छठ : श्रम और एकता का महा पर्व
राम आह्लाद चौधरी
छठ पूजा, जिसे छठ पर्व या सूर्य षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय संस्कृति की एक अनमोल धरोहर है। यह पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है, लेकिन आजकल पूरे भारत और विश्व में प्रवासी भारतीयों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जा रहा है। इस पर्व को “श्रम और एकता का महा पर्व” कहा जाना कोई अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि इसमें श्रम की कठोरता और सामूहिक एकता की भावना दोनों ही प्रमुख रूप से झलकती हैं। कहां जाता है कि छठ पूजा सूर्य देव की आराधना का पर्व है, जिसमें प्रकृति, परिवार और समाज की एकता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह पर्व चार दिनों तक चलता है और इसमें व्रत रखने वाली महिलाएं और अब पुरुष भी कठिन नियमों का पालन करती हैं। वर्तमान परिदृश्य में छठ पर्व की सांस्कृतिक महत्व, इतिहास, अनुष्ठान, श्रम की भूमिका, एकता की भावना और आधुनिक संदर्भों पर विस्तार से चर्चा करना जरूरी है।
छठ पर्व का इतिहास और उत्पत्ति
छठ पूजा की जड़ें प्राचीन काल में हैं। पुराणों और महाकाव्यों में इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत महाकाव्य में द्रौपदी द्वारा छठ व्रत का पालन करने का वर्णन है, जब पांडवों को वनवास के दौरान कष्टों से मुक्ति के लिए सूर्य देव की आराधना की गई थी। रामायण महाकाव्य में भी सीता माता द्वारा छठ पूजा करने का संकेत मिलता है। इतिहासकारों के अनुसार, यह पर्व वैदिक काल से चला आ रहा है, जहां सूर्य को जीवनदाता माना जाता था। सूर्य उपासना आर्यों की परंपरा थी, और छठ में सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा इसी से जुड़ी है।
बिहार और पूर्वांचल में यह पर्व लोक संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया। मध्यकाल में मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान भी यह पर्व निर्बाध रूप से मनाया जाता रहा, जो इसकी मजबूती को दर्शाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार, छठ मैया , जो सूर्य की बहन मानी जाती हैं, उनकी कृपा से संतान प्राप्ति, स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है। यह पर्व श्रमिक वर्ग और किसानों से गहराई से जुड़ा है, क्योंकि सूर्य फसलों की वृद्धि का प्रतीक है। इतिहास में यह देखा गया है कि छठ पर्व ने सामाजिक एकता को मजबूत किया, जहां सभी जाति-वर्ग के लोग एक साथ घाटों पर इकट्ठा होते हैं।
छठ पर्व के अनुष्ठान: श्रम की कठोर परीक्षा
छठ पूजा चार दिनों की कठिन साधना है, जो नहाय-खाय से शुरू होकर उषा अर्घ्य तक चलती है। प्रत्येक दिन के अनुष्ठान में श्रम की प्रधानता स्पष्ट है। पहले दिन, नहाय-खाय में व्रती स्नान कर शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं। यह दिन तैयारी करने का दिन है, जहां घर की सफाई, पूजा सामग्री जुटाना और मन की शुद्धि होती है। महिलाएं घंटों खड़ी रहकर चावल, दाल और सब्जियां तैयार करती हैं, जो श्रम का प्रतीक है।
दूसरा दिन खरना है, जिसमें व्रती पूरे दिन निर्जला उपवास रखते हैं और शाम को गुड़ की खीर और रोटी बनाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह दिन परिवार की एकता को दर्शाता है, क्योंकि सभी सदस्य मिलकर तैयारी करते हैं। तीसरा दिन संध्या अर्घ्य है, जो पर्व का मुख्य आकर्षण है। व्रती डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इसके लिए वे बांस की सूप और डाला में फल, ठेकुआ, कसार आदि सजाते हैं। घाट तक जाना, जल में खड़े रहना और अर्घ्य देना – यह सब कठिन श्रम मांगता है। महिलाएं घंटों तक कमर तक पानी में खड़ी रहती हैं, जो उनकी दृढ़ता और श्रम की भावना को दर्शाता है।
चौथा दिन उषा अर्घ्य है, जब उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इसके बाद पारण होता है, जहां व्रत खोला जाता है। इन अनुष्ठानों में उपयोग होने वाली सामग्री – जैसे गन्ना, नारियल, सेब, केला – सभी प्रकृति से जुड़ी हैं, जो किसानों के श्रम को सम्मान देती हैं। छठ में कोई पंडित या मंदिर की जरूरत नहीं; यह लोक पूजा है, जहां श्रम ही पूजा है। व्रती 36 घंटे तक निर्जला रहते हैं, जो शारीरिक और मानसिक श्रम की चरम सीमा है।
श्रम की यह भावना पर्व को अनोखा बनाती है। तैयारी में सप्ताह भर पहले से घरों में ठेकुआ (एक प्रकार का मीठा पकवान) बनाना शुरू हो जाता है। महिलाएं आटे को गूंथती हैं, उसे आकार देती हैं और तलती हैं – यह सब हाथों से होता है, मशीनों से नहीं। पुरुष घाटों की सफाई करते हैं, डाला ले जाते हैं। बच्चे भी शामिल होते हैं, जो आने वाली पीढ़ी को श्रम की शिक्षा देते हैं। इस प्रकार, छठ श्रम को पूजनीय बनाता है।
एकता की भावना: समाज का बंधन
छठ पर्व एकता का प्रतीक है। घाटों पर अमीर-गरीब, ऊंच-नीच सभी एक साथ इकट्ठा होते हैं। कोई भेदभाव नहीं; सभी छठ मैया के भक्त हैं। यह पर्व परिवार की एकता को मजबूत करता है, जहां पति-पत्नी, माता-पिता और बच्चे मिलकर व्रत रखते हैं। सामूहिक रूप से गीत गाए जाते हैं, जैसे “केलवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मेड़राय” – ये लोकगीत एकता की भावना जगाते हैं।
समाज स्तर पर, छठ ने सामाजिक सुधार में भूमिका निभाई है। बिहार में यह पर्व राजनीतिक और सामाजिक एकता का माध्यम बना। उदाहरणस्वरूप, स्वतंत्रता संग्राम में छठ घाटों पर सभाएं होती थीं। आजकल, प्रवासी बिहारी दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में कृत्रिम घाट बनाकर पर्व मनाते हैं, जो उनकी सांस्कृतिक एकता को बनाए रखता है। नेपाल में यह पर्व हिंदू और मैथिली समुदाय की एकता का प्रतीक है।
एकता की यह भावना पर्यावरण से भी जुड़ी है। छठ में नदियों और तालाबों की पूजा होती है, जो जल संरक्षण की शिक्षा देती है। समुदाय मिलकर घाट साफ करते हैं, जो सामूहिक श्रम का उदाहरण है। इस पर्व में महिलाओं की भूमिका प्रमुख है, जो लिंग समानता की ओर इशारा करता है। पुरुष भी अब व्रत रखते हैं, जो पारंपरिक भूमिकाओं में बदलाव ला रहा है।
सांस्कृतिक महत्व और क्षेत्रीय विविधताएं
छठ पर्व भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजा का उत्कृष्ट उदाहरण है। सूर्य को जीवनदाता मानकर उसकी आराधना स्वास्थ्य और ऊर्जा से जुड़ी है। आयुर्वेद में सूर्य किरणों के लाभ बताए गए हैं, और छठ में सुबह-शाम सूर्य दर्शन इसी से प्रेरित है। लोक कला में छठ के गीत, नृत्य और चित्रकला प्रमुख हैं। बिहार की मधुबनी पेंटिंग में छठ के दृश्य अंकित होते हैं।
क्षेत्रीय विविधताएं रोचक हैं। बिहार में यह अधिक कठोर है, जबकि झारखंड में आदिवासी प्रभाव से कुछ बदलाव हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में इसे “डाला छठ” कहते हैं। नेपाल में जनकपुरधाम में बड़े स्तर पर मनाया जाता है। दक्षिण भारत में यह कम प्रचलित है, लेकिन प्रवासियों के कारण फैल रहा है। वैश्विक स्तर पर, अमेरिका और कनाडा में छठ समितियां बनी हैं, जो सांस्कृतिक एकता बनाए रखती हैं।
आधुनिक संदर्भ और चुनौतियां
आधुनिक युग में छठ पर्व ने नई ऊंचाइयां छुई हैं। सोशल मीडिया पर छठ के वीडियो और फोटो वायरल होते हैं, जो युवाओं को आकर्षित करते हैं। बॉलीवुड फिल्मों जैसे “गंगाजल” और “तेजाब” में छठ के दृश्य हैं। हालांकि, चुनौतियां भी हैं – प्रदूषण से नदियां गंदी हो रही हैं, जिससे घाटों पर खतरा है। शहरीकरण से कृत्रिम घाट बन रहे हैं, लेकिन मूल भावना बनी हुई है। कोरोना महामारी में ऑनलाइन पूजा हुई, जो अनुकूलन क्षमता दिखाती है।
छठ श्रम को सम्मान देता है। आज के दौर में जहां मशीनीकरण बढ़ रहा है, छठ हाथों के श्रम की याद दिलाता है। एकता के संदर्भ में, यह पर्व विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ खड़ा है। राजनीतिक रूप से, बिहार में छठ को राज्य अवकाश घोषित किया गया है, जो इसकी महत्ता दर्शाता है।
और अंत में यही कहना है कि छठ पूजा श्रम और एकता का महापर्व है, जो भारतीय संस्कृति की जीवंतता को दर्शाता है। इसमें श्रम की कठोरता जीवन की शिक्षा देती है, जबकि एकता समाज को बांधती है। यह पर्व हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति श्रम और समर्पण से आती है। वर्तमान में इस पर्व को मनाते हुए प्रकृति, परिवार और समाज की रक्षा करना अनिवार्य है। सभी को स्वास्थ्य और समृद्धि प्राप्त हो, यही लोक-मंगल है।
