क्योंकि उन्हें संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए 

क्योंकि उन्हें संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहिए

ओमप्रकाश तिवारी

भाजपा और आरएसएस इस समय संविधान की प्रस्तावना से समाजवादी धर्मनिरपेक्ष आदि शब्दों को निकालना चाहते हैं। इसके लिए एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है। उनके विद्वानों /ज्ञानियों ने अपने तर्क झोंक दिए हैं। उन्हें न समाजवाद पसंद आता है और न धर्मनिरपेक्षता। यह उनके एजेंडे में हमेशा बाधा डालते हैं। संविधान के इन शब्दों को वह इंदिरा गांधी के बहाने से हटाना चाहते हैं, लेकिन ये शब्द तो संविधान की मूल भावना हैं। उसके मूल्य को समझने के लिए हैं। इन्हें हटाने का मतलब है संविधान की मूल भावना को नकारना जो कि संविधान को खत्म करने जैसा ही है। संघ और भाजपा यही चाहते हैं।

फेसबुक पर एक लेख लिखकर साहित्यकार प्रेम कुमार मणि ने यह कहते हुए आरएसएस और भाजपा की मांग का समर्थन किया है कि इस बहाने संविधान पर बहस होगी। लेकिन उन्होंने अपने नजरिये को स्पष्ट नहीं किया है। हाँ इधर उधर की बातें करके अपनी विद्वता का प्रदर्शन जरूर किया है।

उनके लेख में घोर चालाकी और धूर्तता है। साथ ही शातिरपना भी है। यदि उन्हें संघ के कथन पर विमर्श चाहिए तो एक स्पष्ट नजरिये के साथ सामने आना चाहिए था।

स्पष्ट है कि संघ क्यों चाहता है कि संविधान से समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द को हटा दिया जाए? विमर्श का मूल बिंदु यही है। इस पर आपने कुछ कहा ही नहीं।

सवाल यह है कि क्या आज भी हमारा समाज और देश सदियों पुराने मूल्यों विचारों और सिद्धांत वाले दर्शन से चलेगा जिस पर धर्म का आवरण चढ़ा हुआ है?

मानव विकास का चक्र इसकी इजाजत नहीं देता है। यदि कोई इस जिद पर अड़ा है तो वह समाज और देश के साथ ही मनुष्य और मनुष्यता का भी भला नहीं चाहता है। संघ इसी पर अड़ा है। उसकी जिद मनु स्मृति है। और भी ग्रंथ जो मनु स्मृति को पोषित करते हैं।

लेकिन आज के समय में यह सब आउट डेटेट हैं। अप्रासंगिक हैं। मानव सभ्यता के विकास के अनुकूल नहीं हैं। इनमें मानवीयता, मनुष्यता और इंसानियत खत्म है। मृत है। ये सजीव नहीं हैं। इन्हें नकार कर ही आगे बढ़ना होगा। यह ए आई का जमाना है। जो विज्ञान और तकनीक से बनी है। इस समय भारत इस और इस जैसी तकनीक में पिछड़ा है तो इसकी वजह भारत की सदियों पुरानी सोच और संस्कृति है।

डाक्टरी की पढ़ाई के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में करीब 25 लाख विद्यार्थी शामिल हुए थे। साढ़े बारह लाख छात्र परीक्षा में उत्तीर्ण भी हुए। लेकिन पढ़ाई के लिए 11.18 लाख ही सीट देश में है। तमाम तरह की सीटों को मिला दिया जाय तो दो लाख ही सीट है। अब बाक़ी के युवा क्या करें? यही हाल इंजीनियरिंग का भी है।

यह दोनों पढ़ाई विज्ञान आधारित हैं लेकिन इन्हें पढ़ने वाले छात्र क्या वैज्ञानिक सोच वाले होते हैं? यही नहीं डाक्टर इंजीनियर बनकर भी उनकी सोच मनु स्मृति वाली क्यों बनी रहती है। इसरो का वैज्ञानिक किसी मिशन की सफलता के लिए मंदिर क्यों जाता है। देश का रक्षा मंत्री किसी जेट विमान में नींबू मिर्ची क्यों लगता है। डाक्टर कहते हैं कि बच्चे को काजल मत लगाना लेकिन पढ़ी लिखी लड़की भी अपने बच्चे को काला टीका लगा देती है. डाक्टर इसलिए मना करता है ताकि बच्चे को कोई इंफेक्शन न हो जाए लेकिन बच्चे की माँ और दादी इसलिए काला टीका लगाती हैं कि बच्चे को नजर न लग जाए। आज के समय में नजर लगने की बात करना कितना उचित है? ऐसे परिवार में पल बढ़ कर बच्चा क्या बनेगा?

डाक्टर बन भी गया तो क्या काला टीका लगाने से मना कर पाएगा? ai जैसी तकनीक का आविष्कार कर पाएगा? हाँ इस तकनीक का इस्तेमाल करेगा लेकिन नकारात्मक मानसिकता के कारण मानव जीवन का नुकसान ही करेगा।

बात साफ़ है की आज के समाज को एक नए दर्शन की ज़रूरत है। जिसमें नया जीवन दर्शन और सामाजिक संबंध हों। उत्पादन की प्रणाली मानव जीवन के विकास के लिए हो।

फ़िलहाल लोकतंत्र है। उसे चलाने वाला संविधान है। इसके आधार पर देश और समाज का नियमन होना चाहिए। हो भी रहा है। लेकिन सच्चे दिल से सत्ता इसका पालन नहीं कर रही है। उसकी संस्कृति मनु स्मृति पर आधारित है। संविधान की संस्कृति और उसके मूल्य तथा सिद्धांत का पालन नहीं किया जा रहा है। इसी वजह से समाज वाद और धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द खटक रहे हैं। शब्द नहीं इनके मूल्य खटक रहे हैं। क्योंकि इन्हें चाहिए वर्ण व्यवस्था वाला जातीय समाज जो विभाजित रहे और ये मुफ्त में बिना कुछ किए धरे मलाई खाते रहें।

इस विचार और दर्शन से समाज और देश का भला नहीं होने वाला है। ख़ुद को राष्ट्रवादी कहने से कोई राष्ट्रवादी नहीं हो जाता है । उसके कार्य व्यवहार यानी संस्कृति में भी वह प्रतिबिंबित होना चाहिए।

भाजपा और संघ के कार्य व्यवहार यानी संस्कृति में मनुस्मृति की व्यवस्था का अनुपालन करने की ललक ही दिखती है।

मनु स्मृति के अनुसार चलकर वह देश को वर्ण व्यवस्था के अनुसार चलाना चाहते हैं। उनका मकसद है कि बहुजन समाज जातीयों में विभाजित रहे ताकि इसका लाभ उठाया जा सके। समाज में एक प्रभुत्व वर्ग कायम रहे।

हालांकि आज की उत्पादन प्रणाली वर्ण व्यवस्था की अनुमति नहीं देती है। उसे चाहिए सस्ता मजदूर ताकि वह अपने लाभ को बढ़ा सके और अपनी पूँजी का विस्तार कर सके। वह बहुजन समाज को कम वेतन और कम दिहाड़ी देकर सारे अतिरिक लाभ को हड़प लेने की प्रवृत्ति से संचालित हो रही है। कुछ लोगों के पास अकूत संपत्ति और अधिकतर लोगों के पास जीने भर की सुविधा। कल्याणकारी राज्य के नाम पर पाँच किलो अनाज मुफ्त में दिया जा रहा है। बदले में बहुमूल्य वोट लेकर उत्पादन का पूरा लाभ हड़पा जा रहा है। ऐसे में विरासत और संस्कृति के नाम पर धर्म की आड़ लेकर वर्ण व्यवस्था वोट बैंक में परिवर्तित किया जा रहा है।

धर्म निरपेक्षता और समाजवाद उनकी विचारधारा की राह में अवरोधक हैं जिन्हें वह समूल नष्ट कर देना चाहते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *