लफ्जों का संजीदगी से इस्तेमाल करने की सलाह देने वाले प्रख्यात पंजाबी कवि सुरजीत पातर नहीं रहे

  • किसानों के समर्थन में लौटा दिया था पद्मश्री अवार्ड

आलोक वर्मा

आज सुबह आंख खुली और मोबाइल खोला तो वरिष्पठ पत्रकार साथी एसपी सिंह का मैसेज देख कर मन विचलित हो उठा। उन्होंने जानकारी दी थी कि पंजाबी के वरिष्ठ कवि, साहित्यकार डॉ. सुरजीत पातर का  निधन हो गया।

पातर का शनिवार 11 मई 2024 को सुबह लुधियाना स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। वह 79 वर्ष के थे। उनके परिजनों ने बताया कि वह कल शाम को बिल्कुल ठीक थे। रात में सोये लेकिन सुबह जागे ही नहीं।

लेखक और वकील हरप्रीत सिंह संधू ने मीडिया को बताया कि सुरजीत पातर की पत्नी भूपिंदर कौर का सुबह करीब सात बजे फोन आया कि पातर कोई मूवमेंट नहीं कर रहे हैं। वह तुरंत उनके घर पहुंच गए। उन्हें एंबुलेंस की मदद से अस्पताल लेकर गए, लेकिन डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

डॉ. सुरजीत पातर का जन्म जालंधर के गांव पातर कलां में 14 जनवरी 1945 को हुआ था। गांव पातर कलां के स्कूल में चौथी कक्षा तक की पढ़ाई की। इसके बाद दूसरे गांव खैरा माझा से हाईस्कूल तक की पढ़ाई की। पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला से एमए करने के बाद पातर ने गुरु नानक देव विश्वविद्यालय अमृतसरसे पीएचडी की। इसके बाद वह पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) लुधियाना में पंजाबी के प्रोफेसर रहे और वहीं से सेवानिवृत्त हुए।

पातर की प्रख्यात काव्य रचनाओं में ‘हवा विच लिखे हर्फ’, ‘हनेरे विच सुलगदी वरनमाला’, ‘पतझड़ दी पाजेब’, ‘लफ्जां दी दरगाह‘ और ‘सुरजमीन’ शामिल हैं। सुरजीत पातर ने साहित्य के क्षेत्र में अहम उपलब्धियां हासिल कीं ।

उनको 2012 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। वह पंजाब कला परिषद के अध्यक्ष थे। उन्हें 1979 में पंजाब साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1999 में पंचानंद पुरस्कार, 2007 में आनंद काव्य सम्मान, 2009 में सरस्वती सम्मान और गंगाधर राष्ट्रीय कविता पुरस्कार भी मिले थे। पातर ने किसान आंदोलन के दौरान किसानों के समर्थन में पद्मश्री लौटाने का ऐलान तक कर दिया था।

एक जगह डॉ. सुरजीत पातर ने बताया था कि उनके कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई। उन्होंने कहा कि बचपन में ही घर की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए पिता को विदेश जाना पड़ा। मां की चेहरे की उदासी मुझे अंदर तक विचलित कर देती थी। तभी से मैंने थोड़ी बहुत कविता करना शुरू कर दिया था। उनका कहना था कि कहावतें और लोक कथाएं उनकी कविता के लिए प्रेरणा बनीं। उनकी हर कविता के पीछे कोई न कोई गहरा अनुभव जुड़ा हुआ है।

उनका कहना था कि कविता में लफ्जों का इस्तेमाल संजीदगी से किया जाना चाहिए, ये कई राज छिपाते और खोलते हैं। उनकी कविता में पंजाब की खुशबू महकती थी।

पातर ने 60 के दशक के मध्य में कविताएं लिखनी शुरू कीं। “लफ़ज़ा दी दरगाह” “हवा विच लिखे हर्फ” और “हनेरे विच सुलगदी वरनमाला” उनकी चर्चित कविताएं हैं। डॉ. पातर ने “शहीद उधम सिंह” और दीपा मेहता की “हैवन ऑन अर्थ” के पंजाबी संस्करण जैसी फिल्मों के लिए संवाद भी लिखे।

इसके अलावा उन्होंने फेडरिको गार्सिया लोर्का की तीन त्रासदियों, गिरीश कर्नाड की “नागमंडला” और बर्टोल्ट ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा की कविताओं का पंजाबी में अनुवाद भी किया।

पातर के निधन पर पंजाब के नेताओं ने शोक जताया है। सीएम भगवंत मान ने एक्स पर लिखा-पंजाबी भाषा के गौरवशाली सपूत सुरजीत पातर के अचानक निधन पर बेहद दुख है।

मेरा उनसे कोई खास परिचय नहीं था लेकिन मैं उनकी कविताओं का मुरीद हूं। जब  कभी समय मिलता था तो उन आयोजनों में शामिल होने की कोशिश जरूर करता था जिसमें उनकी भागीदारी होती थी। उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता उनका हमेशा मुस्कुराते रहना था। गंभीर से गंभीर विषयों पर आयोजित संगोष्ठियों में वे अपने सहज- सरल बातों के जरिये माहौल को बदल देते थे। उनकी मौजदूगी से कार्यक्रम को गरिमा मिलती थी। वे अपने उदाहरणों के जरिये विषय को सहजता प्रदान करते थे और हमेशा आकर्षण का केंद्र होते थे। वे शब्दों के जादूगर थे। वे शब्दों के महत्व को समझते थे और उनका कहां किस रूप में उपयोग किया जाना है, इसके बेहतरीन उदाहरण थे। सहज और सरल शब्दों के जरिए कड़ी से कड़ी बात कह देते थे और कभी प्रतिरोध जताने में संकोच भी नहीं करते थे। संभवतः उन्हें पंजाबी से ज्यादा दूसरी भाषाओं  के पाठक पसंद करते थे। वे सचमुच वैश्विक साहित्यकार थे और रहेंगे। उनका निधन  पंजाबी ही नहीं पूरे विश्व साहित्य की क्षति है।

उनकी पांच कविताएं यहां श्रद्धांजलि स्वरूप दे रहा हूं। सभी कविताओं का अनुवाद चमन लाल ने किया है।

1.कवि साहिब 

मै पहली पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ राजा के सिपाहियों से
पंक्ति काट देता हूँ

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूँ
और डर जाता हूँ बाग़ी गुरिल्लो से
पंक्ति काट देता हूँ

मैने अपने प्राणों की खा़तिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों को
ऐसे ही क़त्ल किया है

उन पंक्तियों की आत्माएँ
अक्सर मेरे आसपास ही रहती हैं
और मुझे कहती हैं :

कवि साहिब
कवि हैं या कविता के क़ातिल हैं आप ?

सुने मुनसिफ बहुत इंसाफ़ के क़ातिल
बड़े धर्म की पवित्र आत्मा को
क़त्ल करते भी सुने थे
सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था
कि हमारे वक़्त में खौ़फ के मारे
कवि भी बन गए
कविता के हत्यारे।

2. मेरे शब्दों

मेरे शब्दों
चलो छुट्टी करो, घर जाओ
शब्दकोशों में लौट जाओ

नारों में
भाषणों में
या बयानों मे मिलकर
जाओ, कर लो लीडरी की नौकरी

गर अभी भी बची है कोई नमी
तो माँओं , बहनों व बेटियों के
क्रन्दनों में मिलकर
उनके नयनों में डूबकर
जाओ खुदकुशी कर लो
गर बहुत ही तंग हो
तो और पीछे लौट जाओ
फिर से चीखें, चिंघाड़ें ललकारें बनो

वह जो मैंने एक दिन आपसे कहा था
हम लोग हर अँधेरी गली में
दीपकों की पंक्ति की तरह जगेंगे
हम लोग राहियों के सिरों पर
उड़ती शाखा की तरह रहेंगे
लोरियों में जुड़ेंगे

गीत बन कर मेलों की ओर चलेंगे
दियों की फोज बनकर
रात के वक्त लौटेंगे
तब मुझे क्या पता था
आँसू की धार से
तेज तलवार होगी

तब मुझे क्या पता था
कहने वाले
सुनने वाले
इस तरह पथराएँगे
शब्द निरर्थक से हो जाएँगे
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3. एक नदी

एक नदी आई
ऋषि के पास
दिशा माँगने

उस नदी को ऋषि की
प्यास ने पी लिया
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4.पत्र

उसे पत्र भेजते रहों मोह से भरे
वरना गैरों की नगरी में
शाख नंगी हो जाएगी
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5.मैं रात का आख़िरी जज़ीरा

मैं रात का आख़िरी ज़ज़ीरा
घुल रहा, विलाप करता हूँ
मैं मारे गए वक़्तों का आख़िरी टुकड़ा हूँ
ज़ख़्मी हूँ
अपने वाक्यों के जंगल में
छिपा कराहता हूँ
तमाम मर गए पितरों के नाख़ून
मेरी छाती में घोंपे पड़े हैं
ज़रा देखो तो सही
मर चुकों को भी ज़िंदा रहने की कितनी लालसा है।

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