विकृति
मंजुल भारद्वाज
विकृति : विकार +कृति ! विकृति विकार जनित कृति है । जब शरीर के पंचतत्व अनियमित होते हैं तब शरीर बीमार हो जाता है। जब शरीर में पंच तत्वों का संतुलन बिगड़ता है तब सांस,रक्तचाप ,पाचन और नित्य निवृति बाधित हो शरीर के प्रकृति नित्यकर्म को प्रभावित करती हैं । जिससे शरीर की प्रकृति बदल जाती हैं। भाव विकारग्रस्त हो जाते हैं । विकार शरीर में पसर मन में छा जाता है। जो इलाज से ठीक होता है ।
वैसे ही रिश्तों में जब तत्व और व्यवहार का संतुलन बिगड़ता है तब मैत्री भाव ईर्ष्या ,द्वेष , कलुषता से भर जाता है। एक दूसरे एक साथ बंधी प्रेम डोर टूट जाती है। एक दूसरे की पूरकता अभिशाप बन जाती है । प्रेम शत्रुता में बदल कर एक दूसरे के अहित में प्रतिबद्ध हो जाता है ।
विकार मन, मर्म भाव को दूषित करता है न – नजरिए को कलुषित । बुद्धि भ्रष्ट और विनाश हाज़िर। रिश्तों की बुनियाद तत्वों पर होती है ,पर व्यवहारिक संचलन संवेदनाओं से होता हैं । कब कौन सी बात शूल सी चुभ जाए कोई कह नहीं सकता क्योंकि ‘मुझे समझो ‘ की अपेक्षा हर पल खड़ी रहती है! रिश्तों में तत्व किसी कीमती वस्तु की तरह खज़ाने में रख दिए जाते हैं और व्यवहार संवेदनाओं की सान पर चलता है । सान तेज तो रिश्ता लहूलुहान ,सान भोथर तो रिश्ता नीरस हो जाता है । ऐसी स्थिति में संवाद की बलि सबसे पहले चढ़ती है और इगो नाम का विकार अपना चक्रव्यूह रचता है । एक दूसरे को देखे बिना निवाला नहीं खाने वाले एक दूसरे के लिए सांप और नेवले बन जाते हैं।
विचार और भावना मनुष्य के संचार तंत्र हैं । भावनाओं को जब ठेस लगती है तब भावनाएं भी ठेस पहुंचाना चाहती हैं या पहुंचाती है। भावनाएं जैसे को तैसा वाले भाव में अपना हिसाब किताब करती हैं । रिश्तों में जब भावनाओं का जैसे को तैसा खेल शुरू होता है तब अनंत कालीन युद्ध शुरू हो जाता है जिसका अंत रिश्तों के अंत के रूप में होता है ।
संवेदनाओं के जैसे को तैसा वाले हिसाब किताब को विचार दिशा देते हैं । विचार जैसे को तैसा वाला न्याय नहीं करते रिश्तों में अपेक्षाओं की चाशनी में समझ लेने के भाव को तात्विक दृष्टि के आलोक से रोशन कर शांति बहाली करते हैं ।

 
			 
			