अनुभव सिन्हा ने कहा, पसंदीदा शूटिंग मंतव्य बनाने के लिए अनुदान से आगे सोचें राज्य सरकारें

अनुभव सिन्हा ने कहा, पसंदीदा शूटिंग मंतव्य बनाने के लिए अनुदान से आगे सोचें राज्य सरकारें

अनुभव सिन्हा एक जाने-माने निर्देशक हैं जिनकी फिल्में अपने कथ्य और शिल्प के नजरिये से अलग छाप छोड़ती हैं। सिन्हा की फिल्में दर्शकों में कला और विषय के प्रति रोमांच प्रस्तुत करती हैं। वह ऐसे निर्देशक हैं जो अपनी बात कहने में हिचकते नहीं और किसी की नाजायज प्रशंसा में विश्वास नहीं करते ठीक अपनी फिल्मों की तरह।
अनुभव सिन्हा का कहना है कि यदि सरकारें फिल्मकारों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील नीतियां बनाएं और उन्हें केवल शूटिंग पर अनुदान देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए। वह पटना में एक मीडिया एजेंसी से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि अगर ऐसा हो जाए तो बिहार जैसे राज्य फिल्मकारों के लिए पसंदीदा शूटिंग गंतव्य बन सकते हैं।
‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15’ और ‘थप्पड़’ जैसी चर्चित फिल्मों के लिए मशहूर अनुभव सिन्हा ने कहा कि वह यह जानना चाहते थे कि देश में तेजी से हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलावों के बाद दर्शकों की पसंद किस तरह बदली है। इस यात्रा में उन्होंने महसूस किया कि यह एक मिथक है कि महानगरों के दर्शकों की पसंद-नापसंद छोटे शहरों के दर्शकों से अलग होती है।
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में जन्मे और वाराणसी व अलीगढ़ में शिक्षित सिन्हा खुद को उन लाखों लोगों में शामिल मानते हैं, जिनकी जड़ें छोटे शहरों में रहीं और जो बड़े सपनों के साथ महानगरों की ओर बढ़े।
60 वर्षीय निर्देशक ने खुशी जताई कि उनके गृह राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार ने अपनी-अपनी “फिल्म नीतियां” बनाई हैं, जो इस बात का संकेत है कि इन राज्यों की सरकारें यहां मौजूद विशाल, लेकिन अब तक अप्रयुक्त संभावनाओं को पहचान रही हैं।
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश और बिहार बाजार के लिहाज से बहुत बड़े हैं। यहां अपने-अपने फिल्म सिटी हो सकते हैं। लेकिन दुख की बात है कि यहां की फिल्म नीतियां ज्यादातर शूटिंग करने वालों को अनुदान देने तक सीमित हैं। उन्होंने आशा जताई कि नीतियां बनाने से पहले सरकारें निर्माता-निर्देशकों से बातचीत करनी चाहिए, न कि केवल नौकरशाहों पर निर्भर रहें, जिन्हें फिल्म निर्माण प्रक्रिया की गहरी समझ नहीं होती।
सिन्हा ने कहा कि फिल्म निर्माण में लागत निस्संदेह एक कारक है। मैं अक्सर उदाहरण देता हूं कि एक अच्छी फिल्म बनाने की लागत एक टेक्सटाइल मिल लगाने जितनी होती है। इसके बावजूद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी लोकेशन के चयन में शूटिंग की लागत फिल्मकार की पहली प्राथमिकता नहीं होती।
यदि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य फिल्म संस्थान स्थापित करें, जहां से प्रशिक्षित मानव संसाधन उपलब्ध हो, तो यह मुंबई से शूटिंग के लिए आने वाले निर्माता-निर्देशकों के लिए काफी सहायक होगा।
सिन्हा ने कहा कि इसके अलावा उनको अक्सर लगता है कि अच्छे पटकथा लेखकों की कमी है। देश के विभिन्न हिस्सों में फिल्म संस्थान खुलने से छोटे शहरों में मौजूद प्रतिभाओं को सामने लाने में मदद मिलेगी।
सिन्हा ने कहा, “आज यदि कोई फिल्मकार पटना में शूटिंग करना चाहता है, तो उसे न केवल कलाकार बल्कि पूरी तकनीकी टीम साथ लानी पड़ती है। अगर स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित लोग उपलब्ध हों, तो यह बड़ी सहूलियत होगी। तब मुंबई जैसे स्थापित फिल्म केंद्र से दूरी के बावजूद कोई लोकेशन आकर्षक बन सकती है।”
इस बातचीत के दौरान, पटकथा और संवाद लेखक के रूप में भी पुरस्कार जीत चुके इस बहुआयामी व्यक्तित्व ने हिंसा से भरपूर फिल्मों जैसे ‘एनिमल’ और ‘धुरंधर’ को लेकर उठ रही चिंताओं पर भी अपनी राय रखी।
उन्होंने कहा, “फिल्मों में हिंसा को लेकर स्वीकार्यता जरूर बढ़ी है। मेरे विचार में इसका एक कारण यह है कि आज युद्ध और सैन्य संघर्ष टेलीविजन पर देखे जा सकते हैं। आज के बच्चे अपने माता-पिता की तुलना में समाचारों के जरिए कहीं अधिक हिंसक दृश्य देखते हैं।”
हालांकि उन्होंने यह भी कहा, “मुझे पूरा विश्वास है कि अंततः मानव हृदय शांति और प्रेम की ओर ही आकृष्ट होता है और लोग फिल्मों में भी यही देखना चाहते हैं। उदाहरण के तौर पर, ‘एनिमल’ को भले ही अन्य कारणों से चर्चा मिली हो, लेकिन मूल रूप से वह एक बेटे के अपने पिता के प्रति गहरे प्रेम की कहानी है।”
सिन्हा ने कहा कि उन्हें ‘धुरंधर’ जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों को “प्रोपेगेंडा” बताए जाने की चिंता नहीं है। उन्होंने साफगोई से कहा, “एक हद तक ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ को भी प्रोपेगेंडा फिल्में कहा जा सकता है। फर्क बस इतना था कि वे सत्ता समर्थक नहीं थीं।”
उन्होंने कहा, “हिंसा और प्रोपेगेंडा वाले तत्वों से युक्त फिल्में हमेशा बनती रही हैं। लेकिन हम एक विशाल देश हैं, जहां लोगों की पसंद बहुत विविध है। यही विविधता फिल्मकारों को हिंसा और प्रोपेगेंडा को एकमात्र फॉर्मूला बनाने से रोकती है। विषयों की विविधता बनी रहेगी।”
अनुभव सिन्हा ने क्षेत्रीय भाषाओं, खासकर भोजपुरी सिनेमा के गिरते स्तर पर भी निराशा जताई। भोजपुरी उनके गृह नगर वाराणसी में भी व्यापक रूप से बोली जाती है।
उन्होंने कहा कि भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के लोगों ने अपनी मातृभाषा की फिल्मों से लगभग किनारा कर लिया है। पहले पूरा परिवार थिएटर में भोजपुरी फिल्में देखने जाता था, जिससे फिल्मकारों को परिवार के अनुकूल कंटेंट बनाना पड़ता था। अब ऐसा नहीं है। नतीजतन, भोजपुरी फिल्म निर्माता जल्दी पैसा कमाने के लिए घटिया सामग्री बनाने लगे हैं।

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