नागार्जुन की कविता का निहितार्थ
विमल वर्मा
रचनाकार का अन्तःकरण एक रणस्थल होता है। वह शब्दों से अपने भीतर और बाहर युद्धरत रहता है। बहुत पहले यूरोप की एक कवयित्री ने लिखा था- इस बीसवीं सदी की अवसान की बेला में मानो हम जलते अंगारों पर पालथी मारकर बैठे हैं। वर्तमान राजनीति को कविता में रूपान्तरित करने वाले नागार्जुन की कविता की निम्न पंक्तियों की भावानुभूति भी जैसे वही परिदृश्य रचती है-
” कैसा लगेगा तुम्हे?
कुटिल मायावी दस्यु यदि
हलाहल को घोल जाएं गंगा-यमुना के जल में
जहरीली गैस से कर दें यदि दूषित दक्षिण समीर को
” कैसा लगेगा तुम्हे?
जंगली सूअर यदि ऊधम मचाएं
तहस-नहस कर डालें फसलें।
एक ओर यह कविता उस समय लिखी गयी थी जहां एक ओर नई कविता में शीत युद्ध की परछाईं डोल रही थी।। अस्तित्वहीनता की गूंगी बहरी प्रवंचनाओं को मुंह बाए खड़ा किया जा रहा था। वहीं बाबा को नाजी काल के पूर्व और उस काल के हारर के स्मरण की प्रतीति इस भयावह दुःस्वपन के भावादर्श की चिंता, भावी विनाश की इंगिति- ” कैसा लगेगा तुम्हें ” भावी हस्तक्षेप और संघर्ष का आह्वान करती लगती है। यद्यपि पाठक निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं होता। वह टेक्स्ट (पाठ) से प्रेरित होक यह सोचने को विवश हो जाता है कि कवि ने जिस संरचनात्मक मुद्दे को सम्बोधित किया है उसमें अन्तर्निहित आज के विशेष समय मे राजनीति की बुनावट क्या है। इसी भयावह परिदृश्य के चुनाव में कवि के अपने पक्ष का संघर्ष ही नहीं उजागर होता बल्कि हम बुद्धिजीवियों को भी सचेत करता है कि हमने उस शोषित, पीड़ित, अवहेलित वर्ग के लिए क्या किया है? जो उनकी तरह आक्रामक साम्राज्यवादी कारकों के संस्कृति से परिचित नहीं हैं।
नागार्जुन जन-चेतना और विशेषकर गरीब किसानों की अन्तर्विरोधी चेतना से वाकिफ हैं। इसीलिए वे कृषि-बिम्बों में सोचते हैं।
” देख कर पदमर्दित उत्कट सुरभिवाली दूधिया बालें
देख कर भूलुंठित कुचली कनक मंजरियां
टूक टूक हो यदि हृदय लोक लक्ष्मी का
कैसा लगेगा तुम्हें?”
तब भी और आज भी आततायी विचारधारा तीसरी दुनिया के टेक्स्ट का नियमन करती है। लेकिन हर अलग अलग देश वैचारिक और सांस्कृतिक विवादों की संश्लिष्टता से निर्मित होता है। रचनाशीलता अपने रचाव से पाठकों को यह बोध कराती है कि हम किन परिस्थितियों में किस प्रकास वस्तुगत संस्कृति में जी रहे हैं। रचनात्मकता उन तंत्रों की ओर इशारा करती है जो अच्छे और बुरे रूप की ओर निर्देशित करते हैं। इसी बोध का निहितार्थ है कि हम उसे समझें कि शीतयुद्ध से निर्मित वर्चस्ववादी प्रयासों से लोहा लें।
एक दूसरी कविता में उत्पीड़ितों की शक्ति के बारे में उन्होंने लिखा है-
” खड़ी हो गयी तानकर कंकालों की हूक,
बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक।।”
इसी शक्ति को समझकर वह युद्ध की विनाशलीला की कल्पना करते हुए किसानों को सचेत और संगठित होने के लिए उस विनाश लीला का का बिम्ब रचते हैं-
“बारूदी शोलों से दहकें अमराइयां
झुलस-झुलस राख हो ताम्रचूड़ आम्र पल्लव
वेणु वन ठूंठ हों, ठूंठ हों शाल वन
खा-खाकर आंच फटे महुआ की रग-रग
दूधिया खून बहे, बह-बहकर जमता जाए
कैसा लगेगा तुम्हें ?”
कवि भाषा के इस दृश्य को बिम्ब में ढाल देता है। इस प्रकार लेखक का सांस्कृतिक विवेक पूंजी की यात्रा के प्रत्येक विनाशक प्रयास में हस्तक्षेप करता है। यहां किसान की प्राणमयी शक्ति प्रकृति के संवेदनात्मक बनावट के भीतर कवि का चिन्तन मुखर हो उठा है। यही कविता में कवि व्यक्तित्व की निजता शब्दों की भावभंगिमा में अभिव्यक्ति पाती है। इस तरह नागार्जुन ने दृश्यों के माध्यम से प्रभुत्ववादी ताकतों को विमर्श बनाया है। क्या यह स्वप्न और संघर्ष यथार्थवादी नहीं है। पाठक भी कवि के वाक् के अर्थ स्तरों की खोज की पद्धति तलाश लेता है। क्योंकि जब यहां दृश्य बिम्ब में बदलते हैं तो उसे अवधारणा बना देते हैं।
कवि के चुनाव में भी विराट नैतिक संघर्ष छिपा रहता है।
लेखक – विमल वर्मा
प्रश्न उठता है कि इस कविता के समकालीन सन्दर्भ का। आज का परिदृश्य यह है कि जहां एक ओर समृद्धि का नरक है, वहीं अस्सी प्रतिशत जनता की लहूलुहान करुण गाथा है। नयी आर्थिक नीति के मरुस्थल की मृगमरीचिका में सम्मोहक मिथ, विभ्रम, विकृत आनंद चेतना में जादुई चकाचौंध है। इस उल्टी कालयात्रा में कांगो से इंडोनेशिया तक जनसंहार, ईराक, अफगानिस्तान में बारूदी शोलों की लपलपाती अग्निशिखा, मिश्र, इंडोनेशिया, पाकिस्तान आदि मुस्लिम धर्मोन्माद का आतंक, भारत में आरएसएस का आतंकवाद की जो अमरीका विधिवत संरक्षण और प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष प्रोत्साहन दे रहा है। वह दृश्य क्या नागार्जुन की इस कविता में नहीं दीखता।
भोगवाद के उत्ताप की प्रतियोगिता में हमारे मनोजगत का जिस तरह उपनिवेशीकरण कर रही है, क्या वह नाजीवाद की पगध्वनि की आहट नहीं है? भयंकर बेकारी वर्तमान शासन व्यवस्था के प्रति वितृष्णा, प्रगतिशीलता की पराजय के प्रति ग्लानि, साम्राज्यवादी संस्कृति का बहुआयामी आक्रमण विनाशकारी भावादर्श कहां ले जाएंगे?
इसीलिए कविता की निम्न पंक्तियां-
” भौतिक भोगमात्र सुलभ हों भूरि-भूरि
विवेक हो कुंठित
तन हो कन काम, मन हो तिमिरावृत !
कमलपंथी नेत्र हों बाहर – बाहर
भीतर की आंखें निपट- निमीलित !
यह कैसे होगा ?
यह क्यों कर होगा ?”
इस कविता पर सोचते हुए मुझे जिनेवा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जार्ज स्टाइनर के लेख की पंक्तियां —
” गेस्टापो… द्वारा इंसान के भीतर जो कुछ इंसानियत है उसे तबाह कर दिया जाए और हुकूमत चलाने के रास्ते में जो कुछ पशुवत है उसे बरकरार किया जाए।
… जर्मन लेखकों का क्या हुआ? बहुत सारे कन्सेन्ट्रेशन कैम्प में मार दिए गए। कुछ अन्य मसलन वाल्टर बेंजामिन ने गस्टापों के हाथ लगने से पहले ही अपने को मार लिया। कुछ बड़े लेखक निर्वासन में चले गये। श्रेष्ठ नाटककारों में ब्रेख्त, जुकमेयर, प्रमुख उपन्यासकार टामसमान, वेरफेल, फ्यूख्त वैगर, हेनरिख मान, स्टिफेन ज्विग, हरमन बाख आदि।”
यह उद्धरण नागार्जुन की कविता के निहितार्थ के सहारे दिन-प्रतिदिन उद्घाटित हो रहे बिन्दुओं के अन्तर्संबंधों को समझने की प्रेरणा देता है।