मतपत्रों के जरिए चुनाव चाहते हैं भाकपा माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य

  • ईवीएम का मसला चुनाव हारने से नहीं जुड़ा, चुना की पारदर्शिता और लोगों के भरोसे भी हासिल होना चाहिए

20 साल बाद दो सांसदों के संसद में पहुचंने से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के नेता दीपांकर भट्टाचार्य खुश तो हैं लेकिन वह मानते हैं कि जमीनी लड़ाई ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही ईवीएम को लेकर विभिन्न विपक्षी दलों द्वारा उठायी गई चिंताओं के बीच उन्होंने कहा कि देश को संभवत: मतपत्रों की ओर लौटने की जरूरत है। देश की एक समाचार एजेंसी के संपादकों के साथ इंटरव्यू के दौरान दीपांकर शिक्षा के कथित ‘‘भगवाकरण’’ और एग्जिट पोल के कारण शेयर बाजार ‘‘घोटाले’’ पर भी चिंतित दिखे।

 

इंटरव्यू के दौरान ईवीएम को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए भट्टाचार्य ने कहा कि विपक्ष ने चुनावों में वीवीपैट की 100 फीसदी गिनती कराने की मांग की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे ठुकरा दिया।

वीवीपैट एक स्वतंत्र मत सत्यापन प्रणाली है, जिसके जरिए कोई भी मतदाता यह देख सकता है कि उसका वोट सही था या गलत। वीवीपैट से कागज की एक पर्ची निकलती है, जिसे मतदाता देख सकता है और इस पर्ची को सीलबंद बक्से में रखा जाता है तथा कोई विवाद होने की सूरत में इसे खोला जा सकता है। वर्तमान में ईवीएम में दर्ज सभी मतों का वीवीपैट पर्चियों से मिलान नहीं किया जाता।

 

संपादकों से बातचीत में भट्टाचार्य ने कहा कि निर्वाचन आयोग सहमत नहीं हुआ। इसलिए मुझे लगता है कि अब आखिरकार इस देश को संभवत: वापस मतपत्रों की ओर जाना पड़ेगा। उन्होंने साथ में जोड़ा कि यह मेरा निजी विचार है। उन्होंने कहा कि यह उनकी पार्टी का रुख है, जिसे कई अन्य दलों के साथ साझा किया गया है, लेकिन वह देश में सभी दलों के विचारों के बारे में विश्वास के साथ नहीं कह सकते।

 

भाकपा (माले) नेता ने कहा कि इसका चुनाव परिणाम से कोई लेना-देना नहीं है। आम तौर पर भाजपा के लोग कहते हैं कि यह हारने पर दिया जाने वाला तर्क है। जब भी हम चुनाव हारते हैं, तो ईवीएम के बारे में बात करते हैं। ऐसा नहीं है। आखिरकार चुनाव पारदर्शिता और लोगों के भरोसे के बारे में है।

 

जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि क्या मतपत्रों से बूथ पर कब्जा करने का युग वापस आ सकता हैतो उनका जवाब था कि इसे ‘‘बूथ’’ पर कब्जा कहा जाता है, न कि ‘‘मतपत्रों’’ पर कब्जा। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि इसका मतपत्रों या मतदान की पद्धति से कोई लेना-देना है।’’

 

एक राष्ट्र, एक चुनाव, एक भाषा, एक दल, एक नेता, एक परीक्षा- ये सभी खराब विचार हैं

राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) द्वारा करायी परीक्षाओं में हाल में हुई अनियमितताओं और परीक्षाओं को रद्द करने के बारे में उन्होंने कहा कि परीक्षाओं का केंद्रीकरण एक खराब विचार है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि ‘एक’ से शुरू होने वाली ऐसी सभी चीजें…यह बहुत विनाशकारी, खराब विचार हैं। चाहे ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’, एक भाषा, एक दल, एक नेता, एक परीक्षा हो। ये सभी खराब विचार हैं। अगर आप इन विचारों को लागू करने की कोशिश करेंगे तो ऐसी चीजें होंगी, व्यवस्था में छेड़छाड़ की जाएगी।’’

 

उन्होंने कहा कि चुनावों का भगवाकरण किए जाने के प्रयास अटल बिहारी वाजपेयी के युग से किए जा रहे हैं।

 

भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘भगवाकरण के अलावा, पूरी तरह निजीकरण भी किया जा रहा है और मैं इसे शिक्षा का ‘‘अभिजात्यीकरण’’ कहूंगा। इसलिए एक बार फिर शिक्षा से लोगों को वंचित किया जा रहा है, जिसे आंबेडकर ने सामाजिक न्याय का हथियार बताया था। यह (शिक्षा) एकमात्र चीज है, जो लोगों के जीवन में ठोस सुधार ला सकती है।’’

 

एग्जिट पोल को लेकर जारी विवाद और शेयर बाजार घोटाले के आरोपों पर भट्टाचार्य ने कहा कि वह संयुक्त संसदीय समिति की मांग का समर्थन करते हैं और ‘इंडिया’ गठबंधन संसद में इस मुद्दे को उठाएगा।

 

भाकपा (माले) लिबरेशन के लिए सड़क राजनीति का मुख्य क्षेत्र बनी हुई है

 

भट्टाचार्य ने कहा है कि 20 साल के अंतराल के बाद पार्टी के दो सांसद जीते हैं, लेकिन इसकी राजनीति का मुख्य क्षेत्र सड़क ही है।

 

वर्ष 1973 में भाकपा (माले) में विभाजन के बाद अस्तित्व में आई भाकपा (माले) लिबरेशन ने इस बार ‘इंडिया’ गठबंधन के अंतर्गत लोकसभा चुनाव लड़ा और बिहार में दो सीटें जीतीं। पार्टी के उम्मीदवारों में काराकाट से राजा राम सिंह और आरा से सुदामा प्रसाद जीते।

 

भट्टाचार्य ने कहा कि पार्टी के दोनों सांसद संसद में लोगों से जुड़े मुद्दे उठाएंगे। भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘हमारे लिए संसद वास्तव में राजनीति का प्राथमिक क्षेत्र नहीं है, हमारी राजनीति का मुख्य क्षेत्र सड़क है।’’ दोनों सांसद किसान नेता और बिहार विधानसभा में दो बार विधायक रह चुके हैं।

 

भाकपा(माले) लिबरेशन के पहले सांसद 1989 में इंडियन पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) के उम्मीदवार के रूप में आरा से निर्वाचित हुए थे। यह उस समय पार्टी का जन मोर्चा था, जब पार्टी भूमिगत थी।

 

इसके बाद जयंत रोंगई 1991 में असम के स्वायत्त जिला निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा सांसद बने और 2004 तक सांसद रहे।

 

वर्ष 1991, 1996 और 1998 में रोंगई स्वायत्त राज्य मांग समिति के उम्मीदवार के रूप में चुने गए। 1999 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा।

 

भट्टाचार्य ने कहा-1989 में बिहार से हमारा एक सांसद था और हमारे लिए वह एक ऐतिहासिक क्षण था। हमने 80 के दशक के मध्य में ही चुनावों में हिस्सा लेना शुरू किया, तब तक हम चुनावों से दूर रहते थे।

 

उन्होंने कहा कि 1980 के दशक के मध्य तक हमें यह एहसास होने लगा कि भूमि संघर्ष, मजदूरी, सामाजिक सम्मान के मामले में हम जिन लोगों के लिए लड़ते हैं, ये वे लोग हैं जिनके पास वास्तव में मतदान का अधिकार नहीं है। वे वंचित लोग हैं, खासकर भूमिहीन दलित और अन्य।

 

पार्टी ने इस वर्ग के मताधिकार के लिए लड़ाई लड़ी और उसे सफलता तब मिली, जब भोजपुर में हजारों लोगों ने जीवन में पहली बार वोट डाला। उन्होंने कहा, ‘‘और इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। मतदान खत्म होने के बाद नरसंहार हुआ और 32 लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी गई।’’

 

पार्टी से अपने जुड़ाव के बारे में भट्टाचार्य ने कहा कि जब नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ था, तब वह अलीपुरद्वार में स्कूल में पढ़ रहे थे। इस आंदोलन के बारे में चर्चा और स्कूल जाते समय दीवारों पर लिखे गए नारों ने युवा नेता पर गहरा प्रभाव डाला।

 

उन्होंने कहा- मेरे पिता रेलवे में कार्यरत थे…1967 में मैं एक प्राथमिक विद्यालय में पहली कक्षा में पढ़ता था। जब नक्सलबाड़ी की घटना हुई, तो इसका हम पर बहुत प्रभाव पड़ा। दीवारों पर बहुत सी बातें लिखी गईं, नारे लिखे गए। इससे मेरे मन में बहुत सी जिज्ञासाएं पैदा हुईं। मैं बहुत जल्दी प्रभावित हो गया।

 

भट्टाचार्य 1970 के दशक को आजादी के दशक के रूप में याद करते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘1972 तक, जब भारत आजादी की रजत जयंती मना रहा था, तब यह सब हो रहा था। मैं अपने पिता से पूछता था कि भारत को फिर से आजाद कराने का सवाल क्यों है? क्योंकि यह एक आजाद देश है। मेरे पिता ने इस चर्चा में मुझे कभी हतोत्साहित नहीं किया।’’

 

भट्टाचार्य के अनुसार, 1977 सबसे निर्णायक वर्ष था, जब आपातकाल हटा लिया गया और लोकतंत्र की नयी भावना बहाल हुई। उन्होंने कहा, ‘‘पूरी तरह से यह भावना थी कि हमें अपना लोकतंत्र वापस मिल गया है।’’

 

जब उन्होंने कोलकाता के भारतीय सांख्यिकी संस्थान में दाखिला लिया, तब तक वह भाकपा (माले) के साथ जुड़ चुके थे।

 

भट्टाचार्य ने कहा, ‘‘1979 तक मैंने लगभग तय कर लिया था कि मुझे यही करना है। मैं तब भी छात्र था, मैंने 1984 में अपनी डिग्री प्राप्त की, लेकिन उस समय तक मैं पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह काम कर रहा था।’’

 

नक्सलबाड़ी आंदोलन ऐसे समय में हुआ जब भारत में वामपंथ के भीतर पुनर्गठन हो रहा था और चीन-सोवियत विभाजन सबसे तीव्र था। यह आंदोलन 1967 में दार्जिलिंग जिले के सिलीगुड़ी सब डिविजन के नक्सलबाड़ी ब्लॉक में हुआ एक सशस्त्र किसान विद्रोह था।

 

वर्ष 1973 में, मूल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) विभाजित हो गई और विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले गुट ने भाकपा (माले) लिबरेशन का गठन किया। भट्टाचार्य ने 1998 में संगठन के महासचिव का पद संभाला।