कर्म चन्द केसर की हरियाणवी गजल 

कर्म चन्द केसर की हरियाणवी ग़ज़ल

गन्दा – मन्दा फूहड़ गाणा कुछ ना सै।

लय सुर ताल बिना मुंँह बाणा कुछ ना सै।

मतलब खात्तर हाथ मिल्याणा कुछ ना सै।

अपणी बोर – बड़्याई गाणा कुछ ना सै।

रिश्तेदारी हो सै प्यारी बरतण की,

बात-बात पै खूंँड बजाणा कुछ ना सै।

सुलफा गांँज्जा भांँग धतूरा फीम बुरी,

दारु का बी पीणा-प्याणा कुछ ना सै।

बटळी करले चै कितनी धन-माया तौं,

उरियो रहजै गेल्लै जाणा कुछ ना सै।

बांँग्गे-बोळे च्यार डोंकळे लिखकै बस,

अखबाराँ मैं नाम छपाणा कुछ ना सै।

फास्ट फूड अर् लटरम-पटरम खावैं लोग,

होटल का बी ताजा खाणा कुछ ना सै।

चाल-चलन मैं खोट मगन मोह् माया मैं,

सिर टोप्पी चै भगवाँं बाणा कुछ ना सै।

जूत लगैं अर मिलैं मिठ्याई खावण नैं,

केसर इसी जगांँ पै जाणा कुछ ना सै।

One thought on “कर्म चन्द केसर की हरियाणवी गजल 

  1. ” चाल चलण में खोट मगन मोह माया में,
    सिर टोप्पी चै भगवा बाणा भी कुछ ना सै !..
    यह खरा ठाठ है करमचंद ‘केसर’ की हरियाणवी गजल का। इसमें न केवल हरियाणवी ‘बोली और कहन’ की बेजोड़ ‘साफगोई और ताकत’ है बल्कि ‘विचारों की गहराई’ भी साफ नजर आती है। केसर हर तरह की ‘फूहड़ता और अश्लीलता’ से बचते हुए वो गजल कहते हैं जो हरियाणा के ‘लोकजीवन’ में बसी हुई है। इसलिए उनकी गजलें पाठकों के सामने हरियाणवी ‘लोकजीवन के दृश्य’ का सजीव चित्रण करने में कामयाब होती हैं।

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