उद्भावना और मुक्तांचल के बहाने जीवन और साहित्य के सवाल

उद्भावना और मुक्तांचल के बहाने जीवन और साहित्य के सवाल

अखबारों में धीरे धीरे साहित्य का स्थान लुप्त होता जा रहा है। खासकर हिंदी अखबारों में साहित्य के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। पुस्तक प्रकाशन पहले से ही आसान नहीं है। बड़े लेखकों की किताबें तो छप जाती  हैं, हाल के दिनों में रायल्टी के  तौर पर मोटी रकम दिए जाने की भी जानकारी सामने आई है। प्रकाशन संस्थान तो बहुत हो गए हैं। सोशल मीडिया  के कारण यह जानकारी आ रही है कि पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं लेकिन यह कैसे प्रकाशित हो रही हैं, यह लेखक जानता है या प्रकाशक। लेखक को अपनी पुस्तक बेचने के लिए प्रकाशक से ज्यादा मार्केटिंग करनी पड़ रही है। कहने का आशय यह कि पुस्तकें अभी भी सबके पास पहुंच रही हैं यह गारंटी से नहीं कहा जा सकता।

सब मिलाकर लघु पत्रिकाओं पर जाकर निगाह टिक जाती है। संकट वहां भी कम नहीं है। हालात ऐसे बना दिए गए हैं कि पत्रिका प्रकाशन बहुत मुश्किल हो गया है। वर्ष 2000 से पहले काफी संख्या में लघु पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थीं। लेकिन अब गिनी चुनी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं।

लेकिन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अब भी कुछ पत्रिकाएं निकल रही हैं और रचनाकारों को स्थान दे रही हैं। यहां मैं दो पत्रिकाओं के नये अंकों पर संक्षिप्त चर्चा करूंगा। पहली पत्रिका है उद्भावना। यह पत्रिका अजेय कुमार के संपादन में लंबे समय से प्रकाशित हो रही है। इसका नया अंक (159-160 ) मंगलेश डबराल पर केंद्रित है- ‘मंगलेशः मनुष्यता पर इसरार’। वैसे तो साहित्य खासकर कविता के प्रति थोड़ी सी भी रुचि रखने वाला पाठक मंगलेश के लेखन से परिचित होगा। लेकिन मंगलेश का समग्र जीवन समझने में उद्भावना के लेख मददगार हैं। मंगलेश डबराल ने उत्कृष्ट कविताएं तो लिखी हीं, साथ ही उनका गद्य भी उतना उतना ही पठनीय है। पेशे से पत्रकार रहे मंगलेश जिस समाचार पत्र में रहे, उसे ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उनमें संपादन कला गजब की थी। उद्भावना के इस अंक में मंगलेश डबराल के व्यक्तित्व के निर्माण के सूत्र पकड़ सकते हैं। टिहरी गढ़वाल के गांव काफलपानी का एक उन्नीस साल के युवक में जो समाज के लिए कुछ करने की, समझने बेचैनी है, तड़प है उसे उनके ‘आरंभ’ के संपादक विनोद भारद्वाज  को लिखे पत्र से पता चलता है- ‘… आर्थिक रूप से प्रायः विपन्न हूं और रोटी और नये  संवेदन– संदर्भों की तलाश  में टूट रहा हूं। अपने अभाव-दंशित परिवेश की असुविधाओं और असामयिकताओं ने इस कदर तोड़ दिया है कि इस उन्नीस वर्ष की अवस्था में ‘एब्सर्ड’- सा हो गया हूं। फिर भी जी रहा हूं, शायद इसलिए कि जीवित होने का यह दर्द और भोगते – झेलते जाने का यह जहर कभी तो अपना सही साफ स्वाद बता पाएगा।’

उन्नीस साल की उम्र में टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव से दिल्ली चले आने और फिर दिल्ली, इलाहाबाद समेत कई शहरों में नौकरी करने के बावजूद उनके भीतर पहाड़ और गांव बराबर बना रहता है बल्कि कहें कि छूटता नहीं है। रविभूषण अपने लेख- ‘मंगलेश की चिंताएं और बेचैनियाँ’ में लिखते हैं-‘मंगलेश की मानसिकता कस्बाई थी। वे महानगर  के नहीं थे।’ वे आगे लिखते हैं- मंगलेश के यहां स्मृति और स्वप्न दोनों एक  साथ है। वे मंगलेश को कोट करते हैं- ‘मेरी संवेदना का निर्माण,मूल रूप से गांव और शहर, पहाड़ और मैदान के बीच जो टकराहट है,उनके बीच जो संधि- स्थल है, जो उपत्यका है, शायद वहाँ हुआ है।’

संस्मरण खंड में  रविभूषण, मनोहर नायक,आनंद स्वरूप वर्मा, इब्बार रब्बी, नरेश सक्सेना अजय सिंह, विनोद भारद्वाज, प्रमोद कौंसवाल और उनकी बेटी अल्मा डबराल के संस्मरण पढ़कर  मंगलेश डबराल के जीवन और साहित्य को समझा जा सकता है। वैसे तो 384 पेज में जो कुछ भी दर्ज है वह मंगलेश के कवि, गद्यकार, पत्रकार, संगीत मर्मज्ञ होने की दास्तां है। इसे पढ़कर मंगलेश के निरंतर विकसित होते व्यक्तित्व का भी पता चलता है। एक बड़ा साहित्यकार, पत्रकार होने के लिए अच्छा मनुष्य होना क्यों जरूरी है, उद्भावना के इस अंक को पढ़कर समझा जा सकता है। यह अंक निश्चित रूप से बेजोड़ है और संग्रहणीय है। संपादक और उनके सहयोगी इसके लिए बधाई के हकदार हैं।

पत्रिका- उद्भावना अंक 159-160 मंगलेशः मनुष्यता पर इसरार

संपादक अजेय कुमार

मूल्य -250 रुपये

संपर्क- ए-21, झिलमिल  इंडस्ट्रियल एरिया, जीटी रोड,शाहदरा, दिल्ली-110095

दूसरी पत्रिका है- पश्चिम बंगाल के हावड़ा से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका- मुक्तांचल। इसकी संपादक हैं डॉ मीरा सिन्हा। यह मुक्तांचल  का 47वां अंक है। पिछले 12 सालों से पत्रिका प्रकाशित हो रही है। यह महत्वपूर्ण है।

प्रस्तुत अंक में मृत्युंजय श्रीवास्तव का लेख- हिंदी कहानियां पढ़ता कौन है,कई सवाल उठाता है। वे अपने लेख की शुरुआत आंकड़ों से करते है- ‘एक अंदाजा है कि हर महीने लगभग दो सौ कहानियां हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में छपती हैं। दावा है कि ये कहानियां पढ़ी जाती हैं। इस दावे का आधार अनुमान है अनुभव नहीं।… जानना यह है कि इन दो सौ कहानियों में कितनी कहानियां ऐसी होती हैं जिन्हें दोबारा पढ़ने के लिए मचलता है पाठक का दिल? क्या हिंदी के कहानी लेखकों की अपनी पाठक – कंस्टीचुएंसी है? अगर है, तो अपनी कंस्टीचुएंसी में कितनी संख्या में पाठक को अपना दीवाना बना पाते हैं? क्या हिंदी के कहानी लेखक अपने पाठकों को बांधने में इतने सफल होते हैं कि वे बार-बार उनकी कहानी या कहानियां पढ़ना चाहें?’

अब अगर हम मृत्युंजय जी के इन सवालों पर जाएं तो उनका कोई निष्कर्ष निकलेगा, कहा नहीं जा सकता। जैसे उन्होंने महीने में लगभग दो सौ कहानियां प्रकाशित होने की बात कही है, उसी तरह के उनके सवाल हैं। निश्चित रूप से पाठकों के प्रिय कहानीकार हैं। अगर पाठकों की कंस्टीचुएंसी  नहीं होती तो कहानीकारों के कई  कई संग्रह कैसे प्रकाशित होते? वैसे मृत्युंजय श्रीवास्तव के सवाल ऐसे हैं जिनके ठीक-ठीक या संतोषजनक जवाब नहीं दिए जा सकते।

मुक्तांचल के इस अंक में डॉ राजीव कुमार रावत का लेख- कृत्रिम बुद्धिमत्ता(AI) और हिंदी का भविष्यः संभावनाएं,चुनौतियां और समाधान महत्वपूर्ण लेख है। पूरी दुनिया इस समय एआई से डर व्याप्त है। हिंदी में इसका कैसे लाभ उठाया जा सकता है, यह समीचीन सवाल है। यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि हिंदी को इससे फायदा हुआ या नुकसान। इसी तरह अन्य लेख और दूसरी सामग्री  भी पत्रिका को पठनीय बनाती है। इसमें हर तरह के पाठक के लिए कुछ न कुछ है। यह नये और पुराने दोनों तरह के पाठकों को पसंद आएगी। पत्रिका के लिए संपादक मीरा सिन्हा (मो. 98314 97320) और  सुशील कुमार पाण्डेय (मो. 96811 05070) से संपर्क किया जा सकता है।

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