कर्म चन्द केसर की हरियाणवी ग़ज़ल

 

यैं जो सिर पै ताज सजाए बेट़्ठे सैं।

थ्हारे हक की रोट़्टी खाए बेट़्ठे सैं।

कौण किस्याँ पै राजी सै इस दुनियां म्हं,

सब इरख्या की आग जळाए बेट़्ठे सैं।

जात-धरम अर ऊँच-नीच के दाने इब,

बस्ती काऩ्नी मुंह नैं बाए बेट़्ठे सैं।

बता क्यूकर करैंगे फाजत वैं थ्हारी,

जो दुसमन तै हाथ मिल्याए बेट़्ठे सैं।

छोरी नैं कर ली लव मैरिज मरजी तै,

घर के जी सब मुंह लटकाए बेट़्ठे सैं।

लोकराज म्हं दुनियां की याह् हालत सै,

नदी कंठारै लोग तिसाए बेट़्ठे सैं।

सै अचरज की बात दवाई खैं सारे,

खा – खा गोळी हाड गळाए बेट़्ठे सैं।

सुपने म्हं जणु सबे कमेरे हक खात्तर,

मिल-जुलकै आवाज उठाए बेट़्ठे सैं।

बोट पाणिए भला ते॒रा इब के होगा,

मिलकै सब सरकार बणाए बेट़्ठे सैं।

बेरोज़गारी , नसाखोरी , टैंस्सन म्हं,

सबके सब चेह् रे मरझाए बेट़्ठे सैं।

चक्करव्यूह् म्हं कद फसैगा यूह् केसर,

मित्तर-प्यारे अलख जगाए बेट़्ठे सैं।