वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आंबेडकरवाद के विरुद्ध चुनौतियाँ: एक विश्लेषण

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंबेडकरवाद के विरुद्ध चुनौतियाँ: एक विश्लेषण

 

 

डॉ. रामजीलाल, समाज वैज्ञानिक, पूर्व प्राचार्य, दयाल सिंह कॉलेज, करनाल (हरियाणा-भारत

प्राचीन काल से लेकर आज तक विश्व के प्रत्येक देश में ऐसे महापुरुष एवं समाज सुधारक, राजनीतिक विचारक, दार्शनिक, लेखक, वैज्ञानिक, संत, महात्मा, राजनीतिज्ञ एवं क्रांतिकारी हुए हैं, जिन्होंने मानवता को नई दिशा एवं नया प्रकाश देकर सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक विकास के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाई है. इन महापुरुषों एवं महिलाओं की आकाशगंगा में डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम ध्रुव तारे की तरह चमकता है और विश्व के अधिकांश देशों में समाज के हाशिये पर रहने वाले लोग उनसे प्रेरणा लेते हैं। यही कारण है कि 14 अप्रैल को विश्व के लगभग 150 देशों में उनकी जयंती मनाई जाती है. संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रसिद्ध शहर न्यूयॉर्क के मेयर एरिक एडम्स ने घोषणा की कि आंबेडकर की जयंती हर साल मनाई जाएगी और 14 अप्रैल को ‘डॉ. भीमराव आंबेडकर दिवस’ के रूप में घोषित किया। सबसे खास बात यह है कि आंबेडकर जयंती उत्तर कोरिया में मनाई गई और इस अवसर पर उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता किम जोंग उन ने अंबेडकर के योगदान को मानवता के लिए महत्वपूर्ण माना.

डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर (14 अप्रैल 1891- 6 दिसम्बर 1956) भारतीय संविधान के जनक, उसके निर्माता, शिल्पकार एवं वास्तुकार, संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष, प्रसिद्ध वकील, स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री, भारतीय गणराज्य के निर्माता, भाषाविद्, स्वतंत्र एवं निर्भीक पत्रकार, किताब प्रेमी, राजनीतिज्ञ, सांसद, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, सामाजिक क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक, जाति-पाति एवं छुआछूत उन्मूलन के समर्थक, अन्याय पर आधारित सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था के कट्टर विरोधी, दार्शनिक एवं विचारक, महिलाओं, किसानों एवं मजदूरों के हमदर्द, अछूतों एवं वंचित वर्ग के पक्षधर एवं मसीहा, असमानता एवं विषमता पर आधारित समाज के विरुद्ध महान आंदोलनकारी एवं संघर्षशील विचारक एवं उच्च वर्ग के समर्थक थे. समाज सुधारक के रूप में वे मनुवाद-ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति-पाति उन्मूलन के प्रमुख पक्षधर थे. उन्होंने स्वयं स्वीकार किया था कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सशक्तीकरण के बिना कोई भी समाज सुधर एवं विकसित नहीं हो सकत. इस अर्थ में वे महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत थे. उन्हें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का समर्थक माना जाता है.

आंबेडकर की अवधारणा एवं मुख्य विशेषताएं

डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा समय-समय पर समाचार पत्रों, पुस्तकों, भाषणों, ज्ञापनों, संविधान सभा की बहसों आदि में विभिन्न समस्याओं और मुद्दों के संबंध में व्यक्त किए गए विचारों का व्यवस्थित रूप ही आंबेडकरवाद या अंबेडकर की सोच माना जाता है. अंबेडकरवाद आज एक ऐसी विचारधारा है जो एक प्रकाश स्तंभ की तरह दुनिया के राजनेताओं से लेकर समाज के हाशिये पर खड़े आम लोगों तक सभी का मार्गदर्शन करती है.

 

आंबेडकरवादी विचारों का एक समूह है, जिसमें समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, सामाजिक/आर्थिक/राजनीतिक न्याय, मानव गरिमा, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, समाजवाद, और समाज के हाशिए पर पड़े उपेक्षित वर्गों—दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, लघु किसानों और कृषि विहीन कृषि श्रमिकों, संगठित एवं असंगठित श्रमिकों का सशक्तिकरण, उत्थान तथा एक एक ऐसे समतावादी समाज की स्थापना शामिल है, जहां बुनियादी जरूरतें – भोजन, आश्रय, वस्त्र, सार्वभौमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं, काम करने का अधिकार, और समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार – पूरी हों.

आंबेडकरवादी चिंतन इस बात का समर्थन करता है कि महत्वपूर्ण उद्योगों पर सार्वजनिक नियंत्रण (राष्ट्रीयकरण) होना चाहिए. इस दृष्टि से अंबेडकरवादी चिंतन वर्तमान शताब्दी में प्रचलित उदारीकरण, निजीकरण, एवं वैश्वीकरण सहित कॉरपोरेट्रीकरण के विरुद्ध है. यही कारण है कि आंबेडकर समाजवादी चिंतकों के अग्रिम दस्ते की श्रेणी में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं.

आंबेडकरवादी एक ऐसे समाज की स्थापना कल्पना करता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य जीवन के हर क्षेत्र में समान हो, न कि जन्म, जाति, क्षेत्र, धर्म, भाषा, लिंग आदि की संकीर्णताओं और सांप्रदायिक अवधारणाओं के आधार पर. दूसरे शब्दों में, समाज एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए. भारत में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के आधार पर बहुत अधिक विविधताएं हैं. इसलिए, सामाजिक सद्भाव और एकता बनाए रखने के लिए ‘विविधता में एकता के मूल सिद्धांत’ की वकालत करता है.

आंबेडकरवाद असमानता, सामाजिक अन्याय, अमानवीय व्यवहार, अस्पृश्यता, मनुवाद, ब्राह्मणवाद, सामंतवाद, पूंजीवाद, नौकरशाही के जन-विरोधी रवैये, बहुसंख्यकवाद की तानाशाही, हिंसक आंदोलनों, धर्म-आधारित या धर्म-प्रधान राज्यों, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और हिंदू या मुस्लिम राष्ट्रों के खिलाफ है.

आंबेडकरवाद के अनुसार जातिवाद तथा वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता संकुचित, विभाजक, अमानवीय, अनैतिक अवैज्ञानिक एवं संकीर्ण है. अस्पृश्यता एवं चर्तुवर्ण व्यवस्था विभाजक होने के कारण सामाजिक एकता व सामाजिक एकीकरण व राष्ट्रीय एकता व राष्ट्रीय एकीकरण व सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास में अवरोध है. अंबेडकरवाद के अनुसार अस्पृश्यता के कारण दलित वर्ग को अपमान झेलना पड़ रहा है. अंबेडकर की धारणा है कि “सम्मान पूर्वक जीवन व्यतीत करना प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है.’’ परिणाम स्वरूप अंबेडकर ने अनुसूचित जातियों को शिक्षित होने, संगठित होने और संघर्ष करके सम्मानपूर्वक जीवन हेतु वर्ण व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए प्रेरित किया है. उनकी धारणा है कि वर्ण व्यवस्था ने भारत को मुर्दा बना दिया तथा भेदभाव ने दलित वर्ग को शक्तिहीन, अयोग्य एवं पंगू कर दिया. यही कारण है कि भारत में यूरोपीय देशों की भांति कोई सामाजिक क्रांति नहीं हुई. सामाजिक क्रांति के बिना सामाजिक गुलामी, शोषण, असमानता, अत्याचार एवं अपमानजनक जीवन समाप्त नहीं होगा. अतः एक समाज सुधारक के रूप में वह मनुवाद- ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति प्रथा के उन्मूलन के मुख्य पैरोकार थे. >डॉ. रामजीलाल, ‘डॉ. आंबेडकर : युग पुरुष, युग दृष्टा एवं महान विचारक’, दैनिक भास्कर, (पानीपत), 14 अप्रैल 2008 , पृ.6.

आंबेडकर स्वयं इस बात को स्वीकार करते थे कि महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना किसी भी समाज का सुधार और विकास नहीं हो सकता. इस दृष्टि से वह महिला सशक्तिकरण के अग्रदूत थे.

दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य का उद्भव : आपराधिक मानसिकता

यद्यपि एक ओर भारत में डॉ. आंबेडकर की जयंती पर अनेक समारोह, सेमिनार, परिसंवाद आदि आयोजित किए जाते हैं, वहीं दूसरी ओर आंबेडकरवादी विचारधारा के विरोधियों द्वारा उनकी प्रतिमाओं को क्षतिग्रस्त करने, तोड़ने व नुकसान पहुचाने, पुतले व चित्र जलानें की खबरें अमृतसर (पंजाब) से वाराणसी (यूपी) तक, अहमदाबाद (गुजरात) से हरियाणा, (बुड्ढा खेड़ा थाना उकलाना) तक, बिहार से आंधप्रदेश तक समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं. भारतीय समाज में दुर्भाग्यपूर्ण परिदृश्य उभर रहा है. वास्तव में यह दो धारी तलवार की तरह है. एक ओर अंबेडकरवाद व अंबेडकर के योगदान के महत्व को कम करना और दूसरी ओर अनुसूचित जातियों का अपमान व दमन करना है. ’जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपे हुए रंगभेद’ के कारण अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में निरंतर वृद्धि दलितों के लिये ही नहीं अपितु राष्ट्र और समाज के लिए भी हानिकारक है.

आंबेडकरवाद के समक्ष चुनौतियां

प्रथम, भेदभाव और असमानता: आंबेडकरवाद भारतीय लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में समाज में प्रचलित भेदभावऔर असमानता सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है. संविधान सभा के आख़िरी दिन डॉ. बी आर आंबेडकर कहा कि “26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी”. डॉ. अंबेडकर ने कहा, ‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक की उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र अर्थात जीवन के सिद्धांतों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता न हो. समानता के बिना स्वतंत्रता बहुसंख्यक वर्ग पर मुट्ठी भर लोगों का प्रभुत्व स्थापित कर देगी. बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक सी बातें नहीं लगेगी. भेदभाव और असमानता दूर करनी चाहिए. यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह लोग जो भेदभाव का शिकार होंगे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा देंगे जो इस संविधान सभा ने तैयार किया है.’

सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने की आवश्यकता के लिए सामाजिक भेदभाव और असमानता को दूर करके ही स्थाई लोकतंत्र की स्थापना और संविधान की सुरक्षा भी की जा सकती है. परिणाम स्वरूप अंबेडकरवाद के अनुसार सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करके राष्ट्रीय निर्माण की प्रक्रिया जारी रहती है और यदि ऐसा नहीं होता तो वास्तव में राष्ट्र निर्माण, राष्ट्रीय एकीकरण, आधुनिकीकरण, राजनीतिक विकास और शांतिपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रियायों में बाधाएं पैदा होगी .

द्वितीय, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा

अंबेडकरवादी चिंतन के अनुसार वर्तमान समय में राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ एक महत्वपूर्ण चुनौती है. डॉ. अंबेडकर ने सचेत किया था कि लोकतंत्र के निर्माण में ‘राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ एक महत्वपूर्ण चुनौती है और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है’. डॉ. अंबेडकर ने इस संबंध चेतावनी देते हुए लिखा, “उन महान व्यक्तियों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है जिन्होंने देश को जीवन भर सेवाएं प्रदान की हैं. लेकिन कृतज्ञता की भी सीमाएँ हैं. जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ’कोनेल ने ठीक ही कहा है, कोई भी पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई भी महिला अपनी पवित्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई भी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता. यह सावधानी किसी भी अन्य देश की तुलना में भारत के मामले में कहीं अधिक आवश्यक है. भारत में, भक्ति या जिसे भक्ति या नायक-पूजा का मार्ग कहा जा सकता है, उसकी राजनीति में दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई जाने वाली भूमिका के बराबर नहीं है. धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है. लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित रास्ता है”.

जान स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए अंबेडकर ने कहा था, “अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए… इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो. चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है.” अतः अंबेडकरवादी विचारधारा इस बात का समर्थन करती है कि अंधभक्ति लोकतंत्र के लिए घातक और नुकसानदेह है क्योंकि यह तार्किक सोच को कमजोर करके तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करती है .

तृतीय, खूनी क्रांति, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह :

डॉ भीमराव अंबेडकर के अनुसार “अगर हम लोकतंत्र को न केवल स्वरूप में, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से पहली चीज़ जो हमें करनी चाहिए वह है अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को मजबूती से अपनाना. इसका मतलब है कि हमें क्रांति के खूनी तरीकों को त्यागना होगा. इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए. जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों का कोई रास्ता नहीं बचा था, तब असंवैधानिक तरीकों का औचित्य बहुत अधिक था. लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं हो सकता. ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं और इन्हें जितनी जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा.”

हमारा सुनिश्चित अभिमत है कि लोकतंत्र में बंदूक तंत्र (खूनी तरीकों) का स्थान नहीं है. क्योंकि शक्ति (सत्ता) बंदूक की नली से पैदा नहीं होती अपितु चुनाव के समय मतदान के दिन के ईवीएम (EVM) का बटन दबाने से पैदा होती है. परंतु इसके बावजूद भी दो चुनावों के अंतराल में शांतिपूर्ण आंदोलन सरकारों के सर्वसत्तावाद को नियंत्रित करने लिए जरूरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है अपितु इनके प्रहरी हैं. शांतिपूर्ण आंदोलनों का त्याग करने के वकालत जो डॉ. अंबेडकर ने की है उससे सहमति प्रकट करना बड़ा कठिन है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से ‘निर्वाचित तानाशाही’ पर नियंतण करना मुश्किल है. इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करेगा. सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सत्याग्रह, धरना, प्रदर्शन, हड़ताल इत्यादि- शांतिपूर्ण आंदोलन लोकतंत्र व राष्ट्र निर्माण की कमजोरी नहीं है क्योंकि केवल संवैधानिक तरीके से निर्वाचित तानाशाही पर नियंत्रण करना मुश्किल है और इसलिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण तरीके से आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करता है जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहेगी.

डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा की अंतिम बैठक के समापन में ऐतिहासिक भाषण में वर्णनित यह तीनों चुनौतियां अथवा चेतावनियां -सामाजिक असमानता, राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा’ तथा खूनी क्रांति के तरीके (जैसे आतंकवाद, नक्सलबाड़ी आंदोलन व माओवादी हिंसक आंदोलन) , आतंकवाद का परित्याग, वर्तमान 21वीं शताब्दी में आज भी पूर्णतया सार्थक और प्रासंगिक हैं. सारांशत: शांतिपूर्ण जन आंदोलनों में वह शक्ति होती है जिसके द्वारा सर्वसत्तावादी शासकों को घुटने टेकने-अपने निर्णयों या कानूनों को वापिस लेने अथवा कुर्सी छोड़ने के लिए मज़बूर किया जा सकता है.

चतुर्थ, जातिवाद और वर्ण व्यवस्था:

भारत में जातिवाद का इतिहास हजारों साल पुराना है. ऋग्वेद के अनुसार भारत में चार वर्ण -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हैं. शुद्र वर्ण का अर्थ नौकर अथवा अछूत है. शुद्र वर्ण की तुलना व्यक्ति के शरीर के पैरों से की गई है. इन चारों वर्णों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ स्थान पर तथा शूद्र को सबसे निम्न स्थान पर रखा गया है . डॉ. अंबेडकर मनुवादी एवं ब्राह्मणवादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के धुरंधर विरोधी थे.

डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रथम मराठी पाक्षिक-समाचार पत्र मूकनायक (‘’The Leader of Voiceless”) के प्रवेशांक सम्पादकीय (31 जनवरी 1920) में ‘हिंदू समाज” के संबंध में बड़ा स्पष्ट लिखा:

‘हिंदू समाज एक मीनार है और एक-एक जाति इस मीनार का एक-एक तल (जाति) है. ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ियां नहीं हैं, एक तल (जाति) से दूसरे तल (जाति) में आने-जाने का कोई मार्ग नहीं है. जो जिस तल (जाति) में जन्म लेता है, वह उसी तल (जाति) में मरता है. नीचे के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही लायक हो, ऊपर के तल (जाति) में उसका प्रवेश संभव नहीं है, और ऊपर के तल (जाति) का मनुष्य कितना ही नालायक हो, उसे नीचे के तल (जाति) में धकेल देने की हिम्मत किसी में नहीं है.’’

डॉ. अंबेडकर इस चतुर्वर्ण प्रणाली को सर्वनाशक, हिंसक, शोषणकारी और अत्याधिक खतरनाक मानते थे. उनका कहना था कि इस व्यवस्था से रूढ़िवाद, अंधविश्वास और ऐसी परंपराएं विकसित की गई जिनके परिणाम स्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण हुआ है. इस प्रणाली के रक्षक लोगों ने आम आदमी विशेष तौर से दलित वर्ग के लोगों का शोषण करके इंसानियत को समाप्त किया है और लोगों को गुलाम बनाया. गुलाम लोग अपने ही शस्त्रों से अपना सर कटवाते रहे तथा गुलामी करते रहे और हल चला कर फसल पैदा करते रहे और खुद भूखे मरते रहे. इस व्यवस्था ने कभी भी हल के फालों को तलवार में बदलने का समय नहीं दिया. उनके पास कोई हथियार अथवा संगठन ने नहीं थे. इस प्रणाली ने दलित और कमजोर लोगों को मू्र्दा बना कर रख दिया और उनमें क्रांति करने की ताकत समाप्त कर दी. परिणाम स्वरूप भारत में कभी भी ऐसी सामाजिक क्रांति नहीं हुई जैसे कि यूरोपियन देशों में हुई है. डॉ. अंबेडकर का मानना था कि जब तक भारत में सामाजिक क्रांति नहीं होगी तब तक अनेक कानूनों एवं संविधान के उपबंधो के बावजूद भी शोषण समाप्त नहीं होगा और दलित और श्रमिक वर्ग (सर्वहारा वर्ग) शोषित होता चला जाएगा. संक्षेप में दलित और शोषित वर्ग अर्थात श्रमिक वर्ग का शोषण होता था, होता है और होता रहेगा .

डा. अंबेडकर के अनुसार ‘छुआछूत गुलामी से भी बदतर है’. जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के कारण उत्पन्न अस्पृश्यता को संकुचित, अमानवीय, अवैज्ञानिक, अनैतिक, विभाजक तथा संकीर्ण है. जाति-व्यवस्था से तंग आकर जातिवाद को समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने सन 1936 में धर्म परिवर्तन के संबंध में यह घोषणा कि ‘यद्यपि मैं हिंदू जन्मा हूं, लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं’, और जीवन के अंतिम चरण में 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर की दीक्षाभूमि में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 3 लाख से 5 लाख तक अपने अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. भारत के इतिहास में एक दिन में इतनी संख्या में धर्म परिवर्तन करने का प्रथम उदाहरण है

पांचवीं,अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों में वृद्धि :

A.अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अत्याचारों में वृद्धि

भारत में दलित वर्ग के खिलाफ ‘जातिगत भेदभाव’ अथवा ‘छिपा हुआ रंगभेद’ (हिडन अपरथाइड) विद्यमान होने के कारण दलितों के विरुद्ध अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है . सरकारी सूत्रों के अनुसार सन् 1976 से सन् 1987 के दशक में दलितों के विरुद्ध अत्याचार, अपराध और हिंसात्मक घटनाओं के 1,32,5612 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत हुए. सन्a 1976 में पुलिस थानों में 5986 मामले पंजीकृत हुए हुए थे. 1985 व वर्ष 1986 में यह संख्या लगभग 5 गुणा बढ़कर 30,736 तक पहुंच गई. सन् 1989 में यह मामले बढ़कर 14,269 हो गए. दलित वर्गों के विरुद्ध होने वाले अत्याचार के निरंतर बढ़ते हुए आंकड़े यह चिल्ला चिल्ला कर बोलते हैं कि स्वतंत्र भारत में क्या दलित जीवन का कोई महत्व नहीं हैं ?

सन् 1989 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम सन् 1989 लागू होने के पश्चात दलित अत्याचारों में कमी की अपेक्षा वृद्धि हुई है. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2000 में दलितों के खिलाफ 25,455 अपराध हुए; यानी हर घंटे दो दलितों पर हमला, हर दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, दो दलितों की हत्या, और दो दलितों के घर जला दिए गए. सन् 2006 से सन् 2016 तक 10 वर्ष के अंतराल में दलितों के विरुद्ध अत्याचारों के 4,22,799 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए.

21 मार्च 2023 को भारत सरकार के गृह राज्य मंत्री अजय कुमार ने प्रश्न क्रमांक 3443 का एनसीआरबी के द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों के आधार पर उत्तर देते हुए लोकसभा में कहा कि दलित जातियों विरुद्ध अत्याचार व र्हिंसा के सन् 2018 में 42,793,सन् 2019 में 45,961,सन् 2020 में 50, 291व सन् 2021 में 50,900 के मामले भारत के पुलिस स्टेशनों में पंजीकृत भारत सरकार के गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध पंजीकरण ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार सन् 2022 की ‘भारत में अपराध’ रिपोर्ट के अनुसार भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध करने के लिए कुल 57,582 मामले पुलिस थानों मेंपंजीकृत हुए, जो सन् 2021 (50,900 मामले) की तुलना में 13.1% अधिक है। अपराध दर सन् 2021 में 25.3 से बढ़कर सन् 2022 में 28.6 हो गई. सन् 2022 में राज्यवार संख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश, 15,368, राजस्थान, 8,752, मध्य प्रदेश, 7,733 और बिहार (6,509) में दर्ज किए . मामले दर्ज किए गए। यूपी में, अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराधों की संख्या सन् 2021 में 13146 से बढ़कर सन् 2022 में 15368 हो गई – 16% की वृद्धि। सन् 2020 में यह आंकड़ा 12714 था. आंध्र प्रदेश में, 2315 , तेलंगाना में 1787, तमिलनाडु में 1761 और कर्नाटक में 1977, केरल में 1,050 पंजीकृत किए गए .तमिलनाडु में एससी के खिलाफ अपराधों में तेजी देखी गई, जो सन् 2021 में 1377 से बढ़कर सन् 2022 में 1761 हो गई. प्रतिशत के लिहाज से 28.4 की वृद्धि. वर्ष 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध यूपी ,(15,368)में, और सबसे कम केरल (1,050) में पंजीकृत हुए हैं. उत्तर प्रदेश में भाजपा नीत योगी सरकार है जब कि केरल में सीपीआई (एम) नीत एलडीएफ की सरकार है.

B. उत्तर प्रदेश 

केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा को बताया कि इन्हीं 4 वर्षों के दौरान 27,754 लोगों को मामलों में दोषी ठहराया गया. 2019 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 1 साल में 32,033 दलित महिलाओं दलित बच्चियों के साथ कथित उच्च जातियों के गुँडों ने बलात्कार किए. अन्य शब्दों में प्रतिदिन 88 बलात्कार अर्थात हर 20 मिनट में एक बलात्कार पुलिस थाना में पंजीकृत होता है और असंख्य बलात्कार पुलिस थानों में रिपोर्ट पंजीकृत नहीं होते.

सन् 2022 में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराध करने के लिए कुल 10,064 मामले पुलिस थानों में पंजीकृत किए गए, जो सन् 2021 (8,802 मामले) की तुलना में 14.3% की वृद्धि हुई है. अपराध दर सन् 2021 में 8.4 से बढ़कर सन् 2022 में 9.6 हो गई. सन् 2022 में बलात्कार के 1,347 मामले और आदिवासी महिलाओं पर हमले के 1022 मामले पुलिस थानों मेंपंजीकृत किए गए. सन् 2022 में राज्यवार संख्या की दृष्टि से मध्य प्रदेश में 2,979, राजस्थान में 2,521, तेलंगाना में 545, तमिलनाडु में 67, कर्नाटक में 438, आंध्र प्रदेश में 396 जबकि केरल में 172 अपराध पंजीकृत किए गए..कर्नाटक में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अपराधों में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की गई, जो सन् 2021 में 361 मामलों से बढ़कर सन् 2022 में 438 मामले हो गए, जो 21.3% की वृद्धि है अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध मध्य प्रदेश (2,979) मे

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