‘वंदे मातरम्’ पर तीखी बहस बीस साल पहले भी चली थी। तब (सितम्बर 2006 में) जनसत्ता में मैंने एक लेख लिखा था। नौ साल बाद द वायर पर वह अँगरेज़ी में शाया हुआ। अब फिर नौ साल बाद कल रात अपूर्वानंद ने उसकी बात छेड़ी। लगा कि संक्षिप्त-संपादित रूप में सही, उसे फिर साझा किया जाय। प्रस्तुत है — )
कविता और कथा के बीच बंकिम बाबू
ओम थानवी
‘वंदे मातरम्’ कैसा गीत है? ‘आनंदमठ’ कैसा उपन्यास है? अच्छा होता इस मौके पर विद्वान लोग साहित्यकार के नाते बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के काम और राष्ट्रवाद की अवधारणा पर अलग से विचार करते।
सारी बहस में लोग या तो बंकिमचंद्र के पक्ष में खड़े हैं या उनके चरित्र तक की बखिया उधेड़ रहे हैं। साहित्य चर्चा के केंद्र में कहीं नहीं है। राष्ट्रगीत के थोपे जाने का विरोध करते-करते लोग गीत में खोट ढूँढ़ने लगते हैं।
1874 में रचित ‘वंदे मातरम्’ कविता पहले है, राष्ट्रगीत बाद में। इस बहस में मानो कविता राष्ट्रवाद की भेंट चढ़ गई। जिन्होंने कविता को अच्छा या बुरा बताया, उनके पीछे भी सामाजिक या राजनीतिक आग्रह दिखाई देते हैं। क्या ऐसी बहस के बाद आने वाली पीढ़ी ‘वंदे मातरम्’ को कविता की तरह पढ़ पाएगी?
रचना के स्तर पर ‘वंदे मातरम्’ सुंदर कविता है। ‘आनंदमठ’ हलका उपन्यास लगा। यह बात किसी आग्रह से नहीं कह रहा हूँ। साहित्य कला का अंग है। दुनियावी चीज़ों से कहीं ऊँचा। उसे देखने का नज़रिया भी उसी का होता है, शायद उसी में से निकलता है।
इसलिए ‘वंदे मातरम्’ के धार्मिक प्रतीकों से हम ज़रा आगे निकलें तो गीत के शब्द हमारे सामने छंद, रंग और गंध की एक बड़ी और सौम्य दुनिया खोलते हैं। ‘मलयजशीतलाम्’ कोरी चंदन की बयार नहीं है , न ‘शुभ्रज्योत्स्नां पुलकितयामिनीम्’ महज़ चांदनी रात के रोमांच को बयान करती है।
गीत में हर उपमा एक निराला छंद है। गीत हमें शब्द और उसके अर्थ की दुनिया के पार ले जाता है। जैसा कि प्रो. रामचंद्र गांधी — जो महात्मा गांधी के पौत्र के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, जबकि आला दरज़े के कला-मर्मज्ञ हैं — ने अंतरंग बातचीत में कहा कि बाकी गीत का सौंदर्य अपना है, पर उसके शुरू के दो शब्द — ‘वंदे मातरम्’ — स्वयं संपूर्ण काव्य हैं। जैसे ‘सत्यमेव जयते’ के। वे लय की बात कर रहे थे; कविता की धड़कन की। (प्रो. गांधी का 2007 में निधन हो गया।)
‘वन्दे मातरम्’ में संस्कृत और बांग्ला का मिला-जुला प्रयोग अपने आप में एक ख़ूबी है। अँगरेज़ी में (श्रीअरविंद के कुशल अनुवाद के बावजूद) शब्द-समूहों की खनक उसमें नहीं मिल पाती। ‘वंदे मातरम्’ में काव्य के साथ अनूठी सांगीतिकता भी है। उसे कई रूपों में संगीतबद्ध किया जा सकता है। रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एआर रहमान तक के उदाहरण हमारे सामने हैं।
रवींद्रनाथ ने गीत का सिर्फ पहला अंतरा संगीतबद्ध किया था। राग देस में। इस स्वरलिपि को बंकिम बाबू ने ‘आनंदमठ’ के तीसरे संस्करण में परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया। हालांकि गीत की संगीत-रचना सबसे पहले उनके मित्र (संगीत शिक्षक) यदुनाथ भट्टाचार्य ने भी राग मल्हार में तैयार की थी। उसका उल्लेख अपने परिवार की पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में बंकिम बाबू नेू ‘आनंदमठ’ के धारावाहिक प्रकाशन (1880) के समय किया भी था।
यह सही है की ‘वंदे मातरम्’ में दशप्रहरणधारिणी, कमला कमल-दल-विहारिणी और वाणी विद्यादायिनी शब्द भी आते हैं। लेकिन धार्मिक प्रतीक हमेशा सांप्रदायिक नहीं होते। कम-से-कम ‘वंदे मातरम्’ में, इन प्रतीकों के ज़िक्र के बावजूद, किसी धर्म की नहीं धरती की वंदना है।
कला में धार्मिक प्रतीक, मेरी समझ में, हमेशा गौण रूप में प्रकट होते हैं। किसी का ध्यान रचना से हटकर केवल उन प्रतीकों की तरफ़ जाता हो तो दोष रचना में नहीं, नज़रिए में माना जाएगा।
अँगरेज़ी अख़बारों ने इस बात को हवा दी है की ‘वंदे मातरम्’ बंकिमचंद्र ने ‘बंगदर्शन’ में खाली छूट रही जगह भरने के लिए रचा था। लेकिन ‘आनंदमठ’ पढ़ते हुए किसी को भी ऐसा लग सकता। ‘वंदे मातरम्’ गीत पढ़ें, तब बंकिम लयबद्ध नज़र आते हैं। उपन्यास में उनके विवेक और गद्य दोनों की लय उखड़ जाती है।
उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ को समूचे उपन्यास में ठूंस कर गीत की स्निग्धता को खुरदरा कर दिया। अपनी कविता को ख़ुद नारे में सीमित कर दिया।
उपन्यास में उनकी दृष्टि बहुत संकीर्ण होकर उभरती है। शायद यही वजह है कि ‘वंदे मातरम्’ संदेह के घेरे में आ खड़ा हुआ और ख़ुद बंकिम तक। गीत अपनी स्वायत्तता में चाहे तमाम आरोपों से बरी हो जाय, ‘आनंदमठ’ को उस घेरे से बाहर लाना किसी बंकिम-भक्त के लिए भी टेढ़ा काम होगा।
‘आनंदमठ’ साफ़ शब्दों में एक धर्म की प्रतिष्ठा करता है, दूसरे की खिल्ली उड़ाता है और अँगरेज़ों का यशोगान करता है। बार-बार उसमें ‘जय जगदीश हरे’ और ‘हरे मुरारे मधुकैटभारे’ नारों की तरह आते है। ‘वंदे मातरम्’ तो टेक की तरह आता है।
कुछ लेखकों का कहना है कि नारे लगाने वाले विद्रोही संन्यासी (संतान-सेना) हिंदू थे और अत्याचारी शासक के खिलाफ बग़ावत कर रहे थे; और महज़ संयोग है कि शासक मुसलमान था। मगर यह बात सही नहीं है। उपन्यास में संन्यासी विद्रोही मुसलमानों और अँगरेज़ों दोनों से लड़ते हैं — अंत में वे अँगरेज़ों के साथ हो जाते हैं।
कुछ लोग ‘आनंदमठ’ को ऐतिहासिक उपन्यास बताते हैं। यदुनाथ सरकार ने ‘आनंदमठ’ और ‘देवी चौधुरानी’ उपन्यासों की संयुक्त भूमिका में इस बात को तथ्यों के साथ नकारा है। यो बंकिमचंद्र ने भी कभी उपन्यास को ऐतिहासिक नहीं बताया। उन्होंने ‘बंगदर्शन’ में (और बाद में उपन्यास के पहले संस्करण में भी) जहाँ-जहाँ ‘अँगरेज़’ लिखा था, उसे अगले संस्करण में कई जगह बदल कर ‘नैड़े’ (मुसलमानों के लिए ओछा शब्द) कर दिया।
शायद पहले बंकिम बाबू ने शासन के खिलाफ़ लिखना चाहा हो; वारेन हेस्टिंग्ज़ के वक़्त हुए ऐतिहासिक संन्यासी विद्रोह को उन्होंने कथा का आधार बनाया था। लेकिन संभवत: सरकारी मुलाजिम (डिप्टी कलक्टर) होने के नाते वे दुविधा में पड़े और कभी मुसलमान और कभी अँगरेज़ों से संतान-सेना को लड़ाते हुए उपन्यास के समापन में सीधे-सीधे अँगरेज़ों की तरफ़ हो गए। इतना ही नहीं, अँगरेज़-राज्य की ‘अनिवार्यता’ को उन्होंने हिंदू-राज्य की कल्पना से भी जोड़ दिया।
उपन्यास पढ़कर कोई भी जान सकता है कृति में मुसलमानों के प्रति घृणा का भाव है, अँगरेज़ों के लिए प्रशंसा का। उपन्यास के कुछ अंश देखिए:
“मुसलमान राजा क्या हमारी रक्षा करते हैं? धर्म गया, जाती गई, मान गया, कुल गया, अब तो प्राणों पर बजी आ गई है। इन नशेबाज दाढ़ीवालों को बिना भगाए क्या हिंदू हिंदू बच रहेंगे?”
“हम राज्य नहीं चाहते। मुसलमान ईश्वर विरोधी हैं, इसलिए उन्हें सवंश खत्म करना चाहते हैं।”
“संतान-व्रतधारी गांव-गांव में जासूस भेजने लगे। वे जासूस गांवो में जा कर जहां भी हिंदू देखते, उनसे कहते – ‘भाई, विष्णु की पूजा करोगे?’ इस तरह बीस-पच्चीस आदमियों को इकट्ठा करने के बाद वे मुसलमानों के गांव में जा कर उनके घरों में आग लगा देते। मुसलमान अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़े होते। संतान-व्रतधारी उनका सब कुछ लूट कर नए विष्णुभक्तों में बांट देते। लूट का हिस्सा पाकर गांव के लोग ख़ुश होते तो उन्हें विष्णु मंदिर में ला कर विष्णु मूर्ति के चरण छुला कर उनकी संतान बनाया जाता। लोगों ने देखा कि संतान बनने में बड़ा फायदा है। …जहां भी मुसलमानों का गाँव मिल जाता, वे जला कर राख बना देते।”
“किसी ने चिल्ला कर कहा, मार-मार, मुसल्लों को मार।…किसी ने कहा, भाई वह दिन कब आएगा जब हम मस्जिद तोड़ कर राधामाधव का मंदिर बनवाएंगे?”
“कोई गाँव की तरफ़ तो कोई नगर की तरफ़ दौड़ पड़ा और पथिक या गृहस्थ को पकड़ कर कहने लगा, ‘बोलो वंदे मातरम्, नहीं तो मार डालूंगा।’ … मुसलमान देखते ही ग्रामीण मारने दौड़ते। कुछ लोग उसी रात इकट्ठा हो कर मुसलमानों के टोले में जा कर उनके घरों में आग लगाने और उनका सब कुछ लूटने लगे।”
ज़ाहिर है, उपन्यास में सिर्फ शोषक राजा और शोषित प्रजा का झगड़ा नहीं है। हिंदू धर्म-जाति की परवाह है, मुसलमान के प्रति हिकारत है। और अँगरेज़ों की भरपूर जय-जयकार।
लड़ाई में अंगरेज़ सेनापति को पकड़ कर भवानन्द कहते हैं: “कप्तान साहब! हम तुम्हें मारेंगे नहीं। अँगरेज़ हमारे शत्रु नहीं हैं। तुम क्यों मुसलमान की सहायता करने आए? हम तुम्हारे प्राण बख़्शते हैं। लेकिन अभी तुम हमारे बंदी रहोगे। अँगरेज़ों की जय हो, हम तुम्हारे शुभचिंतक हैं।”
उपन्यास के अंत में सत्यानंद मुसलिम-राज्य के ध्वंस के बावजूद हिंदू-राज्य स्थापित न होने पर “तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर होकर” पूछते हैं: “प्रभो! यदि हिंदू-राज्य स्थापित न होगा तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुसलिम-राज्य होगा?” उन्हें महात्मा-महापुरुष का यह ज्ञान मिलता है:
“नहीं अब अँगरेज़-राज्य होगा … अँगरेज़ों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का पुनरुद्धार नहीं हो सकेगा। अँगरेज़ बहिर्विषयक ज्ञान के अच्छे ज्ञाता और लोकशिक्षा में बड़े निपुण है। इसलिए अँगरेज़ को राजा बनाएंगे। अँगरेज़ी शिक्षा के कारण इस देश के लोग बहिस्तत्व में सुशिक्षित हो कर अंतस्तत्व को समझने में समर्थ होंगे। …. अँगरेज़ों का राज्य स्थापित हो, इसीलिए संतान-विद्रोह हुआ है।”
‘आनंदमठ’ की भाषा में प्रवाह है। लेकिन कथ्य के निरूपण में बड़ी एकरसता और उलझाव है। न परिस्थितियां ठीक से उभरती हैं, न युध्द का वातावरण बनता है। कमजोर पात्रों के अनवरत संवादों और नारों के बीच कथ्य को उँड़ेलने की मंशा ज़्यादा उजागर होती है। बांग्ला विद्वान ललितचंद्र मित्र ने सौ साल पहले लिख दिया था: ‘आनंदमठ’ देशभक्ति की रचना के रूप में उत्तम है, लेकिन उसका कला-पक्ष क्षीण है। (मुझे बाद में विश्वनाथ मुखर्जी की किताब ‘वंदे मातरम्’ में ‘बंकिम प्रसंग’ ग्रंथ के हवाले से पढ़ने को मिला कि बंकिम बाबू स्वयं ‘आनंदमठ’ को श्रेष्ठ उपन्यास नहीं मानते थे, क्योंकि “उसमें कला कम है”।)
पत्रिकाओं में धारावाहिक छपने वाले उपन्यासों का अक्सर यह हश्र होता है। वरना संकीर्ण नज़रिए के बावजूद कोई कृति बेहतर हो सकती है। साहित्य में ऐसे ढेर उदहारण हैं। एजरा पाउंड फासीवाद के समर्थक थे और बड़े कवि माने जाते हैं। नीत्शे के बारे में विजयदेवनारायण साही ने दो टूक शब्दों में कहा था कि ‘ज़रदुस्त्र उवाच’ सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने के लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान कृतियों में एक है।
अब राष्ट्रगीत के बहाने कुछ राष्ट्रवाद की बात। पहली बात तो यह कि ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत घोषित करना उचित नहीं था। गीत में धार्मिक प्रतीक भले हों, उसमें सांप्रदायिकता नहीं थी। लेकिन गीत लिखने के छह साल बाद ख़ुद बंकिम बाबू ने ही उसे विवादास्पद ‘आनंदमठ’ का हिस्सा बना दिया।
यह सही है कि आज़ादी के आंदोलन में यह गीत हमारे क्रांतिकारियों की प्रेरणा बना। लेकिन बाद में दंगों में उसे मुसलमानों के खिलाफ हिंदू-हुंकार की तरह भी इस्तेमाल किया गया। मुसलिम लीग ने इसकी मुख़ालिफ़त की। गांधीजी ने भी इसके इस्तेमाल में मुसलिम-तिरस्कार की आशंका देखी। विवाद के चलते ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रगान (ऐंथम) नहीं बन सका। विवादित अंश बाहर करने के बाद एक टुकड़े में वह राष्ट्रगीत बना (क्या कोई जीवित कवि इसकी सहमति देगा?), लेकिन राष्ट्रभक्ति की दलील पर तो उसे जैसे राष्ट्रगान से ऊपर ले जाने की जिद्दोजहद होती है।
दिखावे की राष्ट्रभक्ति राष्ट्रवादी अवधारणा का नतीजा है। यह हमारे देश में पहले नहीं थी। राष्ट्रवाद ओढ़ा हुआ पश्चिम का विचार है, जो उन्नीसवीं सदी में यूरोप में पनपा। यूरोप इस रास्ते पर चल कर बरबाद हुआ। दो विश्वयुद्ध लड़े। राष्ट्रवाद की उसी अवधारणा पर पाकिस्तान बना।
हमारे यहां राष्ट्रवादी रिवायतें दिनोंदिन राष्ट्रीयता का पर्याय बनती चली जा रही हैं। दोनों में बहुत फ़र्क़ है। निश्चय ही नागरिक में अपने राष्ट्र के प्रति आस्था होनी चाहिए। लेकिन आस्था को राष्ट्र-चिह्नों में नहीं तौला जा सकता। राष्ट्र के प्रतीक कभी राष्ट्र की जनता से बड़े नहीं हो सकते। प्रतीक जनता गढ़ती है। इसलिए भारत का कोई एक धार्मिक प्रतीक नहीं हो सकता। न गैर-धार्मिक।
इस मामले में राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ ठाकुर और उपन्यास-सम्राट प्रेमचंद के विचारों का अध्ययन बहुत उपयोगी हो सकता है। रवींद्रनाथ ने देशभक्ति के मुकाबले मानवता को ऊँचा मूल्य बताया था; प्रेमचंद ने राष्ट्रवाद को एक रोग (कोढ़) की संज्ञा दी थी।
एक देश में राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों का यों भी कोई मतलब नहीं है। ऐसा सिर्फ़ हमारे देश में है। और तो और, राष्ट्र-चिह्नों की तर्ज पर प्रादेशिक चिह्नों का निर्धारण भी होने लगा है।
‘वंदे मातरम्’ विवाद का सबसे बड़ा सबक़ शायद यह है कि आज़ाद देश में चीज़ों को बांधने की बजाय अब खुला छोड़ देना चाहिए। इससे हमारी एकता ही नहीं, कई चीज़ें बचेंगी — जो राष्ट्र की असल पहचान हैं। ओम थानवी के फेसबुक वॉल से साभार
