बदलाव की राह तलाशतीं हरियाणवी गज़लें

पुस्तक समीक्षा

बदलाव की राह तलाशतीं हरियाणवी गज़लें

‘खड़तल कहणा ओक्खा सै’ में बेमिसाल है शायर मंगतराम शास्त्री की बेबाकी

अरुण कुमार कैहरबा

हाल ही में प्रकाशित हुआ शायर मंगतराम शास्त्री ‘खड़तल’ का हरियाणवी गज़ल-संग्रह ‘खड़तल कहणा ओक्खा सै’ में कुल 70 गजलें हैं। हरियाणवी में गज़ल कहने की कोई लंबी परंपरा देखने में नहीं आती है, लेकिन खड़तल की गज़ले जहां संवेदना की दृष्टि से बेहद सशक्त रचनाएं हैं, वहीं शिल्प के मामले में भी बेमिसाल हैं। उनकी गजलें सत्य का औजार लेकर शोषित और वंचित तबकों के हक में परिवर्तन की पूरी रूपरेखा बनाती हुई दिखाई देती हैं।

आज के जिस दौर में हम रह रहे हैं, उसमें कलम पर सबसे बड़ा खतरा है। यह व्यवस्था पत्रकारिता पर निरंतर दबाव बनाए हुए है। अपनी ग़ज़लों में मंगतराम शास्त्री रूपयों के लिए लालायित पत्रकारों पर तीखे बाण छोड़ते हुए कहते हैं- ना बण खोज्जी पत्तरकार, पील़ी कलम चलाणा सीख। उन्हें चिंता है कि जनता की आवाज उठाने का जिम्मेदार मीडिया आज गोदी मीडिया में तब्दील कर दिया गया है और जनता की आवाज उठाने की बजाय वह जनता का विरोधी बना दिया गया है। जब भी कहीं प्रतिरोध की आवाज उठती है, वहीं पर ताकतवर के इशारों पर वह पीडि़त पर ही दोष मढऩे लगता है।

कवियों और साहित्यकारों पर दबाव को शायर कुछ यूं बयां करता है-

हो ज्यागा कवियां मैं नाम, सत्ता के गुण गाणा सीख।

नाम अर पिस्से होंगे खूब, छाप बदल छपवाणा सीख।

उरां परां की लिख दो च्यार, फरजी ठप्पा लाणा सीख।

ऐसे वक्त में लेखकों को अपनी लेखनी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए सच का साथ लेना होगा और सच का साथ देना होगा। शायर तभी तो कहता है-

लेखनी ले साथ खड़तल साच की

आखिरी दम या बचावैगी तनै।

ये पंक्तियां सभी कमलकारों के लिए संजीवनी की तरह हैं। जहां तक कि मंगतराम शास्त्री की बात है। वे अपने बारे में स्वयं कहते हैं-

जुल्मी आगै भी खड़तल नै सच बोल्या

क्यूं के डाम्मांडोल नहीं था के करदा।

वे निर्भीक अभिव्यक्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं। ‘साच्ची बात कहण खात्तर जिगरा चाहिये सै’ वह जिगरा उनमें है। कवियों-लेखकों को निरी कल्पनाओं और शब्द जाल से आगे निकल कर आज जरूरत है कि वे वक्त को बयां करें। समय की विसंगतियों और विरोधाभासों को पकड़ें। उन पर कलम चलाएं। राह दिखाएं। राजा-रानी की कहानियां लिखने की बजाय अपने जीवन और आस-पास की कहानी लिखें-

राजा राणी के किस्यां तै आगै की भी क्हाणी लिख

जिन बखतां का लेखक सै तूं, उन बखतां की बाणी लिख।

वे जानते हैं कि शोषक निर्दयी होता है। शोषण की शुरूआत धीरे-धीरे होती है। साम्राज्यवादी और साम्प्रदायिक ताकतें अपनी सोच और विचारों को लोगों में लेकर जाती हैं और फिर धीरे-धीरे उसके पक्ष में लोगों की भावनाओं को तैयार करती हैं। उनकी शुरूआत का अंजाम क्या होता है। इसका शायर ने अपने अध्ययन से तजुर्बा किया है-

धीरज परखै सै जो तेरा थोड़े दांद गड़ो कै

इब्बै ना रोक्या तो तडक़ै बुडक़ा भी होवैगा।

भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए बड़ा संघर्ष रहा है। देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले कितने ही लोगों ने ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की पक्षधरता की, जिसमें सभी को स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा, बराबरी, बंधुता व न्याय के साथ जीवन जीने का अधिकार होगा। लेकिन आज कहने को तो लोकतंत्र है, लेकिन शायर को लोकतंत्र का नकाब ओढक़र तानाशाही नंगा नाच करती हुई दिखाई दे रही है-

देख कै लच्छण हाकिम के कुछ लोग तो न्यूं भी कहण लगे

जनशाही के नां पै तानाशाही छांदी दिखै सै।

जिन लोगों को हम चुन कर अपनी तकदीर बदलने के लिए अपना रहनुमा बनाते हैं। वे अक्सर धोखा देकर आम जन को डसने का काम करते हैं-

सांप्पां की टोली इमरत की बात करै तो सुण खड़तल

सांप्पां की नियत की हमनै जहरी चाल पिछाणी लिख।

जात-धर्म की राजनीति आज निरंतर बढ़ती जा रही है। जिससे जनता के सवाल हाशिये पर चले गए हैं। स्वार्थपूर्ण साम्प्रदायिक राजनीति के इस दौर में केवल अच्छा चाहने भर से कुछ नहीं होने वाला है। क्योंकि राजनीति पूरी बस्ती व देश जलाने पर उतारू है।

आड़ मजहब जात की ले, आम जनता नै

आप खुद हाकिम लड़ावै, के अचंबा सै।

समाज को समझने और समस्याओं का समाधान करने के लिए जो लोग बाबाओं की शरण में जा रहे हैं। उनके लिए मंगतराम किताबों का सहारा लेने का आह्वान करते हैं।

क्यां नै ढब लावै मोडे-बाब्यां सेत्ती

तूं यारी कर ले यार किताबां सेत्ती।

जो लोग ज्ञान की तलाश में गूगल की शरण में जा पहुंचे हैं। वे ऐसा ही जैसे वे चिलचिलाती धूप और प्रचंड गर्मी से बचने के लिए बादल की क्षणिक छाया को ही सहारा मान बैठे हों। किताबों के साथ-साथ ठोकर खाकर मिलने वाले तजुर्बों का कोई विकल्प नहीं है-

छाम सथाई बाद्दल तै कोनी मिलदी। खुशहाली केवल जल तै कोनी मिलदी।

कुछ तो ठोक्कर लागयां पाछै आवै सै, सारी बुद्धि गूगल तै कोनी मिलदी।

मंगत राम शास्त्री की गजलें मानव निर्माण का एजेंडा लेकर आगे बढ़ती हैं। नवजागरण या सामाजिक परिवर्तन का काम आसमान या खाली स्थान में तो होना नहीं है। इसके लिए ऐसे नागरिकों के विकास की परियोजना पर काम करने की जरूरत है, जो इस काम को आगे बढ़ाएंगे। जो उम्मीदों से लबरेज हों। प्रसन्नचित्त हों। जिनके साथ मिलना भी प्रेरित करे। जो उसूलों पर चलता हो। जो निर्भय हो। ऐसे मनुष्य निर्माण के लिए खड़तल की गजलें निरंतर प्रयासरत हैं। निराशा के दौर में भी कवि ने उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ा है। विपिरीत परिस्थितियों में भी शायर उम्मीद से लबरेज है। वह स्थितियों की विकरालता को उजागर करता है। लेकिन साथ ही उम्मीदों की धारा भी बहाता है। वह कहता है-

राख भरोस्सा सूरज पै कल तडक़ा भी होवैगा।

प्रसन्नचित्त होने व रहने के लिए मन बेफिक्र होना चाहिए। सुंदरता के लिए सौंदर्य प्रसाधनों की जरूरत नहीं होती। उपभोक्तवादी संस्कृति दिखावे का दंभ भरती है। मनुष्य को वस्तुओं के प्रति आकर्षित करती है। मनुष्य की सुंदरता इनसे बढऩे वाली नहीं है। हृदय साफ व सुंदर होना चाहिए।

हांसण खात्तर मनवा बेफिकरा चाहिये सै।

सुंदर होण ताईं हिरदा सुथरा चाहिये सै।

तर्क और विवेक की राह अपनाने पर ही आगे बात बनने वाली है। इसमें भले ही खतरे हैं। लेकिन लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए यह जरूरी है।

तर्कसम्मत बात जिननै भी करी खड़तल

फंडियां की आंख म्ह वे रडक़रे माणस।

शायर हृदय सुंदर करने के लिए कृष्ण की बजाय उस मीरा को रिझाने पर बल देता है, जो कृष्ण को भी अपने गीतों के जरिये प्रतिदिन बचाती है-

के काड्ढ़ैगा किरसण टोह्कै मीरा नै ले टोह् खड़तल

अपणे गीत्तां पै वा उसनै रोज नचांदी दिखै सै।

शास्त्री जी स्वयं गांव से संबंध रखते हैं। गांव से अपना रिश्ता निभाते हैं। गांव को भली-भांति देखते-परखते हैं। गांवों में निरंतर हो रहे बदलावों पर पैनी नजर बनाए हुए हैं। कुछ वर्षों पहले और आज के गांव में भी अंतर आ गया है। आज के गांव में असमानता बढ़ गई है। एक तरफ गांवों में सब तरफ के ठाठ हैं। दूसरी तरफ गांवों में भयानक गरीबी पसरी हुई है। युवाओं में बेरोजगारी बढ़ रही है। साथ ही पलायन की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। गांवों में आए दिन युवाओं के विदेशों में पहुंचने पर आतिशबाजी होती है। गांवों में डोंकी के रास्ते से अमरीका जा रहे युवाओं की मौतों की खबरें भी आ रही हैं। कभी मेलजोल, सहयोग और भाईचारे के लिए विख्यात गांवों में संबंधों में बिखराव बढ़ रहा है। जातिवाद अपने चरम पर जा पहुंचा है कि जातियों के व्यक्ति तो मिलते हैं, लेकिन वहां पर मनुष्य नहीं दिखाई देते। सियासत और पूंजी के मेल से मजहब के नाम पर नफरत की दुकानें खुल गई हैं। नशे का खुला व्यापार हो रहा है। देसी खाणे के स्थान पर पिज्जा-बर्गर और सादगी के स्थान पर ब्यूटी पार्लर व फैशन बढ़ गया है। गांव में मजबूत लोगों ने शामलात भूमि पर कब्जा कर लिया है। तालाबों और घाटों की हालत खराब हो गई है। निठल्लों की संख्या बढ़ गई है। सारा दिन ताश की बाजी लगाने और बीच-बीच में उनके लडऩे की आवाजें आम सुनाई दे जाती हैं।

आल्ला, ब्याल्ला गूगा रांझा पीर गावणिए

कोन्या ईब कबीस्सर-भाट गाम्मां म्हं।

दूध घणखरा जावै तडक़ै इब रोज शहरां म्हं

शहर पसर गया ले कै पपड़ी-चाट गाम्मां म्हं।

खड़तल की गजलों की संवेदना और शिल्प दोनों ही खड़तल हैं। भाषा की बात करें तो वो जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे किसी भी तरह से कहलवा लेते हैं। उनकी $गज़लों के कितने ही शेर मुहावरों की भांति पाठकों की जुबान पर चढ़ जाते हैं। हरियाणवी के ऐसे शब्द जो लुप्त होते जा रहे हैं, या कम सुनाई देते हैं, उन्हें खड़तल की $गज़लों में संरक्षण प्राप्त हुआ है। वे अपनी रचनाओं में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने से भी गुरेज नहीं करते। उनकी गजलों में पैनिक होवण, यूथ, पिस्टल, परैक्टीकल, कंट्रोल, पटरोल, सोशल मीडिया सहित अनेक अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बहुत ही सशक्त बन पड़ा है। गजलों से कुछ उदाहरण देखिए-

जीवन घोर परैक्टीकल सै भोगें बेरा पाट्टै सै

के खोया के पाया इब लग सारी राम कहाणी लिख।

पुस्तक

पुस्तक : खड़तल कहणा ओक्खा सै

शायर : मंगतराम शास्त्री ‘खड़तल’

प्रकाशक : मनुराज प्रकाशन, जींद व जयपुर

पृष्ठ-107

मूल्य : रु. 320.

लेखक – अरुण कैहरबा

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