देखा, जी कर भी दिखाया और दूसरों के लिए रास्ते बनाए

हफीज़ किदवई

जाँनिसार अख़्तर का इंतेक़ाल हो गया था । लाश रखी हुई थी,कुछ औरतें रो रहीं थीं,उनके बीच एक औरत पछाड़ खाकर रो रही थी । वह उनकी रिश्ते की बहन थीं । रोते रोते बोली की बेवा किधर हैं । अरे बेवा को बुलाओ,उनकी चूड़ी तोड़ो । यह सब सुनते हुए,वहाँ बैठी एक औरत चीख उठी । यह बेवा बेवा क्या लगा रखा है । उस औरत ने जाँनिसार अख़्तर की इस बहन को खूब खरी खोटी सुनाई और कहा कि जब औरत मरती है, तब आदमी को रंडुआ कहकर क्यों नही पुकारते हैं । तब कहा करो कि हाय रंडुआ किधर है, बुलाओ उसकी चश्मा घड़ी तोड़ो । यह औरत बरस रही थी और लोग खामोशी से उस हिम्मत को देख रहे थे,जो सोचते तो ज़्यादातर सब थे मगर कह नही पा रहे थे ।

यह जो कहने की हिम्मत थी,यही तो उस औरत को इस्मत बनाती थी,हमारी इस्मत आपा । जो चोटें,कलियाँ लिखती,अजीब आदमी और मासूमा जैसी कलम की शिनाख्त गढ़ती । ज़िद्दी और बुज़दिल जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखतीं । जो नाटकों,फिल्मों,कहानियों,उपन्यासों में अपने हर तजुर्बे को दर्ज करके ज़माने के सामने रख देती मगर ज़माना था कि उनकी सिर्फ एक कहानी पर आकर टिक जाता था । मैं उस कहानी का नाम नही लिखूंगा,क्योंकि इस्मत आपा को बहुत कोफ्त होती थी कि एक से एक उम्दा कहानियों पर वह कहानी ओढ़ा दी जाती है । इस्मत आपा की ज़िन्दगी के साथ उस कहानी को जोड़ दिया गया,जबकि उनकी कलम ने एक से एक जादू गढ़े और ज़िन्दगी ने तो करामात ही किये हैं ।

कहते हैं कि बचपन में भाइयों के साथ उन्हें उनकी मां घोड़े पर नही बैठने देती थी । इस्मत आपा को सफेद घोड़े की सवारी बड़ी पसन्द थी मगर सवारी करने को मिले, तब न,आख़िर वालिद से ज़िद करके घोड़े पर बैठने का हक़ पा लिया । यह जो हक़ हासिल करना था न,यह आपा को बहुत बचपन से आता था । वह लड़ लड़ कर हर वह चीज़ हासिल करती,जो उनसे छीन ली जाती या जिसपर उन्हें हक़ न हासिल होता । वह औरत और मर्द के फ़र्क़ के खिलाफ एक तेज़ाब थीं । जो बहता और ज़मीन पर अपना निशान छोड़ जाता ।

आज जो आप औरतों की बराबरी को देखते हैं । उन्हें अपने हक़ को हासिल करते हुए देखते हैं । यह सब इस्मत आपा जैसी शख्सियतों का कमाल है । जो ज़मानों पहले, ज़माने से भिड़ी हुई थीं और चीख चीख कर कह रही थीं । अपनी दकियानूसी बातों को दफन करदो,वरना कोई इस्मत जागेगी और तुम खून की उल्टी करोगे ।

इस्मत आपा ललकारती थीं मगर कितनो को पता है कि वह अपनी ख़्वाहिशों को भी मार लेती थीं । उनकी डायरी पढ़िए और देखिये एक तरफ शौहर शाहिद लतीफ हैं, तो दूसरी तरफ़ औरतों के हक़ों का झंडा बुलंद किये इस्मत आपा हैं । जो शाहिद से शादी के वक़्त भी कहती रहीं कि मत करो मुझसे शादी,बाद में पछताओगे । वह शाहिद को आगाह कर रही थीं । यही नही,जब बम्बई में इस्मत के छोटे भाई यह देखने आए की इस्मत शादी किससे कर रहीं,तो उसने भी कहा,बहन,क्यों बेचारे सीधे सादे इंसान को तबाह करने जा रही हो । इस्मत ने हंस कर कहा कि हम तो मना ही कर रहे, मगर जिसे तबाही लानी ही हो,तो क्या कर सकते हैं । इस्मत अपना मज़ाक उड़ाती मगर वह नहीं कहतीं,जो डायरी में लिख दिया ।

आपा ने लिखा कि वह अब सपाट चप्पल पहनती हैं, कि कहीं शाहिद से लंबी न दिखें । मेकअप भी नही करतीं की कहीं उनसे खूबसूरत न दिखें और अब तो कुछ अच्छा लिखती भी नही हैं कि कहीं शाहिद को एहसास ए कमतरी न हो जाए । अरे भला,यह इस्मत कौन है । यह तो वह लड़ने वाली इस्मत नही है । यह तो वह लड़कीं नही है, जिसका मरते मरते मर जाने तक भी उसकी माँ ने मुँह नही देखा । वह जो भाइयों से लड़ती थी । लड़कर अपना हिस्सा,अपना हक मांगती थी । यह भला वह इस्मत तो नहीं । असल में जो इस्मत को कभी नही मिला,वह थी मोहब्बत । जो शाहिद से मिली, उसकी कद्र में इस्मत दोबारा औरत बन गई,पहली बार मंटो के लिए वह औरत बन गई थी ।

लखनऊ में अमीरउद्दौला लाइब्रेरी में बैठकर मैंने इस्मत आपा को तबियत से पढ़ा है या कहें देखा है । मुझे वह आईटी कॉलेज से निकलती हुई नज़र आतीं तो कभी चारबाग में बिना नकाब पहने खड़ी दिखतीं । वह नकाब जो सब कहते कि पहनो और वह उसे बिस्तरबंद में घुसेड़ देतीं । झक मारकर नँगे सर वह, सब ढके सरों के साथ बाहर आतीं और हम गर्दन ऊंची करके उन्हें पहचान लेते । वह मुझसे बातें करतीं,सआदत खां के मकबरे पर बैठकर मुझे बतातीं कि ज़िन्दगी की क्या क्या तपिश सही,रिश्तों को टूटते देखा,दोस्तों को मज़ाक उड़ाते देखा,अपनो को पराया होते देखा मगर रोई नहीं । रोती ही नहीं थीं इस्मत आपा मगर जाने क्यों आखरी दिनों में इमाम हुसैन की चौखट पर दिल अटक गया ।

काले कपड़े पहने टहलतीं । मुझसे कहती कि हफ़ीज़,यह लखनऊ,यह अनीस और यह हम । मैं जब उनकी “एक कतरा खून” पढ़ता, तो वह मेरे बगल में मीर अनीस बनकर अपने इस उपन्यास को मर्सिये की तरह सुनातीं और हम दोनों रोते। मैं जब जब उन्हें पढ़ता, तो वह मेरे बगल में आकर बैठ जातीं और ज़िन्दगी का कोई किस्सा छेड़ देतीं ।

हम ख्यालों में मिलते रहे । एक रोज़ पता चला कि वह जला दी गईंं । शायद कोई संस्मरण पढ़ रहा था । अब तक उनकी मौत नही पढ़ी थी तो पता भी नहीं था । उस दिन देखा कि किसी ने कहा कि इस्मत मर गईं । मजरूह सुल्तानपुरी वगैरह लपके की कब्रिस्तान में बढ़िया जगह पर उन्हें दफनाए । मगर जब जगह का इंतज़ाम करके वह लोग पहुँचे, तो पता चला कि वह जला दी गईं । उनकी आखरी ख्वाहिश थी कि बिना किसी को बताए,शमशान में उन्हें जला दिया जाए और जला दिया गया ।

तब मुझे याद आया कि दिलकुशा की कोठी में उन्होंने कहा था कि उन्हें अंधेरे से डर लगता है । कब्र के अंधेरे से तो और भी बहुत डर लगता है । यार,मुझे कब्र वब्र में नही जाना,मुझे जला देना । अरे यह मज़ाक भी सच हो गया । वह ऐसी ही थीं,जो ज़ुबान से निकल गया,उसकी कीमत की परवाह किये बिना,वह उसे पूरा करती और कब्र के अंधेरे को छोड़कर उन्होंने चिता की रोशनी चुनी और ठसक से उठकर चली गईं ।

आज मेरी इस्मत आपा का जन्मदिन है । हम उन्हें याद कर रहे हैं । आप भी कीजिये । वह कभी भी भुलाई न सकने वाली शख़्सियत हैं । सलाम है उस लेखक को जिसने एक आज़ाद ज़िन्दगी का सिर्फ ख़्वाब ही नही देखा बल्कि जीकर भी दिखाया और दूसरों के लिए रास्ते बनाए । उनकी अहमियत और बढ़ेगी,मेरी बात याद रखियेगा । इस्मत आपा की चमक अभी बाकी है, जो ज़माने को अपनी ज़द में ले लेगी । इस्मत आपा आपको बहुत सलाम,आपकी कलम और ज़िन्दगी,दोनों के लिए…

लेडी चं गे ज़ खां आज के रोज़ जन्मी तो आज ही पॉम पॉम डार्लिंग यह दुनिया छोड़ गईं । दोनों गज़ब थीं,पॉम पॉम डार्लिंग पर शाम को बात करते हैं…
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