एक कर्मचारी की डायरी : समय के ​शिलापट पर अमिट चित्रकारी

नाटककार, कहानीकार रणविजय सिंह सत्यकेतु का कविता संग्रह ‘एक कर्मचारी की डायरी’ न्यू वर्ल्ड 

-ओमप्रकाश तिवारी

प​ब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रका​​शित हुआ है। इस संग्रह में 55 बेहतरीन कविताएं शामिल हैं। लगभग हर विषय पर कवि ने अपनी लेखनी चलाई है और उसे परखा है। संग्रह की अंतिम कविता का शीर्षक ‘कविता’ है जिसमें वह बताते हैं कि कविता क्या है और क्या नहीं है। इस संग्रह की कविताएं समय के ​शिलापट पर अमित चित्रकारी की तरह है जो किसी के मिटाए मिटने वाली नहीं हैं। सदियों बाद भी उत्खनन में वह वैसे ही मिलेंगी जैसी आज हैं। वह अपने भावों को वैसे ही अ​भिव्यक्त करेंगी जैसे आज कर रही हैं। 

कविता शीर्षक की कुछ पं​क्तियां गौरतलब हैं…  

‘कविता

पेड़ की डालियों पर फूटते किसलय की कामना है

शिशु के अबोध अधरों पर उभरते भावों को अपलक निहारना है

देह और मन के अविभक्त स्वरूप का अविराम दर्शन है

खेतों में बीज के अंकुरण का आवाहन है

कविता

समय से साक्षात्कार से कहीं ज्यादा

स्वयं को साधने की कड़ी कसौटी है

हाथ जोड़े नयनों को समझने से कहीं अधिक

पांवों में पड़े फफोलों के स्पर्श की चुनौती है।

कविता

मनुष्यता के पाहन को पिघलाने की क्षमता है

कविता

चुप्पियों को प्रतिकार में परिवर्तित करने की प्रत्याशा है

कविता

क़यामत के क़हर को बेअसर करने की आख़िरी भाषा है।’

ऐसा बताकर कवि किसी और के लिए नहीं, ब​ल्कि अपने लिए ही चुनौती खड़ी करता है। वह अपने इस संग्रह की कविताओं से खुद को इस कसौटी पर परखते भी हैं। आप इस संग्रह की कविताओं को पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि कवि ने बिम्बों के माध्यम से समकालीन विषयों और चरित्रों पर बेहद खूबसूरत कविताएं लिखी हैं। मसलन…

‘नहीं पसंद उन्हें मेरा साम्यवाद

वे रोज़ गढ़ते हैं मेरे खिलाफ क़िस्से

हर कदम पर खोजते हैं खोट

इसलिए मेरे गिर्द घूमती

बनती रहती हैं कहानियां

मेरे चाल-चलन

मेरी कथनी-करनी का हर लम्हा

बन जाता है कहानी।’

‘एक कर्मचारी की डायरी’ श्रृंखला में तीन कविताएं हैं। उनमें से उक्त पं​​क्तियां पहली कविता की अंतिम लाइनें हैं। आज के समय की यह कड़वी हकीकत है। समय प्रवाह के विपरीत ही नहीं, किनारे पर खड़े होने तक पर शक का दायरा विस्तृत हो जाता है। धक्के मार कर नहीं, ब​ल्कि उपेक्षा के भाव से धकिया दिया जाता है हा​शिए पर और उपयोगिता को शून्य बना दिया जाता है। कहने सुनने से लेकर लिखने तक पर पाबंदियों का पैबंद ऐसे चस्पा कर दिया जाता है जैसे आधुनिक कला का चित्रकार चित्रकारी करता है। 

अब इन पं​क्तियों को दे​खिए… 

‘दफ़्तर मेरे घर तक पहुंच गया है

उन्होंने दफ़्तर को

मेरे घर में घुसा दिया है

दफ़्तर की छोटी से छोटी बात

दूर करती है मुझे मेरे घर से

बात-बात पर बुला लिया जाता है दफ़्तर’

कारपोरेट जगत का एक क​थित सफल व्य​क्ति जिसके बारे में कहा जाता है कि उसने शून्य से ​शिखर तक का सफर तय किया है, वह सलाह देता है कि देश के लिए युवाओं को हर रोज 12 घंटे काम करना चाहिए। वह यों ही सलाह तो देता नहीं है। समूचा तंत्र इसी पर काम कर रहा है। उसकी शह पर ऐसा ही कराया जा रहा है। दफ्तर किसी भी कर्मचारी के घर में घुसा दिया गया है। कंपनी और उसके कार्य ही उसकी दिनचर्या बना दिए गए हैं। नहीं करेगा तो कहां जाएगा? एक जगह से भागेगा तो दूसरी जगह यही व्यवस्था तैयार है। कम वेतन और काम के घंटे को अ​धिक बनाकर पूंजी की फसल लहलहा रही है। श्रम अपने पसीने से लथपथ हांफ रहा है…

‘वो चाहते हैं कि हमारी हाज़िर जवाबी

उनके प्रश्नों के सापेक्ष हो

जिज्ञासा देय लक्ष्य की ख़ातिर

विचार किन्तु-परन्तु निरपेक्ष हो

नहीं पसंद उन्हें हमारी ख़ुद्दारी

अधिकारों के प्रति जागृति

इसलिए कमज़ोर नस पकड़

भरते हैं वफ़ादारी का ज़हर’

उक्त पं​क्तियां समय के सीने पर खींची गईं ऐसी लकीरें हैं जो मिटने वाली नहीं हैं। सदियों बाद भी यदि किया जाएगा उत्खनन तो प्रकट हो जाएंगी अपने समूचे अ​स्तित्व के साथ। समय काल की व्याख्या उतनी ही बेबाकी से करेंगी जैसे आज एआई कर रही है। 

पापा कविता की अंतिम चंद लाइनें बहुत कुछ कहती हैं… 

‘विपरीत समय में भी

थाम रखी है

पापा की थमाई

मनुष्यता की पोटली।’

आज के समय का समूचा संघर्ष ही मनुष्यता के लिए है। कितने बेटों को पिता ने थमाई है यह थाती? यदि किसी पिता ने थमाई भी है ऐसी कोई पोटली तो कितने बेटे इसे थाती मानते हुए पालन कर रहे हैं? यही संकट है इस समय का। मनुष्यता तो क्या, जहरीले नारों में संवेदनशीलता तक गायब हो गई है। 

चोकर कविता में समय परिवर्तन का समूचा कालखंड चलचित्र की तरह घूम जाता है। दे​खिए कुछ पं​क्तियां…

‘गांव-गांव में चक्की के आ जाने से

रस्मी हो गए ऊखल-समाठ

तुक-तुक, तुक-तुक की धुन में

जनानियां भूल गईं जंतसार

जाती रही चोकर की मिठास;

चालकर निकाले जाने से पहले तक

आटा ही होता है चोकर

उदर रोग के लिए महफूज़

भूसी-कटकी ज्यादा नहीं होती तो

बिना चाले आटा सान लेती थीं दादी-नानी

कहती थीं, ताकतवर होता है चोकर’

आज का आटा पेट की तमाम बीमारियों की वजह बन गया है। बाजार सुविधाएं देकर कमा रहा है और समाज सुविधए हासिल करके बीमार हो रहा है। परिश्रम का रूप रंग बदल गया है तो बीमारियों के वायरस का म्यूटेशन हो गया है। 

‘मेरी दुपहिया की टुनटुनी’ में कवि की वैश्विक चेतना और चिंता को देखा जा सकता है। सामान्य से बिंब के माध्यम से निर्बलों और गरीब देशों के समर्थन में कवि की संवेदनशीलता पाठक को झकझोर देती है। दे​खिए कुछ पं​क्तियां…

‘जंगल सम्मेलन’ निरीहों का होगा

‘पृथ्वी सम्मेलन’ और ‘निर्गुट आंदोलन’ की तरह

बल्कि आत्मरक्षा और सम्मानपूर्ण ग्रास बनने के लिए

उन्हें बनना ही पड़ेगा

गुटों का मोहताज

क्योंकि झाड़ी से फुनगी तक

उनका ही साम्राज्य है….

काश, सदाबहार बन जाती

मेरी दुपहिया की टुनटुनी!

‘भूख’, ‘होड़’ और ‘अपनी छतरी’ में समाज और उसकी व्यवस्था की परतें खुलती हैं। कवि अपने शब्दों से दर्द को कभी सहेजता है तो कभी उसे बहने देता है। कभी उसे पहाड़ बनने देता है। 

‘गीदड़ों ने खराब कर दी

गद्दी की गरिमा

अटक-मटक गा रहे

नालायकों की महिमा’

एक कविता की उपरोक्त चार पं​क्तियां बहुत कुछ कह जाती हैं। 

इस कविता में खतरे के संकेत को समझने की जरूरत है। कवि बिना लागलपेट के सतर्क और सावधान कर देता है। 

‘नोटों का रंग छोड़ना

वस्तुत:

हस्तगत मूल्य का वचन देती

उस पीठ के प्रति

विश्वास टूटने के ख़तरे का संकेत है

जिसके दस्तख़त से

धारक के दिलोदिमाग पर

शासन का सिक्का चलता है।’

‘लड़की’ कविता में कवि समाज और परिवार में लड़की के वजूद को कुछ इस तरह परिभा​षित करता है। अनंतकाल से चली आ रही यह मानसिकता तमाम बदलावों और परिवर्तनों के बावजूद सतत बनी हुई है। इसमें कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता है। यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हमारी सामाजिक बनावट और उसकी चेतना में कोई खोट है। क्या उसे बदलने की जरूरत नहीं है। सोच बदलने का क्या उद्गम और ​शिखर हो सकता है। 

‘लड़की और नसीहत साथ-साथ पैदा होती हैं

ओंकार के रास्ते पर पत्थर रख

लड़की अपने लिए नकार लेकर आती है

उसका असली दोस्त उसके आंसू होते हैं’

कवि ‘प्रेम’ कविता में ही कह देता है कि 

‘प्रेम करना जहां गुनाह है

और बच्चे पैदा करना जुर्म

कितनी गर्म होगी वहां की हवा!’

‘संशय भरे दौर में’ शीर्षक कविता में कवि बहुत कुछ के प्रति चिंतित है और बहुत कुछ रेखांकित करता है। सचेत भी करता है। …

‘प्रेम, प्रकृति और सम्वेदनाओं से दूर

इस उपभोक्तावादी समय में

विद्या से विनय नहीं चतुराई फलित होती है’

‘आप बुद्ध हैं न’ कविता में कवि आज के समय को रेखांकित करता है। वह बताता है कि 

‘इस वीराने देस में

आप किसे ढूंढ रहे हैं भंते…

करुणा को?

नहीं, अब वह यहां नहीं रहती

हां, आती रहती थी पहले

पर अब नहीं

इधर का रिवाज़ बदल गया है न!’

यहां जितनी कविताओं का मैंने जिक्र किया है, केवल वही नहीं, संग्रह की कोई भी कविता उठा लें, वह आपको खुद से जोड़ लेगी। महसूस होगा कि यह तो मेरी अपनी संवेदनाएं हैं। यही एक कवि की सफलता है और उसका सम्मान। 

संपर्क : लंभुआ सुल्तानपुर।

मो. 7617595548