हरियाणा का लोकनाट्य एक सांझी विरासत: ‘सांग’व नाटक हरियाणवी संस्कृति के प्रतिबिंब
ये प्रदेश की प्राचीन संस्कृति से लेकर आधुनिक संस्कृति तक की देते हैं जानकारी
मनजीत सिंह
हरियाणा में लोकनाट्य का बड़ा महत्व है। हरियाणा का लोकनाट्य एक साझी विरासत है। सांग और नाटक हरियाणवी संस्कृति के प्रतिबिम्ब हैं। इनके जरिये प्रदेश की प्राचीन संस्कृति से लेकर आधुनिक संस्कृति तक की जानकारी मिल जाती है।
जब आप नाटक शब्द सुनते हैं तो आप शायद अपने पसंदीदा नाटकीय टेलीविजन शो या फिल्म के बारे में जरूर सोचते होंगे, लेकिन लोक साहित्य में नाटक के गंभीर कथानक के साथ कम और मंच के प्रदर्शन के जरिए ज्यादा काम किया जाता है। लोक साहित्य में विभिन्न प्रकार के नाटक के बारे में अधिक जानने के लिए पढ़ते रहे हैं। वे मंच पर क्या दिखाते हैं और हकीकत में क्या होते हैं?
नाटक में सांग, रामलीला, यक्षगान, भवाई, तमाशा, जात्रा, नौटंकी, ख़्याल, कथकली, माच आदि नाटक के स्वरूप हैं।इनके अलावा नुक्कड़ नाटक, मंची नाटक आदि भी होते हैं।
लोक साहित्य आधारित नाटक पद्य व गद्य में भी होता है। जिसमें नाटक, प्रकरण , डिम, ईहामृग,समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाण, वीथी,अंक, त्रोटक,नाटिका,सट्टक, शिल्पक,विलासिका आदि भी नाटक के रूप होते हैं।
नाटक में कथावस्तु,पात्र,रस, अभिनय आदि महत्वपूर्ण होता है। लोक साहित्य में नाटक लिखित संवाद और मंच कार्रवाई के प्रदर्शन को दर्शाता है यह एक साहित्यिक शैली है जो अभिनेताओं को एक लेखक के शब्दों को सीधे दर्शकों तक पहुंचाने की अनुमति देती है लेकिन एक से अधिक प्रकार की साहित्यिक शैली है और मौके हैं।
हास्य आमतौर पर हास्य नाटकों में होता है लेकिन हास्य को परिभाषित करने का एकमात्र तरीका मजा नहीं है नाटक का अर्थ केवल और केवल नकल करना होता है।
रामनारायण अग्रवाल का मत है कि,”स्वांग का एक नाट्यरूप उत्तर मध्यकाल में उत्तर तथा मध्य भारत में ‘ख्याल’ के नाम से विकसित हुआ था और उसी ने पंजाब में ख्याल, राजस्थान में तुर्रा कलगी, मालवे में मांच तथा ब्रज क्षेत्र में भगत और हरियाणा तथा मेरठ में सांग नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की।
सुरेश अवस्थी के इन शब्दों में भी उक्त मत का समर्थन होता है कि ” ये नाटक कई नामों से प्रसिद्ध हैं,जैसे नौटंकी,संगीत,भगत, निहालदे और स्वांग। ये सभी नाम लगभग समानार्थी हैं, स्वांग कदाचित् सर्वाधिक प्राचीन नाम है।
जगदीश चन्द्र माथुर इसका प्राचीनतम नाम ‘संगीतक’ मानते हैं। उनकी दृढ़ धारणा है कि ‘संगीतक’ ही बाद में “सांगीत” और “सांग” बन गया। सांग अथवा किसी भी प्रदेश के लोक-नाट्य वहां की संस्कृति के मुंह बोलते चित्र कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनमें उस भू-भाग के मौलिक आदर्श एवं जीवन-मूल्यों को अभिनय तूलिका द्वारा इंद्र-धनुषी रंगों में चित्रित किया जाता है ।
डॉ.नागेन्द्र ने लोकनाट्य की गरिमा को रेखांकित करते हुए लिखा है कि लोकनाट्य-साहित्य इतना विशाल और महत्वपूर्ण है कि इसमें भारतीय संस्कृति का सहज रूप देखा जा सकता है । लोकनाट्यों में वे तत्व निहित हैं, जो समय-समय पर देशकाल के अनुरूप जीवन्त साहित्य प्रस्तुत करके लोकजीवन को रास-संपृक्त करते रहे हैं।
यदि सहानुभूति के साथ इस विशाल साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो इस रंगमंच के झीने आवरण से आशा-आशंका , विजय-पराजय, आचार-व्यवहार, साहस-संघर्ष आदि की जीवित कहानी मुखरित हो उठेगी ।
लोकनाट्य ‘सांग’ हरियाणा की नाट्य-परम्परा का सिरमौर है, जिसे यहां की कौमी नाटक भी कहा जा सकता है ।

हरियाणा की जनरंजनकारी यह विधा वस्तुतः गीत-संगीत एवं नृत्य की मनमोहक त्रिवेणी है, जिसमें सर्वाधिक मजेदार है-इसके गीतों की गमक। गीत हरियाणवी सांगों का ताना-बाना सतरंगे गीतों के कला-तंतुओं से ही बुना जाता है । सांग में यह रागनी का जादू ही है, जो सिर चढ़कर बोलता है । एक हाथ कान पर रखकर और दूसरा आकाश में उठाकर अभिनेता जब एक विशेष अंदाज मे अपनी रागनी गाता है, तो समां बंध जाता हैं।
इन सांगों में लोकप्रिय कथानकों के आधार पर गीतों के माध्यम से अभिनय द्वारा रस की ऐसी वर्षा की जाती है कि मुक्त-लहरियों में मंत्र-मुग्ध से हो जाते हैं। सावन की तरह बरसते संगीत की फुहारों में उनके मन-मोर नाच उठते हैं ।

सांगों में नृत्य अभिनय का प्रमुख माध्यम होता है। नृत्य के हाव-भाव से सांग के प्रदर्शन में निखार आता है। बिना बोले, कुछ निश्चित एवं पारम्परिक संकेतों से ही बात दर्शकों को समझा दी जाती है ।
नृत्य की मुद्राएं सांग के अभिनय को अधिकाधिक आकर्षक एवं संवेद्य बनाती है । नृत्य का ठुमका लगते ही सांग के दर्शकों में एक हलचल सी मच जाती है । उनके हृदय आंनदातिरेक से उद्धेलित हो उठते हैं ।
खुले मंच पर स्त्रीवेश में नाचने वाला पात्र, एक तख्त के चारों कोनों में नाटक दिखाते हुए जिधर जाता है, उधर ही एक वातावरण की सृष्टि हो जाती है। रागनी की टेक पर पड़ने वाली मार्मिक तालों के अवसरों पर तो सांग के नर्तक अभिनेताओं की अदाएं और भी आकर्षक होती हैं। घूंघट के फटकारे एवं होठों पर जीभ फेरकर किये गये कुटिल कटाक्ष , दर्शकों के दिलों को छलनी-छलनी कर देते हैं ।
तख्त तोड़ रोमांचकारी नाच के समय अभिनेता अपनी अंग भंगिमाओं एवं पद-संचालन से दर्शकों को दीवाने बना देते हैं । उनकी गलबहियों की झूल और कूल्हों की मटकन तो भुलाए नहीं भूलती है। यदि इन सांगों में प्रदर्शित नृत्यों की स्वाभाविकता एक ओर लोकजीवन की सादगी का संकेत देती है, तो दूसरी ओर पुरुष पात्रों द्वारा रबड़ की नकली छातियों को इस रूप से संचालित करना कि मन उफन-उफन पड़े, इस बात का परिचायक है कि हरियाणवी युवक दिलफेंक होते हैं।
हरियाणा के सांगों में नौटंकी की भांति प्रायः नई उम्र के चंचल लड़के ही स्त्रीवेश में नारीपात्रों की भूमिका निभाते हैं। पर कभी- कभी ओढनी के झीने धूंघट में से चमचमाते चंचल एवं कजरारे नयनों की जगह कंटीली मूछों का दृश्य दिखाई दे जाता है। इससे सांग के प्रभाव में किसी प्रकार की कमी नहीं आती है।
स्त्रियों का सा लालित्य न होने पर भी ये नर्तक-अभिनेता दर्शकों की रग दबाने में पूर्णतः सक्षम होते हैं ।
सांगों में हास्य रस की चुटीली चास भी रहती है और उसका आलम्बन होता है सांग का विदूषक, जिसे ‘नकली’ कहा जाता है । लोकरंजन का सर्वाधिक दयित्व इसी पात्र पर होता हैं । वह कभी राजा का मंत्री होता है, कभी रंगीले साहूकार का सहचर ।
नायक की विशेषताओं को प्रकट करने की अपेक्षा उसके द्वारा खलनायक और अन्य पात्रों की विकृतियां अच्छे ढंग से प्रस्तुत की जाती हैं । उसका कलाकौशल उसकी वेश-भूषा एवं उसकी तेज जबान में होता है, जिसमें हास्य – विनोद एवं सामयिक वाग्विदग्धता भरी होती है । दर्शकों की नाड़ी पहचान कर ऐन मौके पर वह ऐसे परिहास करता है कि हंसते-हंसते दर्शकों के पेट में बल पड़ जाते हैं । वह केवल अभिनेताओं से ही छेड़छाड़ नहीं करता वरन् दर्शकों को भी परिहास का विषय बना लेता है ।
जब कोई दर्शक दुष्टतापूर्ण कोई बात कर देता है तो उससे निपटना भी उसे खूब आता हैं गम्भीर से गम्भीर प्रसंग को हास्यमय बनाने का सामर्थ्य उसमें होता है । सांग या संगीत के प्राचीन स्वरूप एवं परम्परा की समस्याएं अभी तक विद्वानों के लिए जिज्ञासा एवं संधान का विषय बनी हुई हैं।
लोकनाट्य का उपयोग अन्य लोक साहित्य उपादानों की भांति न केवल मनोरंजन करना है,वरन सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पद्धति की शिक्षा देने के साथ-साथ आवश्यकता पड़ने पर प्रगति एवं परिवर्तन की प्रेरणा देना भी है।” बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, बहु-विवाह, रिश्वतखोरी, चोर-बाजारी, छुआछूत आदि बुराइयों के उन्मूलन के लिए हरियाणवी सांगों ने आम जनता को जागरूक करने का महत्वपूर्ण काम किया है।
हरियाणवी नाटक के कई रूप प्रचलित हैं। नाटकों की कथाओं का मूल आधार पौराणिक, धार्मिक, नीतिपरक या प्रेमपरक होता है।
प्रेम कथाओं में वियोग और संयोग, श्रृंगारयुक्त अभिनय की प्रधानता होती है। इसमें उपदेशात्मकता के भी दर्शन होते हैं और सामाजिक बुराइयों की तीखी आलोचना की जाती है। इनमें अभिजात्य वर्ग पर व्यंग्य भी किए जाते हैं। लोकरुचि के अनुरूप ही इनकी कथाओं का चुनाव किया जाता है परंतु सांगी के लिए कोई बंधन नहीं होता है। वह अपनी प्रतिभा के अनुसार कथानक का चुनाव पुराण से कर सकता है या वह चाहे तो प्रचलित लोककथाओं में कल्पना के योग से एक नई कथा गढ़ सकता है। कई बार सांगी किसी काल्पनिक राजा का संबंध किसी राजघराने से जोड़ देता है और अपनी कल्पना के योग से उसे एक नई कथा बना देता है। हरियाणवी सांग में कथानक प्राय: ढीला ढाला होता है। पूर्वार्द्ध में कथा धीरे-धीरे आगे बढ़ती है उत्तरार्द्ध में इसकी गति अचानक इतनी तेज हो जाती है कि जैसे कथा को जबर्दस्ती कोई आगे धकेल रहा हो।
हरियाणवी नाटक मंडलियों का प्रत्येक सदस्य प्रायः प्रत्येक पात्र का अभिनय कर सकता है। इससे हरियाणा की प्राचीन संस्कृति, उसकी सामाजिक स्थिति और लोक में मौजूद परम्पराओं व विश्वासों का पता चलता है. ‘सांग’ व नाटक हरियाणवी संस्कृति का प्रतिबिंब है जिससे प्रदेश की प्राचीन संस्कृति से लेकर आधुनिक काल तक की संस्कृति का ज्ञान होता है।
नाटकों की लोकप्रियता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हरियाणा में कई स्कूल, मंदिर, कुएं, धर्मशाला आदि का निर्माण सांगों व नाटकों के प्रदर्शन के दौरान इकट्ठा किए गए धन से हुआ है।सांस्कृतिक संपदा के स्वरूप को लोक-नाटक या लोक-नाट्य के बिना समझना संभव नहीं है।
मांगलिक उत्सवों, पर्वों, तीज-त्यौहारों या अन्य किन्हीं सामाजिक-सम्मेलन के अवसरों पर लोक-नाट्य की ज़रूरत महसूस हुई होगी, क्येांकि लोक-रूढ़ियों, लोक-परंपराओं, लोक-विश्वासों तथा लोक-भावनाओं के जितने विविध रूप लोक-नाट्य में मिलते हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं। नाटक चाहे किसी भी रूप में खेला जाता हो, वह केवल लोगों का मनोरंजन ही नहीं करता बल्कि अपनी एक अमिट छाप छोड़ जाता है।
लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में उर्दू के सहायक प्राध्यापक हैं।

लेखक -मनजीत सिंह
