मलबे में दबा हुआ राष्ट्र
दीपक वोहरा
मलबे में सिर्फ़ बच्चे नहीं दबकर मरे,
इस देश की रूह मर गई है उस मलबे में।
संवेदनाएँ दम तोड़ चुकी हैं अंधभक्ति की भीड़ में।
लानत है उन लोगों पर
जो जाति, धर्म और क्षेत्र देखकर
चुनते हैं अंधे, बहरे, संवेदनाशून्य नेता—
जिनके लिए जान की कोई क़ीमत नहीं।
नेता आएँगे,
मीडिया पर घड़ियाली आँसू बहाएँगे,
संवेदनाएँ जताएँगे,
फिर अगली मौत तक
सब भूल जाएँगे।
भारत पूछता है—
बार-बार चीख़ेगा,
गुल्लू उछल-उछलकर
इस दुख को टीआरपी में बदलेगा।
गोदी मीडिया का पूरा गैंग
फिर हिंदू-मुस्लिम करेगा।
पर कभी नहीं पूछेगा—
ज़िम्मेदार कौन है?
जवाबदेही किसकी है?
गारंटी कौन देगा
कि भविष्य में ऐसा फिर नहीं होगा?
और हाँ—
आख़िर में
विश्वगुरु
नेहरू पर ही
दोष मढ़ दिया जाएगा।
—
यह त्रासदी केवल राजस्थान की नहीं है।
आज उनके बच्चों के साथ हुआ है,
कल आपके साथ होगा।
आपके बच्चों के साथ।
उनके बच्चों के साथ।
क्या कसूर था उनका?
सिर्फ़ इतना कि वे ग़रीब थे।
वे स्कूल गए थे,
कंधों पर बस्ते नहीं—सपने लादे हुए।
माओं ने रोटियाँ बाँधी थीं उम्मीद की,
पिताओं ने माथा चूमा होगा प्यार से—
पर लौटे नहीं वे,
मांस के लोथड़ों में बदल गए।
छत गिरी।
छत से पहले
मनुष्यता गिर गई थी,
सिद्धांत गिर गए थे,
ढह गए थे झूठे वादों के स्तंभ।
और उठता है मलबे से
धूल से भरा एक मौन—
जिसे हम
‘राष्ट्रीय संवेदना’ कह देते हैं।
अब यह देश
नक्शों में नहीं मिलता।
यह मलबे में दबी
एक चीख है—
न किसी कविता में दर्ज होती है,
न संसद के प्रश्नकाल में।
भ्रष्टाचार
अब सिर्फ़ दीमक नहीं—
यह एक मौसम है,
जिसमें हर निर्माण
एक अगली दुर्घटना की प्रतीक्षा करता है।
जाँच बैठाई जाएगी,
फाइलें घूस में लिपटेंगी,
रफा-दफा हो जाएगा सब।
पिछली जाँच का अब तक
कुछ अता-पता नहीं मिला।
कसूर क्या था उनका?
कि वे बच्चे ग़रीब थे?
कि स्कूल सरकारी था?
या कि हमने
सवाल उठाना सीखा ही नहीं?
अब ग़रीब होना
सिर्फ़ आर्थिक स्थिति नहीं—
यह एक राजनीतिक चुप्पी है,
जिसे हर बारिश, हर पतन,
हर भाषण, हर आपदा में
दोहराया जाता है।
बड़े शहरों में
नीति आयोग बनता है एसी रूमों में—
और गाँव में बच्चे
गिनते हैं इमारत की दरारें,
जैसे गणित का नया अध्याय हो।
माँओं ने पढ़ना बंद कर दिया है,
अब वे केवल
“उपस्थिति रजिस्टर में अनुपस्थित”
खोजती हैं।
कब तक गिरेंगी छतें?
कब तक मरते रहेंगे बच्चे?
कब तक नेता
हमारी मरी हुई संवेदनाओं पर
एक ही नाटक दोहराते रहेंगे?
कब तक राष्ट्र
अपने भविष्य को
मलबे में दफ़्न करता रहेगा?
[समर्पण]
यह कविता उन बच्चों को समर्पित—
जिन्होंने शिक्षा की जगह
मृत्यु का प्रमाण-पत्र पाया